scorecardresearch
Wednesday, 18 December, 2024
होममत-विमतसामाजिक-सांस्कृतिक ग़ुलामी से क्यों आज़ाद नहीं होना चाहते लोग

सामाजिक-सांस्कृतिक ग़ुलामी से क्यों आज़ाद नहीं होना चाहते लोग

लोग स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की दिशा में आगे बढ़ना नहीं चाहते, क्योंकि शायद इन मूल्यों की गारंटी देने वाले नए आधुनिक भारत को लेकर उनके मन में संदेह है. वे अराजकता की ओर नहीं जाना चाहते.

Text Size:

पिछले कुछ दिनों से ओडिसा का एक विडियो वायरल हो रहा है, जिसमें कुछ लोग सर नीचे करके बैठे हैं, और मंत्रोच्चार के बीच एक ब्राह्मण पुजारी उनके सर पर अपने पैर रखकर आशीर्वाद दे रहा है. यह घटना जिनके साथ घटित हुई है, उन्होंने अभी तक कोई भी क़ानूनी शिकायत नहीं दर्ज करायी है, इसलिए यह मानना उचित होगा कि यह कार्य उनकी सहमति से ही हुआ होगा. पुरी जगन्नाथ मंदिर मुक्तिमंडप संस्था के अध्यक्ष का कहना है कि यह ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे सब को आशीर्वाद दें. लेकिन इस मामले में किसी के साथ जबर्दस्ती नहीं की जानी चाहिए. इस वीडियो में ज्यादातर लोग सिर झुकाकर आशीर्वाद स्वीकार करते नजर आ रहे हैं, यानी ये किसी प्रकट जबर्दस्ती का मामला नहीं लगता.

यह अकेली ऐसी घटना नहीं हैं, जहां दलित-पिछड़े समाज के लोग अपने को इस तरह के अमानवीय व्यवहार के लिए प्रस्तुत कर रहे हों. कुछ वर्ष कर्नाटक के दक्षिण कनारा जिले में कूका स्वामी मंदिर में मदे स्नान नाम की प्रथा को लेकर विवाद हो गया था. वहां ब्राह्मण जाति के लोग पहले पंगत में बैठकर खाना खा लेते हैं, और बाद में बाकी लोग उन पुजारियों के जूठे पत्तलों पर लोटते हैं. इसके पीछे मान्यता ये है कि ब्राह्मणों के जूठन पर लोटने से बाकी लोगों की बीमारियां दूर हो जाएंगी. मदे स्नान के मामले में कर्नाटक सरकार ने पहले हाई कोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट में केस दायर भी किया था, लेकिन दलित-आदिवासी समाज के लोग ही इस प्रथा के समर्थन में खड़े हो गए. उनका कहना था कि ब्राह्मणों के जूठे पर लोटना उनका अधिकार है. बहरहाल, अब मंदिर खुद ही इस आमानवीय प्रथा को खत्म करने की बात कर रहे हैं. उडिपी कृष्ण मंदिर ने मदे स्नान का तरीका बदलकर जूठन की जगह मंदिर के प्रसाद पर लोटने की प्रथा शुरू की और फिर उसे भी बंद कर दिया.


यह भी पढ़ें: आर्थिक महाशक्ति भारत दुनिया के सबसे भूखे देशों की लिस्ट में क्यों


इसी तरह की एक अमानवीय प्रथा ओडिसा के केंद्रपाड़ा जिले के एक मंदिर में बरसों से जारी थी, जिसमें दलितों को मंदिर में नहीं आने दिया जाता था. वे मंदिर की बाहरी दीवार में बने नौ छेदों से देवताओं के दर्शन करते थे. बाद में ऐसी व्यवस्था बनी कि वे एक बैरिकेड के बाहर से देवताओं के दर्शन करेंगे. आश्चर्यजनक है कि दलितों को इस बात से कोई शिकायत नहीं थी कि उनके साथ ऐसा भेदभाव क्यों किया जाता है.

मानसिक गुलामी का चलन जारी

विभिन्न रूपों में ऐसी सैकड़ों प्रथाएं अलग-अलग स्थानों में जारी हैं. आज जिस तीव्र गति से दलित-बहुजन आंदोलन की वैचारिकी विभिन्न संचार माध्यमों खासकर डिजिटल और सोशल मीडिया के जरिए जन-जन तक पहुँच रही है, तब इन प्रथाओं के जारी रहने का क्या मतलब है? ऐसी तमाम घटनाओं में एक बात समान है कि किसी को इसके लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है.

ये मान लिया जा सकता है कि लोग आसानी से परम्पराओं और रूढ़ियों से आज़ाद नहीं होना चाहते. जब राज्य (सरकार) भारत के संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को लागू करने के लिए आगे बढ़ता है और इन प्रथाओं पर पाबंदी लगाने की कोशिश करता है, तो भी लोग इन बदलाव को स्वीकार नहीं करते, बल्कि कई बार तो बदलाव के विरोध में खड़े हो जाते हैं. आखिर वे कौन-सी वजहें हैं, जिनकी वजह से लोग मानसिक गुलामी से आजाद होना नहीं चाहते? इस लेख में इसी सवाल का सैद्धान्तिक जवाब ढूँढने की कोशिश की गयी है.

लोग आज़ाद क्यों नहीं होना चाहते?

सामाजिक ग़ुलामी से मानव आज़ाद क्यों नहीं होना चाहता? यह एक अति महत्वपूर्ण सवाल है, जिस पर भारतीय दर्शन में कम, लेकिन पश्चिमी दर्शन में काफ़ी बहस हो चुकी है. यह सवाल जब फ़्रांसीसी विचारक रूसो के सामने आया था, तो उन्होंने सुझाव दिया कि ‘लोगों को ज़बरदस्ती आज़ाद कर दिया जाना चाहिए’. रूसो के ऐसे ही विचारों से प्रेरित होकर फ़्रान्स में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के नारे के साथ 1789 में क्रांति हो गयी, जिसमें क्रांतिकारियों ने तत्कालीन राजा लूई सोलहवां को हटाकर देश में लोकतांत्रिक सरकार बनाने की कोशिश की थी. लेकिन क्रांति के पंद्रह वर्ष के अंदर ही फ़्रान्स में दोबारा राजशाही आ गई और नेपोलियन बोनापार्ट राजा बन गया. नेपोलियन के राजा बनने से एक धारणा बनी कि जिन उद्देश्यों को लेकर फ़्रान्स में क्रांति हुई थी, वे उद्देश्य पूरे नहीं हुए.

इससे यह माना जाने लगा कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के विचार में ही कोई समस्या है. इस समस्या के बारे में ब्रिटिश दार्शनिक एडमंड बर्क ने फ़्रान्स की क्रांति के समय ही बता दिया था. बर्क के अनुसार स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व अमूर्त विचार हैं. इसलिए इन विचारों पर आधारित क्रांति समाज में आराजकता फैलाती है. चूँकि अराजकता वाला समाज अनिश्चितता, अस्थिरता और असुरक्षा से भरा होता है, जिसको जोड़े रखना असम्भव होता है, इसलिए मनुष्य ऐसे समाज में जाने के लिए तैयार नहीं होता. एडमंड बर्क ने यह विचार अपनी किताब ‘रेफलेक्शंस ऑन फ़्रेंच रिवल्यूशंस’ में दिया है, जिसकी वजह से उन्हें आधुनिक समय में कंज़र्वेटिव विचारधारा का सबसे प्रमुख विचारक माना जाता है.

एडमंड बर्क के उक्त विचारों के आलोक में यदि भारत की परम्पराओं और रूढ़ियों को देखा जाए तो ऐसा लगता है कि यहाँ लोग स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की दिशा में आगे बढ़ना नहीं चाहते, क्योंकि शायद इन मूल्यों की गारंटी देने वाले नए आधुनिक भारत को लेकर उनके मन में संदेह है. इस लॉजिक से ग़रीब सवर्णों के उस व्यवहार को भी समझा जा सकता है, जिसके तहत वो जाति-व्यवस्था का समर्थन करते हैं. सवर्ण जाति के ग़रीब व्यक्ति को शायद ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व वाले समाज में उसका सामाजिक विशेषाधिकार समाप्त हो जाएगा, वहीं ग़ैर-सवर्ण जाति के व्यक्ति को यह डर हो सकता है कि नए समाज में उनकी स्थिति कहीं और भी ख़राब न हो जाए. कुल मिलकर परम्पराएँ लोगों में स्थिरता और सुरक्षा की भावना का संचार करती हैं, शायद इसलिए लोग इनको आसानी से छोड़ना नहीं चाहते.

एडमंड बर्क के कंज़र्वेटिव विचार और डॉ. आंबेडकर

 उड़ीसा और कर्नाटक समेत तमाम अन्य उदाहरण हैं जिनसे यह दिखाई देता है कि दलित-पिछड़े समाज के लोग सामाजिक बुराइयों को छोड़कर स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के रास्ते पर जाना नहीं चाहते, जिसकी तरफ़ उनको डॉ. आंबेडकर ले जाना चाहते थे. डॉ. आंबेडकर भारत में जाति-व्यवस्था की इस आधार पर आलोचना करते हैं कि इसमें स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व नहीं है. ऐसे में एक सवाल यह उठता है कि क्या डॉ आंबेडकर एडमंड बर्क की स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की आलोचना से अनभिज्ञ थे? इसका जवाब नकारात्मक है, क्योंकि आंबेडकर अपनी किताब रानाडे, गांधी और जिन्ना में एडमंड बर्क को ही उद्धृत करते हुए ‘सामाजिक लोकतंत्र’ के महत्व के बारे में बताते है.


य़ह भी पढ़ें: इंटरव्यू में जातीय भेदभाव के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक फैसला


इसके अलावा काठमांडू में बुद्ध या कार्ल मार्क्स पर दिए अपने भाषण में भी डॉ. आंबेडकर ने कार्ल मार्क्स के वर्ग-विहीन समाज की अवधारणा का जिस लॉजिक के आधार पर खंडन किया था, वह भी काफ़ी कुछ एडमंड बर्क की स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की आलोचना से मिलता-जुलता है. जो समस्या कार्ल मार्क्स के वर्गविहीन समाज में उत्पन्न हो सकती है, वही समस्या आंबेडकर के जातिविहीन समाज में भी उत्पन्न हो सकती है. ऐसे में डॉ. आंबेडकर के लिए यह ज़रूरी हो गया था कि वह इसका समाधान सुझाएँ.

आंबेडकर का समाधान

अपने जीवन के अंतिम दस वर्ष में आंबेडकर के लेखों में एडमंड बर्क के विचारों का काफ़ी प्रभाव दिखायी देता है. वे इस समस्या का समाधान खोजने की कोशिश करते हैं. सवाल है कि आंबेडकर बर्क के सवालों का जवाब कैसे देते हैं? एडमंड बर्क का मानना था कि भविष्य की बुनियाद भूतकाल पर रखी जानी चाहिए, जिससे कि भविष्य अस्थिर, अराजक, अनिश्चित, असुरक्षित न दिखाई दे. शायद इस वजह से भी आंबेडकर भविष्य के भारत की कल्पना करते हुए इतिहास का सहारा लेते हैं और ‘बौद्धमय भारत’ की बात करते हैं. इसके अलावा वह स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के बारे में भी कहते हैं कि ये विचार उन्होंने बुद्ध की शिक्षाओं से लिया है. ऐसा करके शायद आंबेडकर इन विचारों को इतिहास में स्थापित करने की कोशिश करते हैं, ताकि लोगों को ये विचार अमूर्त न लगें.

इन सब उपायों के अलावा आंबेडकर स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के साथ-साथ करुणा, मैत्री, प्रज्ञा, शील जैसे बौद्ध दर्शन के मूल्यों की भी बात करते हैं, ताकि उनके सपनों का जातिविहीन समाज आपस में बँधा रहे, अराजकता की तरफ़ न जाए.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

share & View comments

2 टिप्पणी

  1. If someone is economically and socially deprived and is at the mercy of others for survival he will be physically weak, mentally wreck, Meek and timid. His instinct to fight back will
    be almost dead.
    Same person if educated, economically secure will have different personality. He can fight for his rights and attain political freedom as well.

Comments are closed.