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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतज्ञान और विज्ञान के विकास में यूरोप के चमकीले रिकॉर्ड के मुकाबले क्यों फिसड्डी रह गए मुगल

ज्ञान और विज्ञान के विकास में यूरोप के चमकीले रिकॉर्ड के मुकाबले क्यों फिसड्डी रह गए मुगल

जिस दौर में भारत में मुगल शहंशाह और दूसरे राजा-महाराजा तलवार भांज रहे थे, शिकार कर रहे थे, मुजरा देख और सुन रहे थे और अपने लिए महल और मर चुके परिजनों के लिए मकबरे बना रहे थे, तब यूरोप पुनर्जागरण के बाद धर्म को शासन से अलग करने में जुटा था.

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मुगलों को गए सदियां बीत गईं, पर भारतीय राजनीति का मुगल अध्याय खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है. इन दिनों सत्ता पक्ष बार-बार मुगलों को याद कर रहा है और उन्हें भारत की वर्तमान समस्याओं खासकर सनातन धर्म की समस्याओं के लिए कोस रहा है.

जबकि सेक्युलर इतिहासकार उनके सामने ढाल बनकर खड़े हैं और द ग्रेट मुगल के समावेशी होने और ताजमहल बनाने के किस्से बता रहे हैं.

2014 के पहले तक मुख्यधारा के विमर्श में मुगल महान बने हुए थे. इसमें सबसे ज्यादा योगदान स्कूली किताबों, फिल्मों और टीवी सीरियल्स का था. यही वे जगहें हैं जहां आम भारतीय इतिहास सीखता है.

स्कूली किताबें अकबर को महान और समावेशी बता रही थीं, तो बॉलीवुड भी अकबर पर फिल्में बनाकर कदम ताल कर रहा था.

मुगले आजम और अनारकली के किस्से और ताजमहल, लाल किला समेत कला-संस्कृति की महानता का बखान चौतरफा था.

2014 के बाद अब मुगलों की महानता के किस्से हटाए जा रहे हैं. मुगलों के बारे में ये कहा जा रहा है कि वे हिंदुओं के विरोधी थे, बहुत अत्याचार किया था, मंदिर तोड़े थे आदि. बीजेपी शासन में मुगलों को हिंसा और बुराई के प्रतीक के रूप में स्थापित किया जा रहा है.

मुगलों को लेकर चर्चा के इन दो छोरों के बीच एक वाजिब सवाल नहीं पूछा जा रहा है कि मुगलों के दौर में आम जनता किस हाल में थी.

उनकी भलाई के लिए क्या काम हुए. खासकर, लोगों की जिंदगी आसान बनाने के लिए जरूरी विज्ञान और तकनीक के विकास के लिए मुगलों ने क्या किया या उस दौर में विज्ञान की दिशा में क्या काम हुए या नहीं हुए?

इस आलेख में हम ये जानने की कोशिश करेंगे कि 1526 में भारत में मुगल शासन की स्थापना से लेकर 1757 में प्लासी के युद्ध के साथ मुगल साम्राज्य के पतन के बीच के समय में पश्चिमी दुनिया, खासकर यूरोप और फिर अमेरिका में विज्ञान और उद्योग के क्षेत्र में क्या तरक्की हुई और भारत में उस समय ऐसा कुछ क्यों नहीं हुआ.

इस कालखंड में भारत और यूरोप की तुलना करते ही स्पष्ट हो जाता है कि जिस दौर में हमारे शहंशाह और नवाब तथा उनकी छत्रछाया में पलने वाले राजा और महाराज एक दूसरे से तलवारें भिड़ा रहे थे और महल, किले और मकबरे बना रहे थे, तब यूरोप विज्ञान और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में छलांग लगा रहा था. उस समय के आविष्कारों का असर आज हमारे जीवन, घर, किचन, सड़क, अस्पताल, हर तरफ नजर आता है.


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कोई कह सकता है कि इसके लिए मुगल काल को क्यों दोष दिया जाए. इससे पहले और इसके बाद के दौर में भी तो विज्ञान के क्षेत्र में भारत में कोई चमत्कार नहीं हुआ? ये बात सही है कि मुगलों के आने से पहले और मुगलों के जाने के बाद भी भारत में कोई बड़ी वैज्ञानिक प्रगति नहीं हुई, लेकिन ध्यान रहे कि भारत का मुगल काल ही विश्व इतिहास का वह दौर है, जब विज्ञान ने अपनी सबसे ऊंची छलांग लगाई थी और उस समय विज्ञान में हुई तरक्की की छाया हमें आज तक नजर आ रही है. इसलिए अगर भारत ने मुगल काल में कोई वैज्ञानिक तरक्की नहीं की तो मामला बेहद गंभीर विश्लेषण की मांग करता है, खासकर इसलिए कि मुगलों के पहले के दौर में यूरोप और भारत के बीच विज्ञान के मामले में जमीन और आसमान का फर्क नहीं था. ये फर्क मुगल काल में बहुत बढ़ जाता है.

जिस दौर में भारत में मुगल शहंशाह और दूसरे राजा-महाराजा तलवार भांज रहे थे, शिकार कर रहे थे, मुजरा देख और सुन रहे थे और अपने लिए महल और मर चुके परिजनों के लिए मकबरे बना रहे थे, तब यूरोप पुनर्जागरण के बाद धर्म को शासन से अलग करने में जुटा था. उसी दौर में कैथोलिक कट्टरता के मुकाबले प्रोटेस्टेंट प्रगतिशीलता जड़ जमा रही थी. वैज्ञानिक सोच की जीत हो रही थी और परंपरा की जगह सिमट रही थी. ये महान वैज्ञानिक खोज और आविष्कारों का दौर था. ज्ञान का लोकतांत्रीकरण हो रहा था और आम लोगों के लिए ज्ञान और यूनिवर्सिटी के दरवाजे खुल रहे थे. ये अफसोस की बात है कि मुगल काल कला और निर्माण की दृष्टि से समृद्ध होते हुए भी इस तरह की वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल नहीं कर पाया.

अगर हम 1526 से 1757 के बीच, जब भारत में मुगल काल चल रहा था, यूरोप में हुई वैज्ञानिक प्रगति का जायजा लें तो बेहद शानदार तस्वीर नजर आती है.

सौरमंडल को वैज्ञानिक मान्यता (16वीं सदी): कॉपरनिकस ने अपनी खगोलीय खोजों के जरिए साबित किया कि पृथ्वी और बाकी ग्रह सूरज के चारों और घूमते हैं. चर्च को चुनौती देते हुए कही गई ये बात, आधुनिक विज्ञान की नींव का पत्थर साबित हुई, क्योंकि इससे प्रश्न पूछने और स्थापित मान्यताओं को चुनौती देने की परंपरा शुरू हुई. इस तरह आधुनिक खगोल विज्ञान की भी शुरुआत हुई और दुनिया के बारे में समझदारी भी बढ़ी.

टेलीस्कोप (1609): 1609 में इटली के खगोलशास्त्री गैलीलियो ने टेलीस्कोप यानी दूरबीन का मुंह आसमान की ओर मोड़ दिया और इससे दुनिया के नए रहस्यों को जानने का रास्ता मिल गया. इसके बाद पृथ्वी को चपटा बताने से लेकर पृथ्वी को यूनिवर्स का केंद्र बताने जैसी धार्मिक मान्यताएं भरभरा कर गिर पड़ीं. इस बिंदु पर विज्ञान की जीत निश्चित हो गई.

रक्त संचार (1628): इंग्लैंड के डॉक्टर विलियम हार्वी ने मानव शरीर में खून किस तरह से रगों में दौड़ता है और इसमें हार्ट यानी हृदय की क्या भूमिका है, इसका लेखा जोखा अपनी किताब में पेश किया. इससे मानव शरीर की संरचना को समझने का एक नया नजरिया मिला और इससे चिकित्सा विज्ञान की तरक्की का रास्ता खुल गया. इस तरह आधुनिक काया विज्ञान की बुनियाद भी पड़ी.

पारे वाले थर्मामीटर का आविष्कार (1714): पोलिस-जर्मन भौतिक विज्ञानी डेनियल गैब्रियेल फॉरेनहाइट ने पारा यानी मर्करी आधारित थर्मामीटर बनाकर तापमान नापने की दिशा में बड़ी तरक्की की. इससे अन्य बातों के अलावा, बीमारियों का पता लगाना और इलाज के असर को समझना आसान हो गया.

मलेरिया के इलाज के लिए कुनैन का इस्तेमाल: 17वीं सदी में उस समय की बेहद खतरनाक बीमारी मलेरिया पर काबू पाने का रास्ता मिल गया. एक पेड़ की छाल से बनने वाले कुनैन को मलेरिया के इलाज में असरदार पाया गया. इस तरह काफी जिंदगियों को बचाया जा सका.

कैलकुलस (17वीं शताब्दी): गणित की एक शाखा के रूप में कैलकुलस का विकास एक महत्वपूर्ण कदम है. सर आईजैक न्यूटन और गौटफ्रेड वेल्हम लिबनिज़ ने इस दिशा में काम किया. इस तरह निरंतर बदलती संख्याओं को समझने और उनके विश्लेषण का रास्ता खुल गया. फिजिक्स और इंजीनियरिंग की तरक्की इससे जुड़ी हुई है.

माइक्रोस्कोप (16वीं शताब्दी): दो लेंसों के इस्तेमाल से सूक्ष्म चीजों और संरचनाओं के अध्ययन का रास्ता खोलने वाले माइक्रोस्कोप का आविष्कार डच वैज्ञानिकों को जाता है. इससे माइक्रोबायोलॉजी के लिए रास्ता खुला और चिकित्सा विज्ञान में भी काफी तरक्की हुई.

बैरोमीटर (1643): हवा का दबाव मापने की मशीन बैरोमीटर का आविष्कार इंवाजेलिस्टा टोरीसेली ने किया. इससे मौसम का पूर्वानुमान लगाना पहले से आसान हो गया.

भाप का इंजन (1698): थॉमस सेवरी ने भाप से चलने वाला इंजन बनाकर तकनीक के क्षेत्र में लंबी छलांग लगा दी. इस एक खोज ने निर्माण से लेकर गाड़ियों के विकास का रास्ता आसान बना दिया.

सवाल उठता है कि मुगलों के पास लगभग पूरा उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत का विशाल इलाका था और उनका शासन काफी समय तक स्थिर भी रहा, जिस दौरान बाहरी आक्रमण नहीं हुए, फिर ऐसे स्थिर शासन में वे वैज्ञानिक प्रगति की दिशा में काम क्यों नहीं कर पाए, जबकि उसी समय यूरोप के छोटे-छोटे देशों में विज्ञान का इतना सारा काम हो रहा था?

भारत में पूंजीवाद का विकास न होने का कारण ढूंढते हुए प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर इस समस्या की जड़ के आसपास पहुंच पाए थे. उन्होने इसका कारण यहां के सामाजिक और धार्मिक ढांचे में देखा. वेबर के मुताबिक, भारत में जिस तरह का धार्मिक विचार हावी है और जैसी सामाजिक संरचनाएं हैं, वह तार्किक और व्यवस्थित चिंतन और वैज्ञानिक खोज के लिए अनुकूल नहीं है. जबकि प्रोटेस्टेंट और खासकर कैल्विनिज्म के कारण यूरोप में तर्क और साथ में पूंजीवादी विकास में धर्म बाधक नहीं रह गया था. प्रोटेस्टेंट विचार के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति इस जीवन में सफल है तो उसके लिए मुक्ति का रास्ता आसान हो जाएगा. इस कारण प्रोटेस्टेंट विचार धन संपदा के अर्जन को न सिर्फ उचित, बल्कि जरूरी मानता है. ये भाग्यवाद के विपरीत है, जिसमें माना जाता है कि मनुष्य इस जन्म में पिछले जन्मों के कर्मों का फल भुगत रहा है और इस जन्म में वह जो कर्म करेगा, उसका फल अगले जन्म में मिलेगा. इस सोच को मानने वाले लोग इस जन्म को सफल और समृद्ध बनाने पर जोर देने को धार्मिक कृत्य नहीं मानते, बल्कि अगले जन्म में मोक्ष मिलने का इंतजार करते हैं. वेबर ने भारत के विकास में जातिवाद और जाति आधारित कर्म के सिद्धांत को भी बाधक माना है. इससे समाज में गतिशीलता का अभाव हो जाता है.

मुस्लिम शासन में भी भारत के बहुसंख्यक लोग अपनी पुरानी धार्मिक मान्यताओं से बंधे रहे. मुगलों के आने से भारत की सामाजिक संरचना और धार्मिक-जातीय विचारों पर कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि मुगलों ने कभी भी ग्राम स्तर पर चलने वाली हिंदू सामाजिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं किया. इसे मुगलों की अच्छी बात के तौर पर पेश किया जाता है, लेकिन है तो ये समस्या ही. अंग्रेजों ने हिंदुओं के सुधार को अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी के तौर पर लिया और सती से लेकर, विधवा विवाह तक के मामले में हस्तक्षेप किया. दरअसल मुगलों ने हमेशा भारतीय प्रभु वर्ग के साथ मिलकर राज किया और उनके साथ बेशुमार विवाह संबंध भी बनाए. इस क्रम में समाज का क्या होगा, ये उनकी चिंताओं में नहीं था.

साथ ही मुगलों के विशाल शासन के मुकाबले, यूरोप के छोटे-छोटे देश एक दूसरे के साथ होड़ कर रहे थे और वैज्ञानिक प्रतिभाओं को अगर किसी देश में सम्मान नहीं मिलता था, तो उसके लिए दूसरे देश में जाकर अपना काम करने का रास्ता खुला हुआ था. वे राजा दूसरे देशों से प्रतिभाओं को आमंत्रित भी कर रहे थे. इस समय तक यूरोप में यूनिवर्सिटी सिस्टम भी विकसित हो चुका था, जिसने ज्ञान विज्ञान के विकास में भूमिका निभाई. इस समय मुगलों का जोर सैन्य अभियानों और साम्राज्य विस्तार पर था, जिनका खर्चा चलाने के लिए उनके पास निर्मम तरीके से लगान वसूली एकमात्र तरीका था. हालांकि ये काम वे अक्सर भारतीय राजाओं और सामंतों से भी कराते थे. भारी लगान वसूले जाने के कारण भारत में मध्य वर्ग विकसित नहीं हो पाया, जिनकी व्यापार और ज्ञान-विज्ञान के विकास में बड़ी भूमिका हो सकती थी.

ये आश्चर्यजनक है कि मुगल आखिर तक दक्षिण विजय का अभियान चलाते रहे लेकिन उन्होंने कभी दिल्ली से दक्षिण जाने के सड़क मार्ग को ढंग से विकसित नहीं किया. ये काम वे इसी दौर के एक और बादशाह शेरशाह सूरी से सीख सकते थे, जिसने ढाका से पेशावर तक की सड़क बनवाई थी.

कुल मिलाकर मुगल काल भारत में ज्ञान और विज्ञान के विकास के नजरिए से अंधकार-युग ही साबित हुआ. इसलिए द ग्रेट मुगल कहे जाने पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं। उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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