चुनावों में सभी दल कई तरह के वादे करते हैं, और जनता को अक्सर ये शिकायत रहती है कि चुनाव जीतते ही वो अपने वादे भूल जाते हैं. हालांकि, इस बार ऐसा भी दिखा कि कांग्रेस और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी चुनाव के शुरुआती दिनों में जो वादे कर रहे थे. अंतिम दौर के चरण आते-आते खुद ही उन वादों को भूलने लगे थे.
इस चुनाव में राहुल गांधी का ये एक नया रूप दिखा, जिसमें वो वादों की झड़ी लगाते थे, और उन वादों की वजह से सुर्खियों में छा जाते थे, कई राज्यों में उनके इन वादों का असर भी दिखने लगा था, लेकिन जब उन वादों की राजनीतिक फसल काटने का मौका आया, तो राहुल गांधी आगे बढ़ गए, और दूसरे मुद्दों में उलझ गए, या भाजपा नेताओं की बयानबाजियों में उलझ गए.
चुनाव प्रचार की शुरुआत राहुल गांधी ने बेहद आक्रामक तरीके से की थी और ऐसा लग रहा था कि वे खुद भी एजेंडा सेटिंग करने में सफल हो रहे हैं. जबकि इसके पहले तक कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल भाजपा के ही एजेंडे में उलझकर रह जाते थे.
बाद में देखने में आया कि राहुल उन वादों तक का जिक्र अपने भाषणों में नहीं कर रहे हैं. जिनको उन्होंने पार्टी के घोषणा पत्र में जगह दी थी और जिनकी वजह से उनके भाषण न केवल धारदार होने लगे थे, बल्कि भाजपा नेता भी उनके वादों और उनकी बातों पर बोलने पर मजबूर होने लगे थे. राहुल गांधी अपने वादों की बात करने से इस तरह हिचकने लगे मानों, कांग्रेस की सरकार बनने ही वाली है और अगर उन्होंने बार-बार उन वादों की बात की तो नई सरकार पर उन्हें पूरा करने का दबाव बढ़ जाएगा.
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सबसे बड़ी बात. इस समय देश में कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं. अगर कांग्रेस उन वादों के प्रति गंभीर होती तो उनमें से कुछेक वादों को वो राज्य सरकारों से पूरा करवा देती. आखिर केंद्र और राज्य के लिए किसी दल की बुनियादी नीतियां तो समान रहनी चाहिए. मिसाल के तौर पर अगर कांग्रेस शासित राज्य सरकारों ने गरीबों को 72,000 रुपए सालाना देने की शुरुआत कर दी होती, तो इसका संदेश पूरे देश में जाता कि कांग्रेस की सरकार आएगी, तो रुपए मिलेंगे.
कौन-से वादे करके भूले राहुल
कांग्रेस ने गरीब परिवारों को 72 हजार रुपए सालाना न्यूनतम आय दिलाने का वादा किया था. राहुल के इस क्रांतिकारी ऐलान से भाजपा एकदम बैकफुट पर आ गई थी. बहस के दौरान भाजपा नेता इसके जवाब में बगलें झांकने लगे थे. ऐसा लग रहा था कि जिस तरह से मध्यप्रदेश में किसान कर्जमाफी के मुद्दे पर कांग्रेस ने बड़ी सफलता हासिल की थी, उसी तरह से ये न्यूनतम आय योजना कांग्रेस को बेहद फायदा दिला सकती है, लेकिन फिर कांग्रेसी इसका जिक्र करने से बचने लगे. खुद राहुल को भी शायद 72 हजार रु. का वादा भूले-भटके ही याद आया.
कांग्रेस ने एससी, एसटी और ओबीसी की आबादी 75 प्रतिशत मानते हुए समान अवसर आयोग बनाने का वादा कर रखा था. लेकिन, कांग्रेसियों के भाषण में ये वादा गायब था. विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों की नियुक्ति के लिए 200 पॉइंट रोस्टर को बहाल करना भी कांग्रेस का वादा था. लेकिन बाद के चरणों के दौरान राहुल ने इस मुद्दे पर एक ट्वीट तक नहीं किया. कांग्रेस नेताओं के किसी भी चुनावी भाषण में ये मुद्दा नहीं उठा.
कांग्रेस ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के कर्मचारियों-अधिकारियों को प्रमोशन में आरक्षण दिलाने का भी वादा किया था. लेकिन अपने मतदाताओं को वह यह वादा याद दिलाने से ही बचती रही. कांग्रेस शासित राज्य सरकारें इस दिशा में आगे बढ़ जातीं तो कांग्रेस के वादे में दम आ जाता.
कांग्रेस केंद्र में 24 लाख नौकरियां खाली होने की बात कर रही थी, लेकिन राहुल गांधी ने यह नहीं बताया कि उन्होंने कभी एक साल के अंदर एससी, एसटी और ओबीसी का सारा बैकलॉग भरने का भी वादा किया था. कांग्रेस का 24 लाख नौकरियों वाला विज्ञापन तो सोशल मीडिया पर दिख जाता था, लेकिन बैकलॉग भरने की जिक्र न विज्ञापनों में रहा, न भाषणों में.
मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने चुनाव से पहले अध्यादेश लाकर ओबीसी का आरक्षण 14 से बढ़ाकर 27 प्रतिशत किया था. जिस पर अदालत ने रोक लगा दी थी. कांग्रेस ने पहले भी ओबीसी मतदाताओं के बीच इस बात का कोई खास प्रचार नहीं किया और न ही चुनावों के दौरान किया. छत्तीसगढ़ और राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने ओबीसी आरक्षण क्यों नहीं बढ़ाया, ये बहुत बड़ा रहस्य है. छत्तीसगढ़ में भी ओबीसी आरक्षण 14 प्रतिशत ही है और सारी स्थितियां वैसी ही हैं, जैसी मध्य प्रदेश में. तमाम राज्यों के बारे में फैसला न लेने से ये संदेश गया कि कांग्रेस इस मामले में गंभीर नहीं है.
वैसे एक समय तो लगा था कि कांग्रेस ओबीसी आरक्षण बढ़ाकर 52 प्रतिशत करने पर विचार कर रही है, लेकिन घोषणा पत्र आया तो ये बात उसमें नदारद मिली. देश में ओबीसी की आबादी को देखते हुए ये वादा बहुत क्रांतिकारी साबित हो सकता था, लेकिन राहुल गांधी के योग्य सलाहकारों ने उन्हें ऐसा कुछ भी करने से मना कर दिया और कांग्रेस एक ऐतिहासिक लाभ उठाने से चूक गई.
राहुल गांधी जब वादों की लगातार बौछार कर रहे थे, तब उन्होंने महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने का भी वादा किया था, लेकिन बाद में उन्हें अपना ये वादा कभी याद नहीं आया.
चुनाव के बाद के चरणों में भाजपा नेताओं ने असंयमित भाषा के जरिए गांधी-नेहरू परिवार पर हमले करने की जो रणनीति अपनाई, कांग्रेस उनका जवाब देने में फंस गई.
खुद कांग्रेस को भी लगता था कि राजीव गांधी को लेकर जो बयान प्रधानमंत्री ने दिया था, उसका फायदा उसे होगा. खासतौर पर प्रियंका इस जाल में फंस गईं और अपने स्वर्गीय पिता के अपमान को मुद्दा बनाने लगीं. भाजपा को इससे और भी शह मिल गई और उसने राजीव गांधी के सरकारी खर्चे पर पिकनिक का मुद्दा भी उछाल दिया.
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अब अपने वादों को भूल जाना राहुल की आदत का हिस्सा था, या रणनीति या नादानी, ये फैसला उन्हें खुद करना है, लेकिन इसका नुकसान उन्हें हुआ है. अब ये भी हो सकता है कि जनता भी उनके वादों पर यकीन करना बंद कर दे.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)