डॉ. बीआर आंबेडकर (14 अप्रैल 1891- 6 दिसंबर 1956) बहुआयामी विद्वान और एक दूरदर्शी संस्थान निर्माता थे. उनके जीवन के एक साथ कई पहलू हैं और उनकी असंख्य व्याख्याएं हो सकती हैं. प्रस्तुत लेख में डॉ. आंबेडकर के विचारों के संदर्भ में मीडिया के चरित्र की पड़ताल करने का प्रयास किया गया है और जानने की कोशिश की गई है कि मीडिया के प्रति उनकी दृष्टि क्या थी. इस लेख को लिखे जाने का एक संदर्भ ये भी है कि डॉ. आंबेडकर द्वारा निकाले गए पहले पत्र मूकनायक के प्रकाशन के सौ साल पूरे हो गए हैं.
डॉ. आंबेडकर के जमाने में प्रिंट यानी अखबार-पत्र-पत्रिकाएं और रेडियो ही जनसंचार के प्रमुख साधन थे. मीडिया पर ब्राह्मणों/सवर्णों का पारंपरिक प्रभुत्व तब भी था. इसलिए डॉ. आंबेडकर को प्रारंभ में ही ये समझ में आ गया कि वे जिस लड़ाई को लड़ रहे हैं, उसमें मेनस्ट्रीम मीडिया उनके लिए उपयोगी साबित नहीं होगा, बल्कि उन्हें वहां से प्रतिरोध ही झेलना पड़ेगा. यह अकारण नहीं है कि डॉ. आंबेडकर को अपने विचार जनता तक पहुंचाने के लिए कई पत्र निकालने पड़े, जिनके नाम हैं – मूकनायक (1920), बहिष्कृत भारत (1924), समता (1928), जनता (1930), आम्ही शासनकर्ती जमात बनणार (1940), प्रबुद्ध भारत (1956). उन्होंने संपादन, लेखन और सलाहकार के तौर पर काम करने के साथ इन प्रकाशनों का मार्गदर्शन भी किया.
डॉ. आंबेडकर ने अपने सामाजिक/राजनीतिक आंदोलन को मीडिया के माध्यम से भी चलाया और अछूतों के अधिकारों की आवाज़ उठाई. मूकनायक आंबेडकर द्वारा स्थापित पहली पत्रिका थी. बाल गंगाधर तिलक उन दिनों केसरी नामक समाचार-पत्र निकालते थे. केसरी में पूरी विज्ञापन शुल्क के साथ मूकनायक का विज्ञापन छापने के लिए अनुरोध किया गया, लेकिन तिलक ने इसे छापने से इंकार कर दिया.
मूकनायक के संपादक पीएन भाटकर थे, जो महार जाति के थे. उन्होंने कॉलेज तक की शिक्षा प्राप्त की थी. मूकनायक के पहले तेरह संपादकीय लेख डॉ. आंबेडकर ने लिखे. पहले लेख में आंबेडकर ने हिंदू समाज का वर्णन ऐसी बहुमंजिली इमारत के रूप में किया, जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए न तो कोई सीढ़ी है और न कोई प्रवेश द्वार. सभी को उसी मंजिल में जीना और मरना है, जिसमें वे जन्मे हैं.
मीडिया के प्रति डॉ. आंबेडकर का नजरिया
18 जनवरी 1943 को पूना के गोखले मेमोरियल हाल में महादेव गोविन्द रानाडे के 101वीं जयंती समारोह में ‘रानाडे, गाँधी और जिन्ना’ शीर्षक से दिया गया डॉ. आंबेडकर का व्याख्यान मीडिया के चरित्र के बारे में उनकी दृष्टि को समझने के लिए महत्वपूर्ण है. उन्होंने कहा, ‘मेरी निंदा कांग्रेसी समाचार पत्रों द्वारा की जाती है. मैं कांग्रेसी समाचार-पत्रों को भलीभांति जनता हूं. मैं उनकी आलोचना को कोई महत्त्व नहीं देता. उन्होंने कभी मेरे तर्कों का खंडन नहीं किया. वे तो मेरे हर कार्य की आलोचना, भर्त्सना व निंदा करना जानते हैं. वे मेरी हर बात की गलत सूचना देते हैं, उसे गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं और उसका गलत अर्थ लगाते हैं. मेरे किसी भी कार्य से कांग्रेसी-पत्र प्रसन्न नहीं होते. यदि मैं कहूं कि मेरे प्रति कांग्रेसी पत्रों का यह द्वेष व बैर-भाव अछूतों के प्रति हिंदुओं के घृणा भाव की अभिव्यक्ति ही है, तो अनुचित नहीं होगा.’
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आज जिस तरीके से मीडिया के विभिन्न साधन व्यक्ति पूजा और सरकार की आलोचना को राष्ट्र की आलोचना साबित करने में लगे हैं या राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं, उसे देखते हुए डॉ. आंबेडकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं. यदि आज डॉ. आंबेडकर होते तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके निशाने पर कौन सी विचारधारा और पार्टी तथा नेता होते.
अछूतों के प्रति मीडिया का दृष्टिकोण
अस्पृश्यों के जीवन और आन्दोलन में प्रेस की भूमिका और सीमाओं को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा, ‘भारत के बाहर के लोग विश्वास करते हैं कि कांग्रेस ही एकमात्र संस्था है, जो भारत का प्रतिनिधित्व करती है, यहां तक कि अस्पृश्यों का भी. इसका कारण यह है कि अस्पृश्यों के पास अपना कोई साधन नहीं है, जिससे वे कांग्रेस के मुकाबले अपना दावा जता सकें. अस्पृश्यों की इस कमजोरी के और भी कई कारण हैं. अस्पृश्यों के पास अपना कोई प्रेस नहीं है. कांग्रेस का प्रेस उनके लिए बंद हैं. उसने अस्पृश्यों का रत्ती भर भी प्रचार न करने की कसम खा रखी है. अस्पृश्य अपना प्रेस स्थापित नहीं कर सकते. यह स्पष्ट है कि कोई भी समाचारपत्र बिना विज्ञापन राशि के नहीं चल सकता. विज्ञापन राशि केवल व्यावसायिक विज्ञापनों से आती है. चाहे छोटे व्यवसायी हो या बड़े, वे सभी कांग्रेस से जुड़े हैं और गैर-कांग्रेसी संस्था का पक्ष नहीं ले सकते. भारत के एसोसिएटेड प्रेस का स्टाफ, जो भारत की समाचार एजेंसी है, सम्पूर्ण रूप से मद्रासी ब्राह्मणों से भरी पड़ी है. वास्तव में भारत का सम्पूर्ण प्रेस उन्हीं की मुट्ठी में है और वे पूर्णतया कांग्रेस के पिट्ठू हैं, जो कांग्रेस के विरुद्ध किसी समाचार को नहीं छाप सकते.’
इस सन्दर्भ में मीडिया स्टडीज ग्रुप द्वारा मीडिया में दलित/आदिवासी/पिछड़ों की भागीदारी के सन्दर्भ में मीडियाकर्मियों की सामजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन प्रासंगिक है. 2006 में किया गया ये शोध बताता है कि 21वीं सदी में भी भारत की मीडिया का सामाजिक चरित्र बदला नहीं है और जाति वर्चस्व यहां अब भी काम कर रहा है.
लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका और आंबेडकर
आल इंडिया शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ने जनवरी 1945 में अपने साप्ताहिक मुख-पत्र ‘पीपल्स हेराल्ड’ की शुरुआत की. इस पत्र का मुख्य उद्देश्य अस्पृश्यों की आकांक्षाओं, मांगों, शिकायतों को स्वर देना था. इस पत्र के उद्घाटनकर्ता की हैसियत से डॉ. आंबेडकर ने कहा, ‘आधुनिक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में अच्छी सरकार के लिए समाचारपत्र मूल आधार है. इसलिए भारत के अनुसूचित जाति के अतुलनीय दुर्भाग्य और दुर्दशा को ख़त्म करने में तब तक सफलता नहीं मिल सकती, जब तक 8 करोड़ अस्पृश्यों को राजनीतिक रूप से शिक्षित न कर लें. यदि विभिन्न विधानसभाओं के विधायकों के व्यवहार की रिपोर्टिंग करते हुए समाचार पत्र लोगों से कहें कि विधायकों से पूछो ऐसा क्यों है, कैसे हुआ, तब मेरे दिमाग में कोई दुविधा नहीं है कि विधायकों के व्यवहार में बड़ी तबदीली आ सकती है. इस तरह वर्तमान दुर्व्यवस्था, जिसके भोगी हमारे समुदाय के लोग हैं, पर रोक लग सकती है. इसलिए मैं इस समाचार पत्र को एक वैसे साधन के रूप में देख रहा हूं, जो वैसे लोगों का शुद्धिकरण कर सकता है जो अपने राजनीतिक जीवन में गलत दिशा में गए हैं.’
1937 के विधानसभा चुनाव में मराठी समाचार पत्र की भूमिका का हवाला देते हुए आंबेडकर ने सुझाव दिया, ‘समाचार पत्र न केवल मतदाताओं को प्रशिक्षित करते हैं बल्कि यह भी सुनिश्चित करते हैं कि जिसे उन्होंने अपने मत से चुना है, वे उनके साथ खड़े हैं, अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभा रहे हैं और किसी के साथ कोई दुर्व्यवहार नहीं कर रहे.’ उन्होंने आगे कहा, ‘मैं सोलह वर्षों तक बॉम्बे में एक साप्ताहिक का संपादन किया है. इस पत्र ने जो व्यापक प्रभाव उत्पन्न किया, उसका प्रमाण बॉम्बे के विधानसभा चुनाव में दिखा, जिसमें मैंने सभी समुदायों का वोट प्राप्त कर कांग्रेस के अपने प्रतिस्पर्धी को हराया.’
ज़ाहिर है आंबेडकर ने लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर और जनता के राजनीतिक प्रशिक्षण में समाचार पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार किया.
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आंबेडकर के ज़माने से लेकर अब तक मीडिया की दुनिया में बहुत कुछ बदल चुका है. लेकिन, बहुत कुछ यथावत भी है. दलितों के लिए मेनस्ट्रीम मीडिया के दरवाजे अमूमन आज भी बंद हैं. उत्तर-आंबेडकर काल में कांशीराम ने उनके आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए कई पत्र निकाले. आज व्यक्तिगत प्रयास से कुछ व्यक्ति और संगठन छिटपुट पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित कर रहे हैं. व्यक्तिगत प्रयास से अनगिनत सोशल मीडिया पेज, ट्विटर, फ़ेसबुक ग्रुप, यू-ट्यूब चैनल, वीडियो ब्लॉग और ब्लॉग चलाए रहे हैं. लेकिन ऐसा क्यों है कि सैकड़ों दलित करोड़पति, डिक्की और बामसेफ जैसे संगठन, सैकड़ों विधायक/संसद/मंत्री, दर्ज़नों ताकतवर राष्ट्रीय नेताओं, हज़ारों नौकरशाहों के होने के बावजूद आज मुख्यधारा में ऐसा कोई अंग्रेज़ी/हिंदी अख़बार/टीवी चैनल नहीं है, जो दलितों और पिछड़ी जातियों से जुड़े मुद्दों पर संवाद कर सके, उनके विश्व दृष्टि की नुमाइंदगी का दावा कर सके?
यह दलित नेतृत्व और नए उभरे मध्यम-वर्ग की बौद्धिक सीमाओं सीमाओं को भी दर्शाता है.
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उन्होंने काशी प्रसाद जायसवाल पर शोध किया है.)
हमे यह बहुत अच्छा लगा और बहुत कुछ सीख मिला ये पत्रिका द्वारा आशा करते हैं इसी तरह नए जानकारी जो परम पूज्य आदरणीय बाबा साहब डॉ भीम राव अंबेडकर से संबंधित है जो आज तक बातो को छुपाया गया और गुमराह करके दलितों पर अत्याचार किया गया,, जय भीम
Dalip Nim, Non-Brahman Ambedkarite.
Attention is drawn to the last para of this informative article. The problems faced are not hidden, as expressed. Issue is to suggest strategy and remedial measures for ensuring a collective efforts for overcoming the challenges.
दलित समाज की सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि इस समाज का व्यक्ति जब किन्ही कारणों से धन व यश प्राप्त कर लेता है तो वही व्यक्ति अपने समाज से दूरी बना लेता हैं।और अपनी वास्तविक पहचान को छुपाकर कर रखना प्रारंभ कर देता है।
जबकि उसे अपने धन व संसाधनों का उपयोग अधिक से अधिक अपने समाज के उद्धार के लिये करना चाहिए।और अपने संघर्षों को समाज की नई पीढ़ी के सामने पूरे गौरव से करना चाहिए।।।