कर्नाटक की सरकार जब भी गिरती है, ये तय बात है, तो मातम करने वाले सिर्फ 33 लोग ही होंगे. मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी और उनके 32 मंत्रिमंडलीय सहयोगी. राज्य के बाकी लोग राहत की सांस लेंगे. वे कभी भी नियंत्रण में नहीं दिखी सरकार से ऊब चुके हैं. इन 13 महीनों में कुमारस्वामी ने बस सरकार बचाने और गौड़ा वंश को बढ़ावा देने का काम ही किया है.
हालांकि, कुमारस्वामी के पास भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को दोष देने की वजहें हैं, जिसने कांग्रेस-जद(एस) सरकार को गिराने के निरंतर प्रयासों से कभी गुरेज नहीं रहा, तथा जिसने साम, दाम, दंड और भेद, सबका ही इस्तेमाल किया है. असल में राजनीति सत्ता का खेल है और सार्वजनिक नैतिकता हारे हुओं की जिम्मेदारी है. आपको शायद 1993 की हिट फिल्म ‘क्लिफहैंगर’ के खलनायक एरिक क्वालेन का संवाद याद हो: ‘कुछ लोगों को मारो तो आप हत्यारा कहलाते हैं. लाखों को मारो तो आप विजेता हैं.’ भाजपा जब भी विपक्ष शासित किसी सरकार को अस्थिर करती है तो ऐसी ही प्रतिक्रिया देखने को मिलती है.
कांग्रेस भाजपा की अस्थिरकारी राजनीति की शिकायत तो करती है, पर इसका मुकाबला करने की कूवत या दृढ़ता नहीं दिखाती है. ये सब इतने दिनों से जारी है कि लोग पराजितों से सहानुभूति रखना छोड़ चुके हैं. अगर कांग्रेस में कुछ समझदार लोग हैं, तो उन्हें कुमारस्वामी सरकार की, मई 2018 में गठन के बाद से ही अपरिहार्य दिख रही, संभावित विदाई पर खुशी ही होगी. इसलिए नहीं कि मुख्यमंत्री खुलेआम आंसू बहाते हैं और सरकार के ठीक से काम नहीं करने का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ते रहे हैं.
उन्हें इसलिए खुशी मनानी चाहिए कि कर्नाटक में सरकार का पतन कांग्रेस को यहां और कई अन्य राज्यों में खुद को संभालने का मौका प्रदान करता है.
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कर्नाटक से ही शुरू करें, तो एक बुरी तरह अलोकप्रिय सरकार को बनाए रखने की बदनामी झेलने, और अपने कुछ नेताओं को मंत्री बनाकर खुश रखने के अलावा इस सरकार से कांग्रेस को कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है. उलटे जनता दल सेक्यूलर (जेडीएस) से जुड़ाव के कारण कांग्रेस अपना आधार ही कम कर रही है. मैसूर में मेरे एक दोस्त के कांग्रेस समर्थक रहे माता-पिता ने 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा उम्मीदवार को वोट दिया. उनकी बताई वजह: ‘गौड़ा वंश (एचडी देवेगौड़ा और परिवार) की बेशर्म कुनबा परस्त राजनीति को तो देखो! बहुत हुई वंशवाद की राजनीति.’ मैसूर में गठबंधन से एक कांग्रेसी उम्मीदवार था, जिसे जेडीएस की वंशवादी राजनीति के कारण कांग्रेस के परंपरागत वोटरों का समर्थन खोना पड़ा!
वोक्कालिगा वर्चस्व वाले मैसूर में भाजपा उम्मीदवार प्रताप सिम्हा ने कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन के उम्मीदवार को 1.38 लाख से अधिक मतों से हराया. जबकि 2014 में जब कांग्रेस और जेडीएस अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे, तो कांग्रेस उम्मीदवार पर सिम्हा की जीत का अंतर करीब 31,000 मतों का ही रहा था. 2014 में कांग्रेस और जेडीएस उम्मीदवारों को मिले कुल मत सिम्हा के मुकाबले 1.07 लाख अधिक थे.
इसे इस तरह देखें कि अगर जद (एस) से गठबंधन नहीं रहता तो दक्षिणी कर्नाटक में, जहां भाजपा धीरे-धीरे अपने प्रभाव का विस्तार कर रही है, वोक्कालिगा, मुस्लिम और कुछेक अन्य समुदायों के वोटबैंक के लिए कांग्रेस का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं होता. एक कमजोर जेडीएस हमेशा कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित होता है. यही कारण है कि कांग्रेस के समझदार नेताओं को कुमारस्वामी सरकार के अपरिहार्य पतन का जश्न मनाना चाहिए. भाजपा को किसी भी कीमत पर सत्ता में आने से रोकने के अपने अविवेकपूर्ण अभियान में कांग्रेस को फिलवक्त कुछ मंत्री पद गंवाने पड़ सकते हैं और नाकामी हाथ लग सकती है, पर दीर्घावधि में इसे अधिक फायदा एक क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी के ठिकाने लगने से ही मिलेगा.
वास्तव में, नए कांग्रेस अध्यक्ष के लिए ये मॉडल अन्य राज्यों, खास कर बिहार, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, हरियाणा और दिल्ली के लिए आदर्श प्रारूप होना चाहिए.
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इस विडंबना की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि अस्तित्व बचाने के लिए कांग्रेस कैसे बिहार में लालू परिवार और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के कुनबे से चिपकी हुई है – जिनकी तीन दशक पहले हिंदी पट्टी में इसके खात्मे में अहम भूमिका रही थी. इन राज्यों में कांग्रेस के पुनरोदय की एक ही सूरत है – बिहार में राष्ट्रीय जनता दल तथा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का और साथ ही बहुजन समाज पार्टी का खात्मा. इसी तरह, यदि संभव हो तो इसे आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी के विनाश में हाथ बंटाना चाहिए क्योंकि जगन मोहन रेड्डी का प्रभाव अभी कुछ समय तक रहने वाला है.
संभव है ये बात अधिक महत्वाकांक्षी लगे, पर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के पुनरुत्थान की थोड़ी सी भी उम्मीद के लिए, पहले इसे ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस के खात्मे की आशा करनी चाहिए – जिसे अंजाम देने की स्थिति में सिर्फ भाजपा है – और उसके बाद राज्य में विपक्ष की जगह पर कब्जे का प्रयास करना चाहिए. यह आकलन इस तथ्य पर आधारित है कि बुरी तरह टूटा और बिखरा वाम मोर्चा अब दोबारा संभलने की स्थिति में नहीं है. यह कोई पंचवर्षीय परियोजना नहीं है. यह एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है. बहुपक्षीय राजनीति वाले राज्यों में कांग्रेस के लिए शायद यही एकमात्र विकल्प है, भले ही द्विध्रुवीय राजनीति वाले राज्यों और केंद्र में वह भाजपा से जूझ रही हो.
जिन राज्यों में भाजपा क्षेत्रीय दलों के लिए खतरा बन चुकी है, कांग्रेस के लिए वहां क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाना मूर्खता होगी. इन क्षेत्रीय दलों ने अनिवार्यत: कांग्रेस के ही राजनीतिक और वैचारिक धरातल पर कब्जा किया था. चूंकि कांग्रेस उनसे लड़ने और अपनी खोई ज़मीन दोबारा हासिल करने लायक मज़बूत नहीं है, ऐसे में उसके लिए बेहतर विकल्प है भाजपा को क्षेत्रीय दलों को नष्ट करने का मिशन पूरा करने देना. तब तक कांग्रेस को, मुख्य विपक्ष की हैसियत हासिल करने की कोशिशों में जुट जाना चाहिए. तीसरी पार्टियों के परिदृश्य से बाहर होते ही या उनके अपेक्षाकृत अप्रासंगिक हो जाने पर, कांग्रेस राज्यों में और राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा से आमने-सामने की लड़ाई के लिए बेहतर स्थिति में होगी.
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