scorecardresearch
Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टक्या आप जानते हैं कि पोखरण 1 के समय बुद्ध क्यों मुस्कुराए थे, यदि नहीं तो यूक्रेन को देखिए

क्या आप जानते हैं कि पोखरण 1 के समय बुद्ध क्यों मुस्कुराए थे, यदि नहीं तो यूक्रेन को देखिए

यूक्रेन ने 1994 के बुडापेस्ट समझौते के बाद अपने परमाणु हथियारों का भंडार छोड़ न दिया होता तो क्या आज जेलेंस्की के यूक्रेन को रूस के पुतिन इतनी आसानी से दबा पाते?  

Text Size:

पहले, रणनीतिक अध्ययन के लिए एक पहेली- पोखरण में जब भारत ने पहला सफल परमाणु परीक्षण किया था तब इसकी सूचना इंदिरा गांधी को देने के लिए ‘बुद्ध मुस्कुरा रहे हैं ’ जैसे कूट मुहावरे का प्रयोग क्यों किया गया था? आप इस पहेली का हल सोचिए, तब तक हम यूक्रेन चलते हैं.

जब आप यह लेख पढ़ रहे होंगे तब तक यूक्रेन ने हथियार डाल दिए होंगे. पिछले कुछ दिनों से यह सवाल अक्सर उठाया जा रहा है और आगामी कई दशकों तक उसकी गूंज सुनाई देती रहेगी कि यूक्रेन ने अगर 1994 के बुडापेस्ट समझौते के बाद अपने परमाणु हथियारों का भंडार छोड़ न दिया होता तो क्या आज जेलेंस्की के यूक्रेन को रूस के पुतिन इतनी आसानी से दबा पाते?

यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार इस शर्त पर सौंपे थे कि अमेरिका, यूरोप और रूस ने उसकी सुरक्षा की गारंटी ली थी. इनमें से एक ने तो उस पर हमला ही कर दिया है. दूसरा, यूरोप अपना मुंह छुपाने की जगह ढूंढ रहा है और सस्ते तेल से वंचित होने की आशंका से परेशान है और तीसरा, अमेरिका मासूम प्यार जताने के सिवा कुछ नहीं कर रहा.

यूक्रेन के पास परमाणु हथियार होते तो क्या उसकी यह दुर्गति की जा सकती थी?

अब हम यह सवाल खुद से कर सकते हैं. क्या भारत इतना भविष्यदर्शी या अविवेकी था कि उसने न केवल परमाणु हथियार बनाए बल्कि खुद को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र भी घोषित किया? इन दशकों में चार विचारधाराओं के बीच इस सवाल पर जोरदार बहस होती रही है. इनमें से एक, होमी भाभा के दौर के उग्र विचार वालों का मानना था कि भारत को चीन से भी पहले 1960 के दशक में ही परमाणु हथियार बना लेने चाहिए थे. पूर्व विदेश सचिव महाराज कृष्ण रसगोत्रा तो कई बातचीत और सेमिनार में साफ कह चुके थे कि अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी ने भारत को एक परमाणु संयंत्र देने और अपना संयंत्र बनाने में मदद करने की पेशकश भी की थी. लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने इनकार कर दिया था.

दूसरी धारा इसके ठीक विपरीत इस सोच वालों की है कि परमाणु हथियार बुरे, अनैतिक, अनावश्यक, मानवता के लिए अभिशाप हैं और इस्तेमाल के लायक नहीं हैं. यह धारा इधर कमजोर पड़ी है, खासकर 1998 में पोखरण-2 परीक्षण के बाद. इसका कुछ हिस्सा एक नए विचार की ओर मुड़ गया है कि अब जबकि परमाणवीकरण हो ही गया है तो इसे न्यूनतम रक्षात्मक उपाय के रूप में सीमित करें और ‘व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि’ (सीटीबीटी) जैसी सभी वैश्विक व्यवस्थाओं में शामिल होकर इनमें सक्रिय भूमिका निभाएं.

तीसरी धारा का मानना है कि परमाणु हथियारों के मामले में अस्पष्टता रखना भारत के लिए ज्यादा अच्छा होता. आखिर, इंदिरा गांधी ने 1974 में पोखरण-1 परीक्षण करके दुनिया को हमारी क्षमता से अवगत करा ही दिया था इसलिए 1998 में किए गए परीक्षण अपनी छाती ठोकने की अनावश्यक राजनीतिक कवायद थी, जिसने पाकिस्तान को भी परीक्षण करने का बहाना दे दिया. नतीजतन, दक्षिण एशिया में दो स्वघोषित परमाणु शक्ति संपन्न देश हो गए.

चौथी धारा उस समूह की है, जो जीत गई. उसका मानना है कि 1974 में अपनी क्षमता का प्रदर्शन दिखाना ही काफी नहीं था. यह अपने पैर पर दोबारा कुल्हाड़ी मारना था. यह करके भारत ने अपने ऊपर प्रतिबंधों को न्योता भी दिया और खुद को परमाणु शक्ति संपन्न देश भी घोषित नहीं कर सका. उसे शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट (पीएनई) बताना महज एक ढोंग था, जिससे किसी पर कोई असर नहीं पड़ा. न ही भारत में तब जनमत अनुकूल हुआ जब इंदिरा गांधी को इसकी सख्त जरूरत थी. हथियार बनाना, अपनी छाती ठोकना और पाकिस्तान को चुनौती देना बहुत जरूरी था.

पहली धारा को संकटग्रस्त 1960 के दशक में ज्यादा तवज्जो नहीं मिली. दूसरी धारा 1998 के बाद अप्रासंगिक हो गई. तीसरी और चौथी धारा पर विचार-विमर्श करने की जरूरत है, खासकर इसलिए कि यूक्रेन संकट हमारे सामने आ खड़ा हुआ है. ऐसे सवाल तब भी उठे थे जब अमेरिका ने इराक पर दो-दो बार हमला किया, दूसरी बार इस बहाने से कि उसके पास परमाणु बम हैं. अगर इराक के पास सचमुच में जनसंहार करने वाले हथियार (डब्ल्यूएमडी) होते तो क्या बुश सीनियर या जूनियर इस पर हमला करने का जोखिम उठाते?

वैसे भी, उसके पास उन हथियारों से वाशिंगटन तक वार करने के साधन नहीं थे. लेकिन हमले के जवाब में मध्य-पूर्व में अमेरिका के किसी मित्र देश के खिलाफ परमाणु कार्रवाई की धमकी ही काम कर जाती. यूक्रेन आज डब्ल्यूएमडी-संप्रभुता समीकरण का मजबूत उदाहरण बन गया है. यह गारंटी की छाया में निश्चिंत बैठे कई देशों को आज परेशान कर रहा है. इसमें शक नहीं कि जिन देशों के पास परमाणु हथियार हैं या जो इन्हें लगभग हासिल करने वाले हैं- उत्तरी कोरिया, इजरायल, ईरान या और कोई देश— वे इन्हें कभी छोड़ेंगे नहीं. वे यूक्रेन को याद करेंगे.


यह भी पढ़ें: छोटे शहरों के युवा अब युद्ध क्षेत्र में फंसे, डॉक्टर बनने के लिए यूक्रेन को क्यों चुनते हैं भारतीय


भारत को अपने परमाणु हथियार दुनिया के सामने जाहिर करने से लाभ हुआ या नुकसान? आलोचना में यह कहा जाता है कि इसने पाकिस्तान को औपचारिक तौर पर बराबरी करने का मौका दिया. लेकिन इसका जवाब यह है कि किसी को यह शक नहीं था कि पाकिस्तान पहले से परमाणु हथियारों से लैस है. अमेरिका ने उसे ‘परमाणु हथियार के मामले में निर्दोष’ होने का अंतिम प्रमाणपत्र 1989 में दिया और उसके बाद इसे दोहराया नहीं.

1990-91 में जब भारत-पाकिस्तान की सेना आमने-सामने खड़ी हो गई थी तब पाकिस्तान ने भारत को परमाणु हथियार के बूते ब्लैकमेल किया था. इस विषय पर किताबें भी लिखी गई हैं (मसलन बॉब विंडर्म और विलियम बरोज़ की ‘क्रिटिकल मास : द डेंजरस रेस फॉर सुपर वेपन्स इन अ फ्रैग्मेंटेड वर्ल्ड ’), सीआईए के तत्कालीन डिप्टी चीफ रॉबर्ट गेट्स ने इस पर अपनी राय दी, खोजी पत्रकार सेमोर हर्श ने इस पर विस्तार से लिखा. मैंने भी अपने कई लेखों में इसकी व्याख्या की है.
लेकिन पाकिस्तानी खतरा, जिसे रॉबर्ट गेट्स भी सुलह कराने के अपने दौरे में इस्लामाबाद से भारत ले आए थे, वह था कि वह युद्ध के शुरू में ही परमाणु हथियार का प्रयोग कर देगा. वी.पी. सिंह सरकार को हकीकत का एहसास हो गया कि भारत के पास जवाबी कार्रवाई करने के लिए तुरंत दागा जाने वाला परमाणु अस्त्र नहीं है. इतने दशकों में विश्वसनीय वेपन और डिलीवरी सिस्टम नहीं तैयार की गई थी.

वह संकट तो गुजर गया लेकिन उसने हमारे पूरे राजनीतिक हलके का, चाहे उसमें कितने भी विभाजन क्यों न रहे हों, यह संदेह दूर कर दिया कि भारत को वे हथियार तुरंत चाहिए.

भारत के रणनीतिक विकास में 18 मार्च 1989 का दिन बेहद महत्वपूर्ण था. खुफिया रिपोर्टों से यह पुष्टि हो रही थी कि पाकिस्तान इस स्थिति में पहुंच चुका है कि वह जब चाहे तब बम गिरा सकता है. उस दिन भारतीय वायु सेना दिल्ली के करीब तिलपट में अपने फायर पावर का रस्मी प्रदर्शन कर रही थी जिसमें 129 विमान शामिल थे. इसी दौरान राजीव गांधी आला अधिकारी नरेश चंद्र को एक तंबू में ले गए. वे इतनी गोपनीयता बरत रहे थे कि उन्होंने अपने मंत्री राजेश पायलट को भी साथ आने से रोक दिया. वहां राजीव ने नरेश चंद्र से अपनी चिंता साझा की और उन्हें मुख्यतः वैज्ञानिकों की एक आला टीम का नेतृत्व करने का आग्रह किया, ताकि भारत को पूर्ण परमाणु हथियारों से लैस किया जा सके. मैंने इस बारे में 2006 में विस्तार से लेख लिखे थे.

इस टीम में शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक आर. चिदंबरम, पी.के. आयंगर, अनिल काकोदकर, के. ‘सैंटी’ संथानम, मिसाइल विशेषज्ञ ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और डीआरडीओ के तत्कालीन अध्यक्ष वी.एस. अरुणाचलम शामिल थे. उन सबको योजना आयोग के तहत ‘विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी’ के लिए निर्धारित कोष से गुप्त पैसे दिए जाने की व्यवस्था की गई. काफी काम गुप्त रूप से किए गए. उदाहरण के लिए, संथानम को ‘रॉ’ में एक ऊंचे पद पर गुप्त रूप से नियुक्त किया गया. काकोदकर ने बाद में मुझे एनडीटीवी के ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में बताया था कि उन्हें छद्म नामों से छद्म पासपोर्टों पर विदेश यात्राएं भी करनी पड़ी थीं.

इस काम को एक दशक तक आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सात प्रधानमंत्रियों ने राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद बखूबी निभाई. 1998 में पोखरण-2 परीक्षण हुआ, जिसके बाद पाकिस्तान ने जवाब में चगाई में अपना परीक्षण किया. इसके दो दशक बाद आज ये दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश कहां खड़े हैं? भारत को लगभग एक वैध परमाणु शक्ति संपन्न देश के रूप में कबूल कर लिया गया है, वह अधिकतर बहुद्देशीय व्यवस्थाओं में शामिल है, तमाम प्रतिबंधों से मुक्त है और अमेरिका का रणनीतिक सहयोगी है. और पाकिस्तान? उस समय खुलासा करना कोई बुरी बात नहीं थी.

अंत में, यह सवाल कि पोखरण-1 के लिए ‘बुद्ध मुस्कुरा रहे हैं’ मुहावरे का प्रयोग क्यों किया गया? ऐसा लगता है कि बुद्ध के काल में प्राचीन मगध साम्राज्य ने अपने पड़ोसी वैशाली पर विजय के लिए आक्रमण किया था. मगध ने आम साम्राज्य की तरह अपनी विशाल सेना तैयार की थी और आक्रमण के लिए अस्त्र-शस्त्र तैयार किए थे, जबकि एक तरह के अराजक लोकतांत्रिक देश वैशाली के लोग इसी बहस में उलझे रहे कि लड़ें या न लड़ें, लड़ें तो कैसे और किससे लड़ें.

जाहिर है, मगध ने सैन्य रूप से कमजोर वैशाली को तबाह कर दिया. यह खबर जब बुद्ध को दी गई, तब बताया जाता है कि वे नाराज हुए. मतलब यह कि शांति की खातिर साम्राज्य को युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार रहना चाहिए वरना उसका वैशाली वाला हश्र हो सकता है. 1964 के बाद से भारत मगध रूपी चीन के लिए वैशाली जैसा था. अब आप समझ गए होंगे कि बुद्ध अब क्यों मुस्कराएंगे. या वे यूक्रेन का जो हश्र हुआ उस पर नाराज क्यों होंगे.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ओमीक्रॉन के बाद सुधरती अर्थव्यवस्था को यूक्रेन संकट के कारण फिर लग सकता है झटका


 

share & View comments