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Sunday, 24 November, 2024
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क्यों मायावती के प्रधानमंत्री बनने की संभावना सबसे कम है

‘तीसरे मोर्चे’ के प्रधानमंत्री के चयन के तरीके पर गौर करने से स्पष्ट हो जाता है कि क्यों मायावती के चुने जाने की कोई संभावना नहीं है. साथ ही, मायावती को प्रधानमंत्री बनाने की चर्चा से सिर्फ भाजपा को ही फायदा होगा.

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ये कोई पहली बार नहीं है कि लोकसभा चुनाव पास आते ही लोग ‘तीसरे मोर्चे’ के संभावित प्रधानमंत्री के रूप में मायावती की चर्चा कर रहे हों. खुद उन्होंने इस पद की अपनी आकांक्षा को छुपाने की कभी कोशिश नहीं की है.

2014 के चुनाव में खाता भी नहीं खोल पाई उनकी पार्टी, बसपा, 2019 में प्रधानमंत्री पद की उम्मीद पाल रही है. इससे भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती ज़ाहिर होती है, पर बस इतना भर ही.

हर कोई प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश रखता है. इस बार के चुनावी मौसम में खुलकर ऐसा संकेत करने वालों में ममता बनर्जी, शरद पवार, केसीआर राव, नितिन गडकरी, नीतीश कुमार और मायावती शामिल हैं. यदि आप दबे स्वरों में हो रही चर्चा पर भी गौर करें तो इस सूची में चंद्रबाबू नायडू, पी चिदंबरम और रघुराम राजन को भी शामिल करना पड़ेगा. और, थोड़ी दूर की कौड़ी लाएं तो एचडी देवेगौड़ा और मनमोहन सिंह के एक और कार्यकाल की संभावना को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता!


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लालू यादव ने एक बार संसद में मज़ाक किया था कि कैसे हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है. उन्होंने आकांक्षियों में अपना भी नाम गिनाते हुए कहा था कि उन्हें कोई जल्दबाज़ी नहीं है.

तीसरे मोर्चे की सरकार से मतलब, कांग्रेस या भाजपा समर्थित, क्षेत्रीय नेताओं के समूह से है. इस तरह के परिदृश्य में, मोर्चे के सभी संभावित घटक साथ बैठकर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर आम सहमति बनाते हैं.

यह कोई आसान काम नहीं है, यदि इस बात पर गौर किया जाए कि उनमें से कितनों की प्रधानमंत्री बनने की हसरत है.

सबसे कमज़ोर कड़ी

समस्या समाधान का एक उपाय है यह देखना, कि सर्वाधिक संख्या में सीटें कौन लेकर आया है. पर यदि यही मानदंड रहा तो फिर भाजपा या कांग्रेस के पास प्रधानमंत्री की कुर्सी क्यों नहीं रहे? साथ ही, वैसी स्थिति में क्या होगा जब दो दलों को बराबर संख्या में सीटें मिलती हैं?

यदि ममता बनर्जी के पास 30 सांसद हैं और वह प्रधानमंत्री का पद मांगती हैं, तो ऐसे में कांग्रेस डीएमके को आगे कर सकती है जिसकी सीटों की संख्या भी शायद 30 के आसपास हैं. पर सपा और बसपा के पास साथ मिलाकर शायद 50 सांसद हैं, और वे ममता बनर्जी के नाम पर वीटो कर सकती हैं.


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इसी प्रकार, तमाम मज़बूत उम्मीदवार एक-दूसरे के दावे को निरस्त करते हैं.

पर मायावती की संभावना नगण्य होने के पीछे एक बड़ा कारण है. दस से बीस दलों के एक समूह में स्वीकार्य होने के लिए तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री की शख्सियत ऐसी होनी चाहिए जो शातिर न हो. गठजोड़ सरकार के हर घटक दल को प्रधानमंत्री को घेरने में सक्षम होना चाहिए, ना कि प्रभावहीन और इस्तेमाल किए जाने का अहसास लिए होना. इसी तरह, किसी को भी ऐसा प्रधानमंत्री स्वीकार्य नहीं होगा जो कि अपने पद का उपयोग अपनी पार्टी का प्रभाव बढ़ाने में करता हो.

इसीलिए तो इंदर कुमार गुजराल और एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बन सके. उनसे किसी को कोई खतरा नहीं दिखता था. हालांकि वे लंबे समय तक पद पर नहीं रहे, पर इसकी कोई संभावना भी नहीं थी.

इन्हीं कारणों से, तीसरे मोर्चे की चर्चाओं में मायावती का नाम सबसे आखिरी विकल्प के तौर पर सामने आएगा. वह एक प्रभावशाली महिला हैं जिन्होंने बीते वर्षों में ‘आयरन लेडी’ की छवि बनाई है. कैसे गठजोड़ का कोई घटक ऐसी प्रधानमंत्री से अपने काम करवा पाएगा? यदि मायावती के नेतृत्व वाली सरकार को कांग्रेस या भाजपा समर्थन देती है, तो उनके लिए अचानक समर्थन वापसी कैसे कर संभव होगा? क्योंकि, मायावती अपने आखिरी भाषण में पूरी दुनिया को बता देंगी कि कैसे इन जातिवादी दलों को एक दलित की बेटी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना गंवारा नहीं हुआ.

एक और बात है, मायावती की बहुजन समाज पार्टी के पूरे देश में चुनाव लड़ने को लेकर. उत्तर प्रदेश के बाहर उनकी पार्टी की संभावनाएं 2009 में अच्छी थीं क्योंकि 2007 में पार्टी ने 17 वर्षों में पहली बार उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया था.

यदि मायावती भारत की पहली दलित प्रधानमंत्री बनती हैं, तो स्वाभाविक है वह इस अवसर का इस्तेमाल पूरे देश में अपनी पार्टी का विस्तार करने में, हर दलित मतदाता को लुभाने में और ये सुनिश्चित करने में करना चाहेंगी कि अन्य दल बसपा के साथ गठजोड़ करें या त्रिशंकु विधानसभा के लिए तैयार रहें. कांग्रेस और भाजपा की तो बात ही छोड़िए, तीसरे मोर्चे का कौन सा घटक भला दलित वोटों पर अपना दावा छोड़ना चाहेगा. बाकी दल उत्तर प्रदेश के बाहर अन्य राज्यों में बसपा की अहम भूमिका क्यों कर देखना चाहेंगे?

‘मायाफोबिया’

मायावती जब 2007 में अपने दम पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, तो उन्होंने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाया था. उनकी 2007 की चमत्कारिक जीत के मद्देनज़र बहुतों को लगा था कि उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना वास्तविक है.

दुर्भाग्य से, उच्च जाति और पिछड़े वर्ग के कई हिंदू समुदाय दलित होने और खुलकर दलित स्वाभिमान की बात करने के लिए मायावती को बुरी तरह नापसंद करते हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की उच्च जातियों के मतदाता मायावती के प्रधानमंत्री बनने की कल्पना मात्र से घबराए हुए थे. उस चुनाव प्रक्रिया के दौरान उत्तर प्रदेश में घूमते हुए मैंने लोगों को अपमानजनक भाषा में कहते पाया था कि मायावती को प्रधानमंत्री बनने नहीं दिया जा सकता. तब भाजपा कमज़ोर स्थिति में थी, और समाजवादी पार्टी बदनामियों से नहीं उबर पाई थी.

ऐसे में लोगों के पास कांग्रेस का ही विकल्प बचा था. उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों को अचानक फिर से इस बात का अहसास हुआ कि गांधी परिवार उन्हीं के समुदाय से है. उन्होंने इस बात को भुला दिया कि राज्य में 2007 के विधानसभा चुनाव के दौरान कैसे उन्हें बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी में गणेश भगवान की छवि दिखती थी.

मायावती के प्रधानमंत्री बनने का भय भी 2009 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 21 सीटों पर जीतने के पीछे एक प्रमुख कारक था. अब 2019 में संभावित प्रधानमंत्री के रूप में मायावती के नाम की चर्चा से भाजपा को ही फायदा होगा, ना सिर्फ उत्तर प्रदेश में, बल्कि पूरे देश में. दरअसल, मायावती के प्रधानमंत्री बनने का भय बहुत से मतदाताओं को भाजपा का दामन छोड़ने से रोकेगा.

मायावती को भारत का पहला दलित प्रधानमंत्री बनाने का प्रगतिशील और नेक विचार बहुत से वामपंथियों-उदारवादियों के मन में है. जैसे, प्रतिष्ठित संपादक स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर ने हाल ही में लिखा कि मायावती के प्रधानमंत्री बनने की संभावना राहुल गांधी के मुकाबले बेहतर है. वह 2009 के तरह ही गलत सिद्ध होंगे, जब उनको लगा था कि मायावती के प्रधानमंत्री बनने की सबसे अधिक संभावना है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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