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Sunday, 17 November, 2024
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एनकाउंटर में अक्षय शिंदे की हत्या पर हमें नाराज़गी क्यों नहीं हैं? हमें जवाब क्यों नहीं चाहिए

जब पुलिस को दोषी ठहराए जाने वाले किसी भी व्यक्ति को मारने देने का सिद्धांत मध्यम वर्ग के लोगों की हत्या तक विस्तृत हो जाता है, तो जनता की प्रतिक्रिया अचानक बहुत अलग हो जाती है.

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आप भारत के पुलिस बलों के बारे में जो भी कहें, लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे अपराधियों के पास लगभग अलौकिक शक्तियां हैं, जो उन्हें मुश्किलों से जूझने पर मजबूर कर देती हैं. यहां तक कि लेक्स लूथर और पेंगुइन भी वह नहीं कर सकते जो हमारे घरेलू अपराधी करते हैं; खासकर जब उन्हें पुलिस हिरासत में रखा लिया जाता है.

इसके बारे में बस पुलिस वालों से पूछिए!

अक्षय शिंदे के मामले पर विचार करें, जिसे महाराष्ट्र के ठाणे में सोमवार को पुलिस ने मार डाला. पुलिस के अनुसार, ठाणे जिले के बदलापुर में एक स्कूल में अनुबंध पर काम कर रहे सफाईकर्मी शिंदे ने दो नाबालिग लड़कियों का यौन उत्पीड़न किया था. कथित यौन उत्पीड़न के पांच दिन बाद 17 अगस्त 2024 को उसे गिरफ्तार किया गया और सोमवार को उसे हथकड़ी लगाकर पुलिस वाहन में बिठाया गया और आगे की जांच के लिए ले जाया गया.

भले ही उसे हथकड़ी लगाई गई थी और सशस्त्र पुलिसकर्मियों ने उसे घेरा हुआ था, लेकिन शिंदे वैन के अंदर अपने एक एस्कॉर्ट अधिकारी की बंदूक छीनने में कामयाब रहा. हथकड़ी लगी होने और भारी संख्या में वहां पुलिस बल के मौजूद होने के बावजूद उसका कुछ कर पाना ध्यान देने वाली बात है, ऐसे में पुलिस के पास उसे मारने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

अगर आप भारत के अपराधियों (और पुलिस बलों) के कारनामों पर नज़र डालेंगे, तो यह घटना आपको चौंकाएगी नहीं. जुलाई 2020 में गैंगस्टर विकास दूबे को उत्तर प्रदेश पुलिस की एक भारी हथियारों से लैस वैन में ले जाया जा रहा था, जब उसने कथित तौर पर अपने एक पुलिस एस्कॉर्ट से हथियार छीन लिया और गोली चला दी. स्वाभाविक रूप से, बेचारे पुलिसकर्मियों के पास उसे गोली मारने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

जैसा कि आप देख पाएंगे, भारत के आपराधिक मास्टरमाइंड भारी हथियारों से लैस पुलिस कर्मियों से हथियार छीनने में माहिर हैं, भले ही वे उनसे घिरे हों. इसके अलावा, वो हथकड़ी लगाए जाने पर भी ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं. आखिरकार, निश्चित रूप से, अपराधियों के लिए सब गड़बड़ हो जाता है क्योंकि तब पुलिस के पास उन्हें मारने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है.

यही कहानी बार-बार दोहराई जाती है — पुलिस नई कवर स्टोरी बनाने की भी ज़हमत नहीं उठाती — इससे हमें दो बातें पता चलती हैं.

पहली बात यह कि पुलिस की कार्रवाइयों पर बहुत कम जवाबदेही होती है, जब तक कि तथाकथित ‘मुठभेड़ करने वाली पुलिस’ (ऐसा कहा जाता है कि ‘मुठभेड़ करने वाली पुलिस’ ने शिंदे की हत्या की) वास्तव में बहुत अति न कर दें. इसके बजाय, कई मामलों में, इन हत्याओं के लिए पुलिस की लोगों द्वारा काफी तारीफ की जाती है और जब जांच शुरू की जाती है (जैसा कि दूबे के मामले में जांच हुई थी), तो अक्सर सभी पुलिस वालों को दोषमुक्त कर दिया जाता है.

दूसरी बात यह है कि मुठभेड़ों को जनता का काफी समर्थन है. उदाहरण के लिए यूपी में जहां मुख्यमंत्री की अक्सर कानून-व्यवस्था की स्थिति को बेहतर रखने की उनकी क्षमता के लिए प्रशंसा की जाती है, वहीं पुलिस द्वारा नियमित रूप से हत्याओं की आश्चर्यजनक रूप से बड़ी संख्या होती है और वास्तव में कोई भी इसकी बहुत परवाह नहीं करता है.

वही स्क्रिप्ट, फिर से

एक्स्ट्रा-ज्युडिशियल हत्याओं को इतना सार्वजनिक समर्थन क्यों मिलता है? वह स्क्रिप्ट जिसमें आंखों पर पट्टी और हथकड़ी लगाए अपराधी अचानक पुलिस वाहनों के अंदर सुपरपावर विकसित कर लेते हैं और पुलिस से बंदूकें छीन लेते हैं, बार-बार क्यों दोहराई जाती है?

इसके कई कारण हैं. उनमें से एक यह है कि लोग यह नहीं मानते कि अपराधियों को कभी सज़ा मिल सकती है क्योंकि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली व्यवस्थित नहीं है. किसी मामले की सुनवाई में वर्षों बीत जाते हैं. आरोपी को ज़मानत मिल जाती है और जेल से बाहर आने के बाद वो गवाहों को धमकाता है. पुलिस और जज भी रिश्वतखोरी से अछूते नहीं हैं. इसलिए दोषियों को शायद ही कभी सज़ा मिल पाती है.

इसके अलावा, ऐसे मुठभेड़ों में मारे गए कई लोग ऐसे चरित्र वाले होते हैं जिनके साथ लोगों की सहानुभूति नहीं होती. दूबे एक कट्टर गैंगस्टर था, जिसमें एक भी अच्छाई नहीं थी. बदलापुर में स्कूल के शौचालय में नाबालिगों का यौन उत्पीड़न करने वाला व्यक्ति स्पष्ट रूप से विकृत व्यक्ति था. अगर शिंदे ने वास्तव में यह जघन्य अपराध किया था, जैसा कि पुलिस ने दावा किया है, तो अधिकांश लोगों का मानना ​​था कि मुकदमे और जेल की सज़ा पर समय और सार्वजनिक धन बर्बाद करने की तुलना में उसे मार डालना ठीक था.

पिछले कई सालों से, मैं बार-बार मुठभेड़ों के बारे में लिख रहा हूं. मैं जनता के मूड को समझता हूं. समझता हूं कि पुलिस बार-बार इन हत्याओं से क्यों बच निकलती है. बेशक मुझे ऐसे मुठभेड़ों की नैतिकता से समस्या है. संविधान का सम्मान करने वाले सभी लोगों की तरह, मेरे लिए सीधे-सीधे फांसी का समर्थन करना मुश्किल है, लेकिन मैं यह समझने लगा हूं कि मेरे जैसा दृष्टिकोण रखने वाले लोग काफी कम हैं.

एनकाउंटर के बारे में आम धारणा यही है कि केवल अपराधियों को ही मारा जाता है. हम यह जानते हैं क्योंकि पुलिस हमें यही बताती है और हां, इसमें कोई संदेह नहीं है कि दूबे जैसे लोग बेहद बुरे व्यक्ति थे.

लेकिन समस्या यह है: हम कैसे जानते हैं कि ऐसे एनकाउंटर में मारे जाने वाले सभी लोग वास्तव में अपराधी थे? पुलिस हमें बताती है कि हमें उनकी बात पर विश्वास करना चाहिए, लेकिन भारत के पुलिस बलों और उनकी ईमानदारी के स्तर के बारे में हम जो जानते हैं, उसे देखते हुए क्या हमें उन्हें नागरिकों पर जीवन और मृत्यु का अधिकार देने के लिए तैयार रहना चाहिए? क्या हमें उनकी कही हर बात को बिना सोचे-समझे मान लेना चाहिए?

यह तभी मायने रखता है जब मामला मध्यम वर्ग का हो

यह महत्वपूर्ण है कि फर्ज़ी एनकाउंटर में मारे जाने वाले ज़्यादातर लोग आम तौर पर मज़दूर वर्ग, निम्न वर्ग और भारत की निचली जातियों और अल्पसंख्यकों से आते हैं.

जैसे ही पुलिस को किसी भी दोषी को मारने की अनुमति देने का सिद्धांत मध्यम वर्ग के लोगों की हत्या तक विस्तृत हो जाता है, जनता की प्रतिक्रिया अचानक बहुत अलग हो जाती है.

आपमें से कुछ लोगों को जिनकी याददाश्त तरोताज़ा है, उन्हें 1997 में बाराखंभा रोड की मुठभेड़ याद होगी. यह तब की बात है जब दिल्ली पुलिस ने मध्य दिल्ली की एक सड़क पर एक कार पर गोलियां चलाई थीं. उन्हें लगा कि कार में एक गैंगस्टर बैठा है. बाद में पता चला कि उन्हें गलत कार मिल गई थी और गाड़ी में बैठे लोग निर्दोष थे.

पहले तो पुलिस ने बेशर्मी से काम लिया; उन्होंने कहा कि उन पर गोली चलाई गई थी और उन्होंने सिर्फ आत्मरक्षा में जवाबी कार्रवाई की थी. एक पुलिसकर्मी ने तो यह भी दावा किया कि उसे कार के अंदर से गोली मारी गई थी.

आखिरकार, पुलिस के झूठ का पर्दाफाश हो गया क्योंकि पीड़ित मध्यम वर्ग के थे और उनके दोस्त, सहकर्मी और परिवार वाले जानते थे कि वे अपराधी नहीं थे. मध्यम वर्ग का आक्रोश बढ़ता गया; निर्दोष लोगों की हत्याओं के बारे में विरोध प्रदर्शन हुए और इसमें शामिल पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार किया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया और अंततः उन्हें जेल भेज दिया गया.

लेकिन मान लीजिए कि कार में मध्यम वर्ग के लोग नहीं होते? मान लीजिए कि कार की जगह कोई रिक्शा होता? मान लीजिए कि कार में मजदूर वर्ग के लोग बैठे होते? क्या तब भी हमें लोगों का उतना ही गुस्सा देखने को मिलता?

मुझे लगता है कि आपको इसका जवाब मालूम है.

बदलापुर मामले में कोई राष्ट्रीय आक्रोश नहीं है, क्योंकि जिस व्यक्ति को गोली मारी गई, वो एक सफाई कर्मचारी था, लेकिन क्या वो सच में दोषी था? शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने पुलिस के बयान को चुनौती दी है. यौन उत्पीड़न 12 अगस्त को हुआ था, लेकिन एफआईआर (अनिच्छा से) 16 अगस्त को दर्ज की गई थी. शिंदे को एक दिन बाद गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन कोई सीसीटीवी फुटेज नहीं ली गई और स्कूल अधिकारियों पर कोई मामला दर्ज नहीं किया गया या उन्हें जिम्मेदार नहीं माना गया. चतुर्वेदी का कहना है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि स्कूल बोर्ड के कुछ सदस्यों के भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से संबंध हैं. चतुर्वेदी का कहना है कि मामले की जांच के तरीके को लेकर स्थानीय विरोध बढ़ने के बाद स्कूल के पदाधिकारी गायब हो गए और सवाल उठने लगे कि क्या शिंदे वास्तव में हमलों के लिए जिम्मेदार था. तभी पुलिस ने उसे मार डाला.

मैं इस मामले के बारे में कोई निर्णय नहीं दे रहा हूं, खासकर इसलिए क्योंकि यह मामला अब राजनीतिक हो गया है, लेकिन बुनियादी सवाल बने हुए हैं: क्या हमें सभी मुठभेड़ों का आंख मूंदकर समर्थन करना चाहिए जैसा कि हम वर्तमान में करते हैं? क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि मारे गए सभी लोग बुरे लोग थे, इसलिए अगर उनकी हत्या हुई तो कौन परवाह करता है?

या हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या पुलिस को जिसे चाहे उठाकर गोली मारने की अनुमति देकर, हम सत्ता में बैठे लोगों की ओर से स्वेच्छा से हत्यारों के रूप में कार्य करना उनके लिए आसान बना रहे हैं?

ये महत्वपूर्ण सवाल है, लेकिन दो दशकों से अधिक समय से इस मुद्दे को उठाने के बाद, मैं अनिच्छा से इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हमें उत्तर नहीं चाहिए.

(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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