बॉलीवुड, कला जगत और थियेटर से जुड़ी 49 शख्सियतों ने इस सप्ताह प्रधानमंत्री मोदी के शासन में बढ़ती असहिष्णुता और मॉब लिंचिंग संबंधी आरोपों को लेकर अपनी चिंता का इज़हार किया. दिलचस्प बात ये है कि एक खुले पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले लोगों में एक भी मुस्लिम सुपरस्टार नहीं था.
बॉलीवुड एक ऐसा उद्योग है, जिसके शीर्ष पर मुस्लिम सितारों की त्रिमूर्ति का राज है- शाहरुख ख़ान, आमिर और सलमान ख़ान. इन ख़ानों की गहरी चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है.
तीनों प्यार, बहादुरी और न्याय को प्रदर्शित करती अपनी फिल्मों के ज़रिए पिछले तीन दशकों से भारतीयों के दिलो-दिमाग पर राज करते आए हैं. पर अब, बॉलीवुड की ख़ान-त्रिमूर्ति के पास कहने को कुछ नहीं है. गंगा-जमुनी तहजीब वाली राष्ट्रीय चेतना से संचालित भारतीय समाज को नफ़रत के मौजूदा माहौल में अपनी रक्षा स्वयं करने के लिए छोड़ दिया गया है. ऐसा इन ख़ानों के रहते हो रहा है, जिनके पास लोगों से अंतर आत्मा में झांकने की अपील करने की ताकत और असर है. इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण है मोहम्मद सलाह के लीवरपूल फुटबाल क्लब में शामिल होने पर लीवरपूल में इस्लामोफोबिया से जुड़े अपराधों में कमी आना.
तो फिर तीनों ख़ानों के लिए साफ ज़ाहिर स्थिति को बयां करना इतना दुष्कर क्यों है?
भारत के बारे में मेरी गलत धारणा थी
ऐसा हमेशा से नहीं था. दो ख़ानों ने पूर्व में असहिष्णुता पर बोलने की कोशिश की थी. पर उन्होंने अब चुप्पी साध ली है.
2 नवंबर 2015 को शाहरुख ख़ान ने कहा था: ‘अत्यधिक असहिष्णुता का माहौल है. इस देश में धार्मिक रूप से असहिष्णु होना, धर्मनिरपेक्ष नहीं होना, किसी देशभक्त द्वारा किया जा सकने वाला सबसे बुरा अपराध है.’
इसके करीब एक महीने बाद 16 दिसंबर को शहारुख ने ही ये बयान दिया: ‘सब कुछ बहुत अच्छा है हमारे देश में. ईश्वर भारत का भला करे, कोई प्रॉब्लम नहीं है और मेरे साथ किसी ने कोई असहिष्णुता नहीं किया है.’
भारत में घृणा अपराधों पर चिंता जताने के बाद शुरू ट्रोलिंग और दुर्व्यवहार से निपटने के लिए बॉलीवुड के ‘बादशाह’ को बस इस तरह खाल मोटी करने की ज़रूरत पड़ी.
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देश में 2014 में गाय से जुड़ी भीड़ की हिंसा के तीन मामले सामने आए थे, जिनका शिकार बने 11 लोगों में से 73 प्रतिशत मुसलमान थे. अगले साल ऐसे अपराधों की संख्या बढ़ कर 13 हो गई, जिनका 49 लोग शिकार बने और उनमें से 11 को जान गंवानी पड़ी– पीड़ितों में से 50 प्रतिशत मुसलमान थे. वर्ष 2016 कहीं अधिक क्रूर साबित हुआ, जब घृणा अपराधों के पीड़ितों की संख्या 108 तक पहुंच गई थी और उनमें से 13 मारे गए. उसके अगले साल 2017 में भीड़ की हिंसा उच्चतम स्तर पर पहुंच गई, और इसके कुल 108 शिकारों (13 मौतें) में से 60 फीसदी मुसलमान थे. इस साल अब तक, कुल 42 पीड़ितों (एक मृत) में से 71 प्रतिशत मुसलमान हैं. ये संख्याएं बस उन घटनाओं से संबद्ध हैं जिनमें कि हमले गाय के नाम पर किए गए थे.
आखिर ख़ानों की चुप्पी मुझे परेशान क्यों करती है? क्योंकि बॉलीवुड के दूसरे छोर पर अनुपम खेरों और कंगना रनौतों का बोलबाला है. ये लोग उस सरकार की प्रशस्ति में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते कि जिनके शासन में अल्पसंख्यकों के प्रति असहिष्णुता बढ़ी है. ये खुद भी विषवमन करते हैं. विश्वास ना हो तो परेश रावल, पायल रोहतगी और कोएना मित्रा के ट्वीट देखें.
Hindu, Sikh, Buddhists immigrants should NOT be removed from India as as their religion originated in #Bharat. They have #ancestralhistory. Muslim immigrants should be removed from India as their religion didn’t originate in Bharat, we have given 2 countries from Bharat 2 them. pic.twitter.com/hcE1L5X0vy
— PAYAL ROHATGI & Team- Bhagwan Ram Bhakts (@Payal_Rohatgi) April 14, 2019
New India woooaah @narendramodi @PMOIndia @rajnathsingh any action Sir ? pic.twitter.com/ZciU19TzoL
— Koena Mitra (@koenamitra) August 4, 2018
अमिताभ बच्चन जैसे दिग्गज भी राजनीति से प्रेरित बयान देने से पीछे नहीं हटते हैं. उन्होंने यूपीए 2 के शासनकाल में पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि की सही ही आलोचना की थी, पर मोदी सरकार के तहत पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोत्तरी से वे अनजान बन गए.
इन शख्सियतों में डुकाती की सवारी करने वाले गुरु लोग भी शामिल हैं. रोज़ाना वे अवैज्ञानिक सूचनाएं प्रसारित करते हैं. इनसे दक्षिणपंथी विचारकों को ही मदद मिलती है, जिनका कि वैज्ञानिक मिजाज नहीं है और जो मिथ्या धारणाओं को बढ़ावा देते रहते हैं. और लोगों को ये पसंद आता है. आप नित्यानंद या जग्गी वासुदेव को सुनें तो पता चलेगा कि मैं क्या कह रहीं हूं. लेकिन जब ये गुरु अपनी ‘प्रबोधन’ कार्यशालाओं के दौरान ‘उदारवादी कट्टरपंथी होते हैं’ जैसे बयान देते हैं, तो मामला खतरनाक हो जाता है.
छोटी-मोटी बातों पर उदारवादियों की हत्याएं हुई हैं.
मेरा राजनीति से वास्ता नहीं
शायद मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक माहौल के खिलाफ बोलना ख़ानों का काम नहीं है.
शायद मैं इस दलील को स्वीकार कर लूं. शायद उनका काम अपने वैनिटी वैन में बैठना और अपनी ज़िंदगी जीना है, अपने बाल संवारना, सिक्स-पैक बनाना, बड़े स्क्रीन पर बारंबार अपने से इतर भूमिकाएं करना (आमिर, आप नहीं)!
उन्हें राजनीतिक होने की ज़रूरत नहीं. उन्हें ऐसी बातें कहने की ज़रूरत नहीं जो शुक्रवार की उनकी कमाई को 300 करोड़ रुपये से 100 करोड़ रुपये कर दे. मैं समझ गई. जायज़ है.
पर स्वच्छता सर्वेक्षण या जलयुक्त शिवार योजना के बारे में बातें करना और एक राजनीतिक पार्टी के लिए ज़ोरशोर से प्रचार करना कब से गैर-राजनीतिक हो गया?
तो, सरकार की बातों को आगे बढ़ाना सही है क्योंकि आप बड़े उद्देश्यों के लिए ऐसा कर रहे हैं, पर बड़े उद्देश्यों के लिए समाज की बुराइयों की चर्चा करना गलत है क्योंकि आप उतने राजनीतिक नहीं हैं? ये पाखंड कोई समझाएगा मुझे.
मैंने ऐसा नहीं किया/कहा
ये ख़ान विशेष रूप से संवेदनशील हैं क्योंकि कलाकार जो हैं और आपसे इन संवेदनशील जीवों को सही रुख अपनाने के लिए परेशान करने की उम्मीद नहीं की जाती है. आपको उन्हें अपने हिसाब से काम करने देना चाहिए.
असल बात ये है कि उनमें से सभी ने सही रुख अपनाया और फिर सभी ने अपने कदम पीछे खींच लिए.
इसलिए, ये संवेदनशीलता नहीं बल्कि कायरता है.
आमिर ख़ान ने बिना लाग-लपेट के असहिष्णुता की बात की थी और ये भी कि कैसे उन्होंने और उनकी पत्नी ने देश छोड़ने पर चर्चा की थी.
उन्होंने, शाहरुख ख़ान की ही तरह, ना सिर्फ अपने बयान को वापस लिया बल्कि ये तक कह गए कि उन्होंने जो कहा था ‘वह सही बात नहीं थी.’
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जबकि सलमान ख़ान ने चिंतित होने का नाटक तक नहीं किया. उन्होंने आगे बढ़ कर अपनी पसंदीदा पार्टी भाजपा का प्रचार किया, जो कि सच कहें तो उनकी ईमानदारी को प्रदर्शित करता है. शीघ्र ही, वह हिट-एंड-रन मामले में बरी कर दिए जाते हैं, जिसमे कि उन पर फुटपाथ पर सोते लोगों पर गाड़ी चढ़ाने, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई थी, का आरोप था. उसके बाद से उन्होंने अपनी सुविधानुसार राजनीतिक चुप्पी ओढ़ ली है.
मैं नहीं देख सकता
ख़ानों के बॉलीवुड के शिखर पर मौजूदगी को कई दक्षिणपंथी भारत के धर्मनिरपेक्ष होने के सबूत के तौर पर पेश करते हैं. इसलिए, ख़ानों को ‘असहिष्णुता’ की बात करने के लिए खुद पर शर्म आनी चाहिए.
दक्षिणपंथी पारिस्थितिक तंत्र इस बात को भूल जाता है कि भारत में उनकी विचारधारा का तेज उभार महज पांच वर्ष पहले हुआ है. ख़ानों ने शीर्ष सितारे वाली हैसियत 1990 के दशक की शुरुआत में हासिल की थी. वे घृणा के सहारे आगे नहीं बढ़े थे. उनका उभार लाइसेंस राज के चंगुल से मुक्त होते और केबल टीवी की सुविधा प्राप्त करते भारत में हुआ था.
उस काल की फिल्मों ने क्रोधित नायक के घिस चुके विषय को छोड़ कर पड़ोस के अच्छे लड़के वाली कहानी को अपनाया था. और तीनों ख़ान इसमें बिल्कुल फिट बैठते थे.
पर आज के भारत में मुसलमानों के बनाए कांवड़ नहीं खरीदने का खुला आह्वान किया जाता है. उसी तरह, जैसे समाजवादी पार्टी के एक विधायक ने भाजपा (यानि हिंदू) की दुकानों से कुछ भी नहीं खरीदने का आह्वान किया है और संभवत: ख़ानों को ये नया मेमो नहीं मिला है.
‘नए भारत’ में अधिकांश लोगों के दिमाग से नफ़रत का नाला बह रहा है और वे लोग जो वास्तव में इसके खिलाफ बोल सकते हैं अपने महलों में, अपने मन्नतों और जन्नतों में, बेफिक्र बैठे हैं.
मैं इन बातों में पड़ना नहीं चाहता
इसकी तुलना पश्चिमी देशों से करके देखें. हॉलीवुड अपनी आवाज़ उठाता है क्योंकि वहां लोगों को इस बात का अहसास है कि समाज व्यक्तियों से ही बनता है. नफ़रत एक बार समाज के तानेबाने का हिस्सा बन जाए, तो उसके दुष्प्रभावों से कोई नहीं बच सकता है. #मीटू की बात हो या ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ या फिर इस्लामोफोबिया की, हॉलीवुड ने आगे बढ़ कर दृढ़ता से इनका सामना किया है.
हां, आज उनका समाज हमसे अलग हो सकता है, पर एक समय वे भी हमारी जैसी स्थिति में ही थे. नफ़रत की आग के सामने. एक समय वो भी था जब अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ा था क्योंकि कुछ लोग गुलामी की प्रथा के पक्ष में थे और कुछ विरोध में और जो विरोध में थे उन्होंने इसके खिलाफ लड़ाइयां लड़ी. आपका समाज ईश्वर कृपा से न्यायपूर्ण नहीं हो जाता. आप इसके लिए प्रयास करते हैं.
यदि आप अन्याय का विरोध नहीं करते, आप भारत में अल्पसंख्यकों को नफ़रत का निशाना बनाए जाने की बात कबूल नहीं करते, तो आप खुद को उसी समाज से काट रहे होते हैं कि जिसने कि आपको निर्मित किया है. ये उदासीनता ही नहीं, बल्कि स्वार्थी रवैया है.
शाहरुख ख़ान, सलमान ख़ान और आमिर ख़ान को पता होना चाहिए कि ‘युवा भारत में ये गुस्सा कहां से आ रहा है’ जैसा एक सामान्य सवाल उन्हें फॉलो करने वाले लाखों लोगों को ठहरने और आत्मनिरीक्षण करने को प्रेरित कर सकता है. उनकी आवाज़ में दम है. उससे अब भी फर्क पड़ सकता है. आपको अपने संदेश में खुल कर राजनीतिक होने की ज़रूरत नहीं है. पर आप ये समझ लें कि आपकी चुप्पी बेहद राजनीतिक है.
(लेखक एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)
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