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Monday, 23 December, 2024
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लड़कियों के हाथ मोबाइल पहुंचने से क्यों बौखलाए हैं खाप पंच

भारत की सामंती शक्तियों और सामंती विचार के लोगों ने उन सब मंचों का हमेशा से विरोध किया है, जिन्होंने लोगों को बराबरी देने का छोटा-सा प्रयास भी किया हो.

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व्हाट्सएप पर राजस्थान में एक संदेश इन दिनों वायरल हो रहा है. इस मैसेज में कहा गया है कि कुंवारी लड़कियों के पास मोबाइल फोन पाए जाने पर खाप पंच 51,000 रुपये के दंड का ऐलान करते हैं. शादीशुदा महिलाओं को बटन वाले मोबाइल (बेसिक फोन) रखने की इजाजत दी गई है, लेकिन उनके पास टच फोन पाया गया तो 21,000 रुपये का जुर्माना लगेगा.

इससे पहले भी ऐसी खबरें लगातार आती रही हैं कि लड़कियों के पास मोबाइल पाए जाने पर जाति सभाएं दंड लगाती हैं. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर जिले से आई ऐसी ही खबर में बताया गया कि ये पाबंदी इसलिए लगाई गई है क्योंकि ‘मोबाइल फोन की वजह से तरह-तरह की समस्याएं आती हैं और लड़कियां और लड़के ऐसी हरकतें कर बैठते हैं, जो समाज के लिए ठीक नहीं हैं और जिनसे परिवार और गांव की इज्जत खराब होती है.’ ताजा घटनाक्रम में बिहार की एक पंचायत ने फरमान जारी किया है कि गांव की अकेली लड़की अब मोबाइल पर बात नहीं कर सकती. अगर बात करनी है तो वह बातचीत अभिभावकों की उपस्थिति में होगी.

इन घटनाओं को किस संदर्भ में देखा जाए और इनके पीछे कौन सी मानसिकता काम करती है, इसकी पड़ताल करना ही इस लेख का उद्देश्य है.

लड़कियों पर पाबंदी क्यों लगाना चाहती हैं सामंती शक्तियां

दरअसल भारत की सामंती शक्तियों और सामंती विचार के लोगों ने उन सब मंचों का हमेशा से विरोध किया है, जिन्होंने लोगों को बराबरी देने का छोटा-सा प्रयास भी किया हो. तकनीक ने कुछ हद तक ज्ञान के वर्णवादी-पितृसतात्मक ढांचे को चुनौती दी. ज्ञान और सूचनाओं तक पहुंच व्यापक हुई है. इसके कारण मठाधीशी भी धराशायी हुई है और मर्दों की चौधराहट भी टूटी है. इससे बौखलाए खाप पंचों के युवाओं ने ही लड़कियों के फोन रखने पर पाबंदी लगाने की सोची है. यह सामंती समाज की पूरी सोच को बताता है, जिसमें जाति अपने कानूनों का निर्माण करके उसका पालन करने का आदेश परिवारों को देती है. परिवार उस आदेश के दंड का भय दिखाकर स्त्री की बेड़ियों को बनाये रखता है.

कुंवारी लड़कियां पितृसत्ता के लिए ख़तरा

दरअसल, पितृसत्ता स्त्री को अपनी अमानत या जागीर समझती है और उसकी ‘यौनिकता की पवित्रता’ के लिए विभिन्न तरह के जाल बुनती है. इसकी सारी ‘नैतिकताओं’ का कुल सार आपको यही मिलेगा कि स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रहना है, उनकी मर्जी से चलना है. वे ही उसके भाग्य के निर्माता हैं. जाट जाति जो मूलरूप से किसानी का कार्य करती रही है, वहां पर स्त्रियां श्रम करने में पुरुषों से अधिक भागीदार हैं. वह घर से लेकर खेत और पशुओं की देखभाल तक के सभी कामों को करती हैं. प्रगतिशील और आधुनिकतावादी महापुरुषों की शानदार परंपरा के बावजूद इस जाति का एक हिस्सा सामंती सांस्कृतिक प्रभाव को अपना रहा है. इसका ही असर है कि ‘नव-सामंतों’ को तकनीक का सबसे अधिक ख़तरा लग रहा है. वह भी खासकर तब जब तकनीक लड़कियों के हाथों में पहुंच जाए.

‘इज्जत’ के ठेकेदारों की असलियत

सबसे त्रासदी की बात यह है कि स्त्रियों की ‘सुरक्षा’ के नाम पर और जाति की इज्जत के नाम पर झंडा उठाने वाले यही लोग स्त्रियों के लिए सबसे बड़े संकट हैं. राजस्थान और हरियाणा में गर्भ में बड़ी संख्या में लड़कियों की हत्या करने वाले लोगों के साथ स्त्रियां कैसे सुरक्षित रह पायेंगी, ये सोचने की बात है. उन्हें बाहरी पुरुषों से पहले, अपने ही घर के पुरुषों से ख़तरा है. वे उन्हें गर्भ में मार देंगे, प्रेम करेंगी तो मार देंगे, फोन इस्तेमाल करेंगी तो भी सजा देंगे! उनकी सांसों पर इन इज्जत के ठेकेदारों के ऐसा पहरा बैठा रखा है जो कि मौत से भी कई हजार गुना अधिक भयावह और पीड़ादायक है.


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अब इनकी ‘इज्जत’ की अवधारणा को समझें जो कि पूरी तरह से कमज़ोर पर अत्याचार करने पर निर्भर है. घर और परिवार में स्त्रियों पर अत्याचार करके उन्होंने ‘इज्जत’ का झंडा उठा रखा है, वहीं पर घर से बाहर वे दलितों और अन्य कमजोर समुदायों पर अत्याचार करते हैं. ‘न्याय’ और ‘इज्जत’ का इनका संघर्ष अपने घर की दहलीज़ से शुरू होता है और ज्यादातर मौकों पर सबसे कमजोर पक्ष के खिलाफ काम करता है. ‘दंड’ का भय दिखाकर ऐसे मैसेज जारी करने वाले युवा खाप पंच भूल जाते हैं कि उनकी ऐसी हरकतों से जाति की इज्जत कतई नहीं बढ़ती, बल्कि इसकी वजह से बदनामी ही होती है.

सामाजिक जीवन में संविधान नहीं मानते

आज भी भारत दो तरह के जीवन मूल्यों से संचालित हो रहा है. एक जीवन मूल्य वर्णवादी-पितृसत्ता द्वारा स्थापित है. ये पूरी तरह से अन्याय और गैरबराबरी पर आधारित है, जिसमें उच्च जाति और पुरुष की सत्ता स्थापित की गई है. महिलाओं के खिलाफ फरमान जारी करने वालों का सामाजिक जीवन इन्हीं मूल्यों से संचालित हो रहा है. वहां पर निर्णय लेने की कोई लोकतांत्रिक प्रक्रिया और भागीदारी की संभावना ही नहीं है.

दूसरी तरफ वे जीवन मूल्य हैं, जो संविधान ने प्रदान किए हैं. इन जीवन मूल्यों में आधुनिकता, स्वतंत्रता, समानता है. इन्हीं की वजह से आज इस समाज तक तकनीक पहुंच पाई है. जिन मूल्यों ने आपको मोबाइल उपलब्ध करवाया, उसी मोबाइल के मैसेज के माध्यम से उन आधुनिक मूल्यों को खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है. अवैज्ञानिक समझ से वैज्ञानिकता को चुनौती देने का काम जो आज भारत में किया जा रहा है वह पुनरुत्थानवाद की तरफ जाने के संकेत देता है.


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ऐसे मैसेज फैलाने वालों को संवैधानिक कानूनों का बिल्कुल भी भय नहीं है. वे अपने इन ऐलानों के अतिरिक्त आजादी की तरफ कदम बढ़ाने वालों को अपने सामंती कानूनों के तहत सज़ा भी सुना देते हैं. खाप पंचायतों द्वारा दिए जाने वाले फतवे और सज़ा को संवैधानिक कानून की बिल्कुल भी चिंता नहीं है. देश के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है कि कैसे इन सड़े-गले असमानता आधारित सामाजिक मूल्यों को ध्वस्त किया जाए और संवैधानिक मूल्यों की स्थापना की जाए.

(लेखक साहित्यकार है. इनका कार्यक्षेत्र राजस्थान है. यह लेख उनका निजी विचार है)

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