फिलस्तीन की तरह कश्मीर घाटी में भी इतिहास और हालात के भुक्तभोगियों को जो कुछ झेलना पड़ रहा है उसके लिए उनको दोष देना दोहरी क्रूरता होगी. ये जगहें आज जिस तरह अंधेरे में घिर गई हैं उस तरह हमेशा से नहीं घिरी रही हैं. इन जगहों के लोगों ने अलगाव और उपेक्षा, नागरिक स्वाधीनताओं का उल्लंघन, निरंतर बेइज्जती और यातना तक झेली है; वे बेघर किए गए हैं, उन्होंने जान तक गंवाई है. कश्मीर में यह सब मुसलमानों और हिंदुओं के साथ भी हुआ है, बेशक ज्यादा मुसलमान ही शिकार हुए हैं. दुनिया के दोनों भागों में इतिहास अब अपनी गति से आगे बढ़ रहा है, भुक्तभोगियों ने अपने नुक़सानों पर विचार करना छोड़ दिया है.
दुनिया यहूदी इजरायल को आखिर कबूल कर रही है, जो दुनियाभर के मतों के आगे जिद्दी बना हुआ है और बहुतों की उम्मीद के विपरीत दो राज्य वाले समाधान से इनकार करता रहा है. एक के बाद एक अरब अरब देश जबकि इजरायल से खुल कर संबंध बना रहे हैं, फिलस्तीनियों के पास भीड़ भरी गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के हास्यास्पद रूप से अलग किए गए हिस्सों में सिमटे रहने के सिवा कोई उपाय नहीं है.
कश्मीर का हाल भी इससे भिन्न नहीं है. धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से विविधतापूर्ण मगर एक जम्मू-कश्मीर में जिस घाटी की आबादी कभी बहुमत में थी वहां कई लोग ‘आज़ादी’ के सपने देखते थे, जिसकी परिभाषा समय-समय पर और व्यक्ति-व्यक्ति के लिए बदलती रही. कुछ लोगों के लिए इसका मतलब था पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता और पाकिस्तानी कब्जे वाले में विलय. कुछ लोगों के लिए यह पाकिस्तान में विलय था, तो कुछ लोगों के लिए इसका अर्थ उस अकाट्य पूर्ण स्वायत्तता की वापसी थी जिसमें राज्य को अपना झण्डा, अपनी मुद्रा, अपना वजीरे आजम मिल जाए.
यह सब उस यथार्थवाद का अभाव दर्शाता है, जो दशकों से फिलस्तीनी सियासत और जनाकांक्षा की खासियत रही है. दोनों जगहों के लोग निषेध में जीते रहे हैं, वे इस खुले तथ्य को अस्वीकार करते रहे हैं कि अपने मुक़ाबले अपार ताकत के खिलाफ हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती होता है. वैसे, यह सच है कि हताश किए जा चुके लोग हिंसा का रास्ता चुनते हैं, भले ही वह बेमानी क्यों न हो. लेकिन यह भी सच है कि वे पुलिसिया राज्यसत्ता की ज़्यादतियों के शिकार हुए हैं, और यह भी कि अगर उनकी आकांक्षाएं ज्यादा यथार्थपरक होतीं तो इन दोनों को जितना कुछ हासिल होता उससे कम ही हासिल हुआ है.
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यह बात चीन के साथ सीमा विवाद के मामले में भारतीय कूटनीति के बारे में भी कही जा सकती है. 1960 में जो पेशकश (अरुणाचल के बदले अक्साई चीन लेने) की गई थी और 1980 के दशक में भी की गई थी वह अब वार्ता मेज से बाहर कर दी गई है. चीन की ताकत और फौजी बढ़त बढ़ी है और अब वह लद्दाख में भारत के कब्जे वाली जमीन में से और हिस्सा हड़पना चाहता है, जबकि वह अरुणाचल के तवांग क्षेत्र पर भी दावा कर रहा है. ताकत वह चीज है जो ज्यादा से ज्यादा हासिल करने की भूख बढ़ाती रहती है.
इजरायल और फिलस्तीन के मामले में भी यही हुआ है. 70 साल पहले जो पेशकश की गई थी उसके तहत फिलस्तीन को आज जो हासिल है उससे कहीं बड़ा होमलैंड मिल जाता. इजरायल ने उसके बाद से वहां जिस क्षेत्र पर कब्जा किया है उस पर अवैध बस्तियां बसा दी हैं. इधर, भारत ने आगे बढ़कर संविधान के दो अहम अनुच्छेदों को रद्द कर दिया है, जिनके तहत जम्मू-कश्मीर के लोगों को विशेष अधिकार प्राप्त थे. वहां के नेता पुरानी यथास्थिति बहाल करने की मांग कर रहे हैं, जो पूरी नहीं की जाएगी. अलगाववादी तत्व ‘आज़ादी’ के लिए लड़ाई जारी रखने की उम्मीद कर रहे हैं, लेकिन वे एक दुश्मन देश के मोहरे बने हुए हैं और 30 सालों में कुछ नहीं हासिल कर पाए हैं.
सीखने के लिए दूसरा सबक भी है या जवाब का इंतज़ार कर रहा एक सवाल भी है. फिलस्तीन की सत्ता के मानक इजरायल के मानकों के आगे कमजोर नज़र आते हैं. जम्मू-कश्मीर की सरकारें सुस्ती, अक्षमता, भ्रष्टाचार की पर्याय रही हैं, हालांकि वहां के लोग शेष भारत के मुक़ाबले बेहतर हालात में रहे हैं, जिसका श्रेय केंद्र के उदार अनुदानों को दिया जा सकता है. जहां तक भारत की बात है, वह चीन के जोरदार रेकॉर्ड की बराबरी करने में पिछड़ता रहा है. इस तरह की आंतरिक विफलता से तुलनात्मक शक्ति का, और कुछ मामलों में वैधता और स्वायत्त इच्छाशक्ति का कितना ह्रास होता है? क्या इन जगहों के लोगों में इस सवाल का सामना करने की शक्ति है?
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