मुंबई में जातिगत उत्पीड़न की वजह से पायल तड़वी की खुदकुशी के बाद जब विरोध प्रदर्शन चल रहा था तो उस दौरान दिल्ली के समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने कहा कि अब आरक्षण के दायरे में आने वाले वर्गों के लिए वक्त आ गया है कि वे कहें कि वे आरक्षण नहीं चाहते, क्योंकि अब यह इसका इस्तेमाल उनके खिलाफ होता है और इसके ज़रिए उनकी योग्यता और क्षमता पर सवाल उठाए जाते हैं. राजेंद्र पाल गौतम ने कहा कि वे आरक्षण के समर्थक हैं, लेकिन इस पर से फोकस हटना चाहिए.
दलित नेता क्यों दे रहे हैं आरक्षण के खिलाफ बयान
इसके अलावा, बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान से लेकर रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के अलावा कुछ अन्य वैसे लोगों या नेताओं के मुंह से आरक्षण की व्यवस्था को खत्म करने या आरक्षण का आधार आर्थिक करने, या समृद्ध दलितों को आरक्षण से वंचित करने के पक्ष में के स्वर सामने आ चुके हैं. यह दिलचस्प है कि सवर्ण समूह को गरीबों (ईडब्ल्यूएस) को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक संसद में एक दलित मंत्री थावर चंद गहलोत ने पेश किया था.
ज़ाहिर है, अगर आरक्षण को खत्म करने या इसे बेमानी बताने की बात अगर कोई सवर्ण करेगा तो जनाक्रोश फैल सकता है. जबकि अगर कोई दलित-वंचित पहचान वाला नेता आरक्षण को खत्म कर देने की बात करे तो आरक्षित वर्गों के भीतर कई तरह की प्रतिक्रयाएं होने लगती हैं. कई लोग ऐसा सोच सकते हैं कि वे जब सक्षम हैं तो उन्हें आरक्षित वर्गों को मिलने वाले लाभ क्यों मिलें! साथ ही, आरक्षण प्राप्त वर्गों के बीच एक तरह की मायूसी और निराशा फैलती है कि अब तक के संघर्षों से हासिल आरक्षण शायद छिन जाने वाला है!
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आरएसएस ने आरक्षण के खिलाफ बोलना बंद किया
आरक्षण को खत्म करने की वकालत करने वाले जिन नेताओं के बयानों को सुर्खियां मिलती हैं, वे आमतौर पर भाजपा या फिर आरक्षण विरोध की बुनियाद पर खड़े राजनीतिक दलों के साथ होते हैं. सवाल यह है कि आरक्षण विरोध में आरक्षित वर्गों से और खासतौर पर अनुसूचित जाति की पृष्ठभूमि से आने वाले नेताओं के बयानों की खास चर्चा क्यों होती है?
इसकी सीधी वजह यह है कि चार साल पहले, आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने लोगों का मूड भांपने के लिए कहा था कि आरक्षण की व्यवस्था की समीक्षा होनी चाहिए. इसके फौरन बाद हुए बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद ने भागवत को आरक्षण खत्म करने की चुनौती दी थी. उस चुनाव में भाजपा की बुरी तरह हार हुई थी.
उसी ‘अनुभव’ के बाद आरएसएस और भाजपा के सवर्ण नेताओं ने आरक्षण के खिलाफ बोलना बंद कर दिया है. बल्कि वे आरक्षण के पक्ष में बयान दे रहे हैं. मिसाल के तौर पर, मोहन भागवत अब खुद इस तरह की राय ज़ाहिर करते हैं कि सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए संविधान में प्रदत्त आरक्षण का आरएसएस पूरी तरह समर्थन करता है. वे कहते हैं कि आरक्षण कब तक दिया जाना चाहिए, यह निर्णय वही लोग करें, जिनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है.
आरक्षण पर बढ़ रहा है वैचारिक हमला
पिछले कुछ समय से आरक्षण पर होने वाली बहसों को जैसी दिशा दी जा रही है, वह अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की वाजिब भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए की गई व्यवस्था को अब संदिग्ध और अन्यायपूर्ण बता कर पेश किया जा रहा है. ऐसा दिखाया जा रहा है कि आरक्षण के कारण सवर्णों के ऊपर कितना बड़ा जुल्म हो रहा है. ये तब है कि जबकि तमाम उच्च पदों और सत्ता संरचनाओं में सवर्णों का वर्चस्व है. आरक्षण को ‘मेरिट’ और ‘सेवा में गुणवत्ता’ को प्रभावित करने वाले कारक के रूप में प्रचारित किया जा रहा है.
यह छिपा नहीं है कि आज़ादी के सत्तर साल बाद भी समूचे तंत्र में अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ी जातियों की नाम मात्र की ही भागीदारी संभव हो सकी है. सवाल है कि जब अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ी जातियों के लिए लंबे समय से लागू आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद इन वर्गों की पर्याप्त या संतोषजनक भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जा सकी है, तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बिना आरक्षण की व्यवस्था में प्रतिनिधित्व की क्या हालत होगी? वैसे भी कभी लैटरल एंट्री तो कभी निजीकरण तो कभी नौकरियों की आउटसोर्सिंग के ज़रिए आरक्षण की व्यवस्था को लगातार कमज़ोर बनाया जा रहा है. रही सही कसर सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण देकर पूरी कर दी गई है.
ये सारी कवायद करने से पहले सुनियोजित तरीके से समाज में यह धारणा स्थापित करने की कोशिश की गई कि आरक्षण केवल गरीबों को मिलना चाहिए. इस धारणा को प्रचारित करने में लगे तंत्र की ताकत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि आरक्षित वर्गों से आने वाले कई लोग भी यह कहते हुए मिल जाएंगे कि आरक्षण की सुविधा केवल गरीब लोगों को मिलना चाहिए. सवाल है कि मौजूदा आरक्षण की व्यवस्था को लेकर इतने बड़े झूठ को आम लोगों की राय में घुसपैठ कराने में कामयाबी कैसे मिल सकी?
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आरक्षण का क्या है वैचारिक आधार
नौकरियों और उच्च शिक्षा में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए की गई आरक्षण की व्यवस्था का आधार जाति है, क्योंकि ऐतिहासिक रूप से ये जातियां विकास-क्रम में पीछे छोड़ दी गईं. इसलिए सत्ता से लेकर तंत्र तक में इनकी भागीदारी बेहद कम है. इनकी वाजिब भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई. जहां तक गरीब लोगों का खयाल रखने का मामला है, तो उनके लिए गरीबी दूर करने वाली कई तरह की सरकारी योजनाएं चल रही हैं.
लेकिन इस तथ्य को समाज में एक आम विचार के रूप में फैलाने में कामयाबी नहीं मिल सकी, क्योंकि राजनीतिक स्तर पर इस दिशा में पर्याप्त कोशिश नहीं की गई. आरक्षण पर आमतौर पर समाज का वही तबका मुखर हो पाता है जो इसका लाभ उठा सकने की स्थिति में है. उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों से दूर वंचित जाति-वर्गों के एक बड़े वर्ग के बीच इस मुद्दे के राजनीतिक महत्त्व को अभी ज़रूरी जगह नहीं मिल सकी है. इसके बावजूद आरक्षण के मुद्दे का इतना असर है कि आरक्षण का विरोध करने वाले राजनीतिक दल या उनके नेता भी सीधे इसके खिलाफ कुछ नहीं बोल पाते हैं.
आरक्षण के खिलाफ नई रणनीति
इसलिए आरक्षण विरोधियों ने दूसरा रास्ता अपनाया है. आरक्षण को गरीबी से जोड़ कर प्रचारित करना और खुद दलित-पिछड़ी जातियों की पृष्ठभूमि वाले नेताओं से आरक्षण के आर्थिक आधार की वकालत करवाना. दूसरे, सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा का ढांचा ऐसा बना देना कि वहां आरक्षण बेअसर हो जाए, ताकि उसे बचाने के लिए कोई आगे न आए.
आखिर हमारे समूचे सत्ता-तंत्र को आरक्षण से दिक्कत क्यों है? परोक्ष रूप से क्यों आरक्षण को एक नकारात्मक व्यवस्था के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है? क्या इसकी वजह यह है कि इस व्यवस्था के तहत समाज के उन वर्गों के लोग भी सत्ता और तंत्र में पहुंचने लगेंगे और इसका आखिरी असर समाज के ढांचे पर पड़ सकता है. यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि पिछले कुछ सालों में आरक्षण के कारण सत्ता-तंत्र में अपनी जगह बनाने वाले बहुत सारे युवा राजनीतिक और सामाजिक चेतना से भी लैस हैं. वे समाज के ढांचे को प्रभावित करने की क्षमता भी रखते हैं. ये बात आरक्षण विरोधियों को परेशान कर रही है. इसलिए उन्होंने आरक्षण के खिलाफ अपनी मुहिम तेज़ कर दी है.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)