जब किसी समाज को भीड़ में तब्दील कर दिया जाता है तो उसका विवेक मर जाता है. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जब किसी समाज को भीड़ में तब्दील करना होता है तो पहले उसके विवेक पर कब्जा जमाया जाता है. जहां तक भीड़ की हिंसा (मॉब लिंचिंग) की घटनाओं का सवाल है, साफ देखा जा सकता है कि न सिर्फ सुनियोजित रूप से सोचने-समझने की परिस्थितियां खत्म की गई हैं, बल्कि समूह के भीतर जो कुठाएं जमा होती हैं, उसे भीड़ की हिंसा के जरिए निकालने के भी इंतजाम किए गए हैं.
मारने वालों के पीछे दिमाग किसका?
लेकिन दिक्कत यह है हिंसा में शामिल लोगों की पहचान तो हो जाती है, उन्हें कठघरे में भी खड़ा किया जा सकता है, लेकिन इस समूचे ‘अभियान’ या ‘कार्यक्रम’ के सामाजिक योजनाकारों पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता है. इस लेख का उद्देश्य इन्हीं प्रछन्न यानी छिपे हुए किरदारों की पहचान करना है.
दो ताजा घटनाएं हैं. बिहार के वैशाली जिले में अफवाह की जद में आए लोगों ने एक मुसलिम युवक और शिक्षक को पकड़ लिया और बुरी तरह से उनकी पिटाई की. उनकी जान किसी तरह बच गई. दूसरी घटना मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में हुई, जहां खुले में शौच करने के आरोप लगा कर दो दलित बच्चों को लाठियों से इस तरह पीटा गया कि दोनों की जान चली गई.
ये दोनों घटनाएं भी पिछले कुछ समय से पीट-पीट कर मार डाले जाने के दूसरे वाकयों की तरह ही दिखती हैं, लेकिन ये घटनाएं महत्वपूर्ण हैं क्योंकि दोनों घटनाओं में हमलावरों या हत्यारों के बारे में अच्छी-खासी चर्चा हुई. बिहार की घटना में जहां मुस्लिम शिक्षक को पीटने वाली भीड़ को दलित तबके का बताया गया, वहीं मध्य प्रदेश में आरोपियों के यादव जाति से होने पर काफी चर्चा हुई.
इसमें कोई शक नहीं है कि ताजा घटनाओं में दो ऐसे वर्ग शामिल हैं, जिन्हें कायदे से हिंसा से खिलाफ खड़ा होना चाहिए, क्योंकि इस हिंसा का असली मकसद मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना है, जिसमें उनकी हैसियत सबसे नीचे या काफी नीचे है. सवाल है कि क्या दलित-पिछड़ी जातियों के जीवन से सभी सामाजिक-आर्थिक समस्याएं खत्म हो गई हैं, क्या राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र तथा राजकाज में उनकी भागीदारी न होने के सवाल हल हो गए हैं कि अब वे किसी को भी पकड़ कर मारने-पीटने या मार डालने के सत्ताधारी सामाजिक वर्गों के आयोजनों में हिस्सा लेने लगे हैं?
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हाशिये से लेकर साइलेंट रिवोल्यूशन तक
दरअसल, यही वह बिंदु होना चाहिए, जहां से दलित-पिछड़ी जातियों के भीड़ में तब्दील होने की वजहों पर गौर किया जा सकता है. भारत में आजादी के 70 सालों के बाद भी दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित नहीं किए जा सके हैं. अमूमन हर दौर में इस यथास्थिति को बहाल रखने के लिए सत्ताधारी तबकों ने विकास करने और गरीबी दूर करने जैसे नारों के बीच सामाजिक सवालों को हाशिये पर बनाए रखा या दबाए रखा.
लेकिन पिछले तीन दशकों के दौरान जब कथित मुख्यधारा की राजनीति के समांतर कुछ अन्य राजनीतिक वर्गों ने सामाजिक सवालों को अपनी राजनीति का एजेंडा बनाया, जमीनी स्तर पर उसकी राजनीति की, तब जाकर वंचित तबकों की सामाजिक-राजनीतिक वंचना और उसकी वजहों को लोगों ने गंभीरता से लेना शुरू किया. इस तरह की राजनीति ने पहले भी दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में अपना कारगर असर छोड़ा था, लेकिन उत्तर भारत में इसने पिछले ढाई-तीन दशकों के दौरान ही जोर पकड़ा था. फ्रांसीसी राजनीति विज्ञानी क्रिस्टोफ जैफरोले ने इसे साइलेंट रिवॉल्यूशन का नाम दिया.
इसका शुरुआती हासिल सकारात्मक रहा जब उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में दलित-पिछड़ी जातियों की राजनीति का उभार हुआ और इन तबकों के प्रतिनिधियों को राजनीतिक सत्ता भी मिली. इसके बाद दलित-पिछड़ी जातियों के सामाजिक प्रश्न हल होने चाहिए थे. लेकिन अफसोस कि उनके सत्ता में आने के बावजूद न सिर्फ तंत्र का सामाजिक ढांचा लगभग पहले की तरह बना रहा, बल्कि जमीनी स्तर पर भी चेतना निर्माण का काम ढीला पड़ गया. सामाजिक न्याय का राजनीतिक नारा चेतना के विकास का आंदोलन नहीं बन पाया और यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हुआ.
कमंडल से निकाली गई मंडल की काट
सामाजिक न्याय और चेतना के आंदोलन के असर का अंदाजा सत्ताधारी सामाजिक तबकों और जातियों को अच्छी तरह से था. इसलिए मंडल आयोग की सिफारिशों की लड़ाई के बरक्स तुरंत ही बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर की राजनीति को मैदान में उतार दिया गया. चूंकि ज्यादातर हिंदुओं के मानस में मुस्लिम विरोध घोल दिया गया है, इसलिए सामाजिक न्याय के आंदोलन के समांतर ही मुस्लिम विरोध को केंद्र में रख कर कमंडल की राजनीति को आक्रामक फैलाव दिया गया. एक जड़ समाज में चेतना के सवालों को आकार लेने में वक्त लगता है. सामाजिक न्याय की आवाज पर पहले से जड़ें जमाए बैठा धार्मिक मानस हावी होने लगा. नतीजतन दलित-पिछड़ी जातियों की राजनीति चौराहे पर आकर खड़ी हो गई है, जिसका फायदा आखिरकार ब्राह्मणवादी-सांप्रदायिक राजनीति को मिलना ही था.
सांप्रदायिकता की राजनीति बेहद आक्रामक स्तर पर सक्रिय रही है. पिछले कई सालों से लगातार गांव-गांव के स्तर पर हर कुछ दिनों बाद होने वाले एक, पांच या ग्यारह दिनों तक लगातार चलने वाले यज्ञों का आयोजन, धार्मिक प्रवचन करने वाले बाबाओं का तेजी से फैलाव, कुंभ या गंगा आरती जैसे आयोजनों में सरकारों की मुख्य भागीदारी जैसे तमाम धार्मिक कार्यक्रमों ने ऐसा असर छोड़ा कि उसके बाद लोग अपने स्तर पर भी हनुमान आराधना या शिव चर्चा जैसे बहानों से खुद को व्यस्त रखने लगे. इसके अलावा, दंगा, अफवाह फैलाने से लेकर हर राजनीतिक गतिविधि का केंद्र प्रत्यक्ष तौर पर मुसलमानों को निशाने पर रखा गया. भारत की दुर्दशा के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराने का नैरेटिव बौद्धिक स्तर पर फैलाया गया और इसमें सोशल मीडिया खासकर व्हाट्सऐप का खूब इस्तेमाल किया गया.
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इसका नतीजा अब देखने को मिल रहा है. मुस्लिम विरोध को केंद्र में चलने वाली धार्मिक गतिविधियां आज कहीं गाय के नाम पर मुसलमानों और दलितों को मारने तो कहीं बच्चा चोरी की अफवाह पर किसी को भी पकड़ कर मार डालने के अंजाम तक पहुंच गई हैं. मध्य प्रदेश में खुले में शौच करने के बहाने दो बच्चों को पीट-पीट कर मार डालने की घटना से साफ है कि सामाजिक प्रश्नों को इस हद तक राजनीति और बहस से बाहर रखा गया कि जो पिछड़ी जातियां खुद ही ब्राह्मणवादी सामाजिक ढांचे में निम्न हैसियत की मानी जाती हैं, वे अपने से निम्न मान कर दलितों पर हमला कर रही हैं. हालांकि पिछड़ी जातियों के भीतर यह मनोविज्ञान ब्राह्मणवादी विचारधारा की देन है, लेकिन यह साफ है कि सामाजिक वंचना की राजनीति को समझ पाने की स्थिति में वे नहीं पहुंच सके.
कायदे से होना यह चाहिए था कि भीड़ की हिंसा की हर घटना के बाद आरोपियों की जातियों के कुछ मुख्य नेता घटना की जगह पर जाते और इस तरह की घटनाओं के खिलाफ एक व्यापक राजनीति का माहौल तैयार करते. ये काम सामाजिक न्याय और बहुजन की राजनीति करने वालों को करना चाहिए. लेकिन वे यही कर रहे होते, तो आज सांप्रदायिकता की राजनीति को फन उठाने का मौका ही क्यों मिलता?
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)