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Wednesday, 18 December, 2024
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आर्टिकल-15 लागू कराने के लिए एक आईपीएस क्यों चाहिए, क्या कहते हैं आंबेडकर

आर्टिकल-15 की सबसे बड़ी समस्या ये है कि यह फिल्म जाति समस्या का समाधान संविधान में देखती है. लेकिन क्या संविधान या कोई भी कानून दो लोगों या समूहों के बीच भाईचारा स्थापित कर सकता है?

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अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15 पर आपने कई समीक्षाएं पढ़ ली होंगी. जिनको दिलचस्पी होगी. उन्होंने फिल्म देखी भी होगी और आपस में चर्चा भी की होगी. ये कोई ब्लॉकबस्टर तो नहीं है, लेकिन लगता है कि ठीक-ठाक बिजनेस कर जाएगी. ये फिल्म जितनी सिनेमाघरों में देखी जा रही है, उससे ज्यादा इसके बारे में बात हो रही है. कोई इसे जातिवाद से लड़ने वाली फिल्म बता रहा है, तो किसी को इसमें भारतीय समाज का चेहरा नजर आ रहा है, तो किसी को ये फिल्म क्रांतिकारी हस्तक्षेप करती नजर आ रही है, वहीं कई लोगों को लग रहा है कि ये फिल्म दलितों के बारे में है. इस वजह से जब ब्राह्मण संगठनों ने इस फिल्म का विरोध किया, तो इस फिल्म के पक्ष में कुछ दलित संगठन खड़े हो गए. सोशल मीडिया में दलित एक्टिविस्टों का एक हिस्सा इस फिल्म का समर्थन कर रहा है और इसके लिए सिनेमाघरों के बाहर लाठी खा रहा है.

एक और समीक्षा क्यों?

ऐसे में मेरा मकसद इस फिल्म की एक और समीक्षा लिखना नहीं है. मैं इस लेख में सिर्फ ये देखने की कोशिश कर रहा हूं कि ये फिल्म किनके बारे में है और क्या ये फिल्म सचमुच जाति के सवाल से टकराती है और क्या इससे जातिमुक्त भारत बनाने की बहस में कोई नई बात जुड़ती है और सबसे बड़ा सवाल? जिन प्रश्नों को समाज सुधारकों को हल करना चाहिए, उन्हें हल करने के लिए एक पुलिसवाले की जरूरत क्यों पड़ रही है?


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फिल्मों या लोक कला माध्यम सिर्फ मनोरंजन नहीं करते, विचारों का प्रचार भी करते हैं. फिल्म या कोई भी कला माध्यम लोगों के सोचने के तरीकों को प्रभावित करता है और इसका असर तमाम तरह से होता है. इसलिए इस बारे में बात होनी चाहिए. मिसाल के तौर पर 80 के दशक में टीवी पर दिखाए गए सीरियल रामायण और महाभारत ने आगे चलकर देश में एक खास तरह की राजनीति को पुष्ट किया. इसी तरह पाकिस्तान विरोध कब फिल्मों से निकलकर मुसलमानों के विरोध की शक्ल में हमारे दिमाग में घुस जाता है. ये हमें कब पता चलता है. गोरेपन को लेकर फिल्मों और पॉपुलर कल्चर फार्म की सनक कब गोरा बनाने की क्रीम के 2,000 करोड़ रुपए के बिजनेस को फैलाने में योगदान कर जाती है. इसका अंदाजा क्रीम खरीदने वालों को कब होता है?

क्या आर्टिकल 15 दलितों के बारे में है?

इस फिल्म को लेकर सबसे पहले तो ये भ्रम अपने मन से निकाल देना चाहिए कि ये फिल्म दलितों के बारे में है. फिल्म की कहानी में हीरो, हीरोइन, विलेन कोई भी दलित नहीं है. हीरो ब्राह्मण है. हीरोइन की जाति नहीं बताई गई है. लेकिन, निश्चित रूप से उसे सवर्ण फिल्माया गया है. विलेन की कोई जाति नहीं बताई गई है, लेकिन किरदार सवर्ण का ही है. दलित इस फिल्म में हैं, लेकिन एक्सट्रा के रूप में. वे मूल कहानी में साइड एक्टर्स हैं, जो कहानी को आगे बढ़ाने में योगदान करते हैं और फिर लापता हो जाते हैं. वे आमतौर पर कमजोर, लाचार और दब्बू करेक्टर्स हैं. अपवाद के तौर पर निषाद का चरित्र है, जो भीमआर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद से प्रेरित लगता है. लेकिन वह न तो कोई समाधान लेकर आता है और न ही कहानी में जरूरी है. उसका रोल टच एंड गो ही है.

तो ये फिल्म किनके बारे में है?

इस बारे में फिल्म के डायरेक्टर अनुभव सिन्हा खुद कहते हैं कि ‘मैं इस फिल्म में ब्राह्मण हीरो रखना चाहता था. ताकि, वह पुलिस तंत्र और जाति व्यवस्था के शिखर पर हो और उसके पास ये सुविधा हो कि वह अपनी मनचाही दिशा में चला जाए. इस फिल्म में उससे सही रास्ता चुना. मैं चाहता हूं कि जो प्रिविलेज्ड यानी विशेषाधिकार संपन्न हैं, वे खुद विशेषाधिकार को चुनौती दें क्योंकि व्यवस्था उन्होंने बनाई है.’

मेरे ख्याल से अनुभव सिन्हा के इस बयान के बाद इस विवाद में खास दम नहीं रह जाता कि ये फिल्म किसके बारे में है.

ये फिल्म एक सवर्ण व्यक्ति के अंदर न्याय और अन्याय को लेकर चल रही बहस और उस बहस में अपना पक्ष तय करने के बारे में है और इस दौरान उसके अपने अंतर्विरोधों को सामने लाती है. इस काम को ये फिल्म काफी हद तक कर पाती है. फिल्म की नायिका भी इस अंर्तिरोध का उभारती है. नायक के पश्चिम के लोकतंत्र के रूमानी सपने जब भारत की कठोर धरती की सच्चाई से टकराकर चूर-चूर हो रहे होते हैं, तो नायिका उसे हीरो वरशिप (नायक पूजा) से बाहर आने की सलाह देती है और ऐसी स्थिति के बारे में सोचने के लिए कहती हैं. जिसमें लोग हीरो का इंतजार न करें. हालांकि, हीरोइन की यह कामना आखिर तक पूरी नहीं होती और आखिरकार हीरो खुद ही सब कुछ ठीक कर देता है.

फिल्मकार की इन सीमाओं के बारे में सोशल साइंस के स्कॉलर संजय श्रमण जोठे ने बहुत निर्मम तरीके से लिखा है ‘यह फिल्म उन लोगों के लिए बनाई गयी है जो स्वयं जातिगत शोषण की इस डिजाइन में फायदा उठा रहे हैं. ये फिल्म उनके ह्रदय परिवर्तन की दृष्टि से बनाई गयी है. इसलिये (इस बात का ध्यान रखा गया है कि) शोषकों के जातीय अहंकार को इतनी भी चोट न लगे जाए कि हृदयाघात ही हो जाए. हृदय परिवर्तन के लिए सच्चाई को उजागर करते हुए उसे सुरक्षित सीमाओं में रखना होता है. शोषकों के ह्रदय परिवर्तन की उम्मीद और इंतज़ार करने का यह आग्रह इस फिल्म की कहानी में एक ऐसी मजबूरी बनकर उभरता है, जो बहुत निराश करती है. इतिहास में जाकर अगर हम गांधी और आंबेडकर के नजरिए के बीच के तनाव को देखें तो यह वही तनाव है. गांधी ह्रदय परिवर्तन चाहते हैं और आंबेडकर व्यवस्था-परिवर्तन और धर्म परिवर्तन चाहते हैं.’


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न्याय के सवालों से टकराता सवर्ण इलीट है अनुभव सिन्हा का हीरो

फिल्म का नायक अमेरिका में बसा हुआ भारतीय है, जो अपने पिता के कहने पर भारत आता है और सिविल सर्विस ज्वाइन करता है. भारत को लेकर उसकी कई धारणाएं रही होंगी, जो हकीकत से टकराकर चकनाचूर हो जाती हैं. फिल्म में उसे आदर्शवादी दिखाया गया है, जिसमें न्याय और अन्याय को लेकर सोचने की क्षमता बची हुई है.

फिल्म में वह कई तरह के प्रिवलेज इंज्वाय करता है और इसे लेकर उसे कोई दिक्कत भी नहीं है. फिल्मकार भी इन बातों को लेकर कोई क्रिटिकल सोच रखता है, ऐसा लगता नहीं है. हीरो को इस बात से कोई दिक्कत नहीं है कि उसके घर का काम करने के लिए एक कांस्टेबल की बहन को लगा दिया जाता है. इस बात का ध्यान रखा जाता है कि खाने बनाने वाली वह लड़की अछूत जाति से न हो. हीरो ब्राह्मण है और साथ में आईपीएस भी तो वह किसी से भी उसकी जाति पूछ सकता है और फिर सबको इस बारे में डांट भी सकता है कि सारे लोग कितने जातिवादी हैं. वह अन्याय के साथ खड़ा हो सकता है. लेकिन, अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए वह न्याय के पक्ष में खड़ा हो जाता है.

आर्टिकल-15 क्या नहीं बताती

फिल्म जाति व्यवस्था के कारणों को लेकर खामोश है. फिल्म में जाति व्यवस्था का कोई विलेन नहीं है. आर्टिकल 15 जाति समस्या का कोई समाधान नहीं सुझाती. फिल्म समाधान के लिए संविधान की शरण में जाती है. लेकिन सवाल उठता है कि क्या समाज सुधार का काम भी संविधान ही करेगा? क्या दुनिया का सबसे अच्छा संविधान दो सामाजिक समूहों का या व्यक्तियों को भाईचारा या बहनापा या बंधुत्व (फ्रेटर्निटी) सिखा सकता है? क्या दुनिया का सबसे अच्छा संविधान किसी सामाजिक समूह को अपने प्रिवलेज यानी विशेषाधिकार छोड़ने के लिए समझा सकता है?

फिर सवाल उठता है कि ये सब करना क्या किसी फिल्मकार के लिए संभव है? मेरा जवाब है- असंभव तो नहीं है. लेकिन आसान भी नहीं है.

आखिर में, संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. बीआर आंबेडकर से जानते हैं कि फ्रेटर्निटी यानी बंधुत्व के बारे में उनके क्या विचार थे. ‘बंधुत्व का अर्थ है कि अगर सभी लोग भारतीय हैं तो उनके बीच भाईचारे का एक साझा एहसास होना चाहिए. इससे ही सामाजिक जीवन में एकता और एकजुटता आएगी. इसे हासिल करना एक मुश्किल काम है.’

ये बात बाबा साहेब संविधान सभा के आखिरी भाषण में बोल रहे हैं. वे कहते हैं ‘बंधुत्व के बिना स्वतंत्रता और समानता स्वाभाविक रूप से नहीं आएगी. ऐसी हालत में इन्हें लागू करने के लिए एक पुलिसवाले की जरूरत पड़ेगी.’

आर्टिकल-15 फिल्म ठीक यही काम करती है!

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