कोरोना के इस मौसम में हम व्यापक तौर पर मान्य दो सच्चाइयों का जिक्र करने की हिम्मत कर रहे हैं. पहली यह कि कल का इंतज़ार मत कर, काल करे सो आज कर… और दूसरी सच्चाई, जिसे प्रख्यात अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स से जोड़ा जाता है और जिसे डॉ. मनमोहन सिंह ने नोटबंदी पर संसद में बहस के दौरान दोहराया था, कि अंततः तो हम सबको ही मरना है.
आज हताशा का माहौल इतना गहरा है कि नाउम्मीद न होने की बात करना असंवेदनशीलता मानी जा सकती है. पिछली दो पीढ़ियों के दौर का सबसे भयानक वायरस दुनिया भर में घूम रहा है, उसे किसी वीजा या पासपोर्ट की जरूरत नहीं है, वह तो लोगों के टिकट के साथ घूम रहा है.
चूंकि यह वायरस ‘नया’ है इसलिए बादशाह से लेकर आम लोगों तक कोई भी इससे सुरक्षित नहीं है. यह सबको लगभग एक ही लाठी से हांक रहा है, बेशक इसे मशहूर और ताकतवर लोग ज्यादा पसंद हैं. जरा इसकी चपेट में आए नामों को देखिए— प्रिंस चार्ल्स, ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन, सोफी ट्रूडो, टॉम हैक्स, भारतीय मूल के ग्लोबल स्टार शेफ फ़्लोएड कार्डोज, आदि-आदि.
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अगर यह केवल अमीर और शक्तिशाली व्यक्तियों को ही निशाना बनाता तो अधिकतर लोग इसे परपीड़ा सुख का मामला भर बना लेते. लेकिन मामला यह नहीं है, क्योंकि यह सबको अपनी चपेट में ले रहा है. कई देशों के महामारी विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक हम इस वायरस के लिए कोई वैक्सीन नहीं तैयार कर लेते या ‘सामूहिक रोग प्रतिरक्षा’ या दोनों में सफल नहीं होते, तब तक 50 से 80 प्रतिशत तक लोग इससे संक्रमित हो सकते हैं.
लेकिन ये आंकड़े बेमानी हैं क्योंकि यह एक और तरह का फ्लू है जो हमारे लिए मारक वायरसों में शामिल होकर बना रह सकता है, और हम इससे भी लड़ना सीख जाएंगे. हममें से बड़ी संख्या में लोगों को यह कभी-न-कभी पकड़ सकता है जिनमें से 8-10 प्रतिशत लोग इसके कारण आम सर्दी-जुकाम से ज्यादा परेशानी महसूस करेंगे, और कुछ लोगों की मौत भी हो सकती है. लेकिन इससे संक्रमित बहुत बड़ी संख्या में, कम-से-कम 98 प्रतिशत, लोग इससे निपट लेंगे. इसलिए हम ऊपर जिस पहली कथित सच्चाई का, कि काल करे सो आज कर…, जिक्र कर चुके हैं उसकी यह पुष्टि करता है.
लेकिन मान लीजिए हम यह कहें कि कल तो आने ही वाला है…
दरअसल, आप अगर आलसी हैं, भाग्यवादी हैं और हताशावादी हैं तो आपके लिए वह कल कभी नहीं आने वाला. ऐसे लोगों पर तंज़ कसते हुए लोग यही कहते हैं कि आज करे सो कल कर, कल करे सो परसों… . लेकिन, कल तो आता ही है. इसलिए बेहतर है कि आप यह तय कर लें कि तब तक आप क्या करेंगे.
अब केन्स वाली सच्चाई की बात करें. यह तो निश्चित ही है कि अंततः सबको इस दुनिया से जाना है. लेकिन यहां दो सवाल उभरते हैं. हमें जो जीवन मिला है उसमें हम क्या करते हैं? क्या हम बस मौत का इंतज़ार करते रहें? अधिकतर प्राणी इस तरह नहीं जीते, कि मौत का इंतज़ार करते रहें. वे ज्यादा से ज्यादा दिन तक जीने के लिए जी जान लगा देते हैं, चाहे वह दुष्ट वायरस ही क्यों न हो जिसे जैविक तौर पर एक पूरा प्राणी भी नहीं कहा जा सकता.
इसलिए, दूसरा सवाल यह है— यह फैसला कौन करेगा कि ‘अंततः’ कौन कितना लंबा या छोटा जीवन जिएगा?
इस वायरस से कितने भारतीय संक्रमित होंगे या कितने मारे जाएंगे, इसे लेकर तमाम तरह के अनुमान लगाए जा रहे हैं.
महामारी विज्ञान की विशेषज्ञता फैशन में है. इसलिए उतने तरह के अनुमान उपलब्ध हैं जितने के असली या फौरी महामारी विशेषज्ञ या अर्थशास्त्री या रामबाण बताने वाले सामने आ रहे हैं, जो महामारी विशेषज्ञ होने के दावे कर रहे हैं.
एक छोर पर यह दावा किया जा रहा है कि जुलाई तक लाखों भारतीय मारे जाएंगे और 50 करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हो जाएंगे. दूसरे छोर पर हमें यह बताया जा रहा है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है, वायरस हमें छोड़कर आगे बढ़ जाएगा, हमारे यहां का गरम मौसम उसे भाप बनाकर उड़ा देगा, कि उसे पता नहीं है कि दक्षिण एशियाई लोगों में रोग से लड़ने की क्षमता कितनी जबर्दस्त है. यहां फिर वही आम बात कहने का लालच हो रहा है कि सच इन दो छोरों के बीच ही कहीं होना चाहिए. लेकिन ऐसा है नहीं.
क्योंकि यहां यह मान कर चला जा रहा है कि 1.36 अरब भारतीय अपने सामूहिक और व्यक्तिगत भविष्य को बचाने के लिए कुछ नहीं करेंगे. कोई भी देश आंकड़ेबाजों के उन मनमाने अनुमानों के आगे हथियार नहीं डाल देता, जिनमें लोगों और सरकारों के प्रयासों को शून्य मान लिया जाता है.
मैं उस पीढ़ी का हूं जिसने यह सब देखा है: तीन युद्ध— जिनमें से एक (1962) में हमारी अपमानजनक हार हुई थी और एक (1971) में महान विजय हुई थी— कई अकाल, हरित क्रांति, राशन के लिए लंबी लाइनें, ‘लाल’ अमेरिकी गेंहू—जिसके बारे मेरी मां हमेशा शिकायत करती थीं कि इसके आटे की रोटी बेलने में बहुत मुश्किल होती है.
चेचक की महामारियां, अलगावाद के चार उभार जिनमें उत्तर-पूर्व वाला शांत हो गया, पंजाब में आतंकवाद, कश्मीर की अटूट चुनौती, बाबरी मस्जिद विध्वंस, दशकों तक ‘हिंदू दर’ से आर्थिक वृद्धि, आर्थिक सुधार, बजाज स्कूटर के लिए 16 साल का इंतज़ार, हीरो कंपनी का दुनिया की सबसे बड़ी दोपहिया कंपनी बनना, अपनी शादी पर उपहार के तौर पर अपने स्थानीय सांसद कृष्णकांत (जो बाद में उप-राष्ट्रपति बने) से एलपीजी कनेक्शन का ‘वाउचर’ पाना, और अपने ही देश में इसके 10 करोड़ कनेक्शन मुफ्त में दिया जाना. यहां यह भी बता दें कि मुझे वह एलपीजी कनेक्शन कभी नहीं मिला क्योंकि सांसद महोदय का कोटा पहले ही खत्म हो चुका था.
मेरी पीढ़ी ने वह भारत भी देखा है जहां विदेश यात्रा के लिए 20 डॉलर का कोटा हासिल करने के लिए दर्जन भर फॉर्म भरने पड़ते थे, बड़ी लड़ाइयों की खबरें भेजने के लिए विदेश जाने वाले पत्रकारों को प्रतिदिन के खर्चे के लिए 165 डॉलर हासिल करने की मंजूरी पाने के लिए रिजर्व बैंक के आगे कतार में खड़ा होना पड़ता था, और आज का भारत भी देखा है, जहां आप विदेश यात्रा के दौरान अपने सामान्य बैंकिंग चैनेल से 2.5 लाख डॉलर आराम से खर्च कर सकते हैं. अपने इस अस्त-व्यस्त देश के बारे में एक बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि यह हमेशा परिवर्तनशील है, यह कभी निष्क्रिय नहीं होता. यह उत्तरी कोरिया नहीं है. उस देश के प्रति कोई बेअदबी न करते हुए मैं यही कहना चाहता हूं कि हम उतने अनुशासित नहीं हैं.
जहां तक रोगों और महामारियों की बात है, हमारे माता-पिता ने प्लेग की महामारी देखी जिसे हमारे समय तक परास्त कर लिया गया था, भले ही 1994 में सूरत में इसको लेकर थोड़ी अफरा-तफरी फैल गई थी. मेरी पीढ़ी के लोग अपनी बांह पर या नितंब पर चेचक के टीके के दो-तीन दाग ढोते रहे हैं. इस रोग को आखिर 1980 में उखाड़ फेंका हमने. उसके बाद से पैदा हुए, 40 की उम्र पार कर चुके भारतीयों को पता भी नहीं होगा कि ये दाग कैसे होते हैं.
खुद मैं, और तमाम उन छोटे शहरों के मेरी पीढ़ी के लोग खसरे, गलगंड, तीन बार मियादी बुखार के अलावा पता नहीं कितनी तरह की बीमारियां झेल चुके हैं, जिन शहरों के भीड़ भरे जर्जर अस्पताल में प्रायः एक ही ‘एमबीबीएस’ डॉक्टर हुआ करता था. वह आपके बुखार की जांच भी करता था, टूटी हुई हड्डी भी जोड़ता था, कुत्ते के काटे का इलाज भी करता था, आपकी मां की बांह पर दर्द भरी खराश को हर्पीज जोस्टर (दाद) बताकर उसका भी उपचार करता था. दाद की बात करें, तो इसके लिए आपकी उम्र इतनी होनी चाहिए थी कि आप चिक़ेन पॉक्स झेल चुके हों क्योंकि दाद का वायरस इसी पर सवार होकर आता था, दशकों तक बना रहता था और जब भी रोग से लड़ने की आपकी क्षमता कमजोर पड़ती या आप बूढ़े हो जाते तब फिर आपको दबोचता था. अब 30 साल से कम के किसी भारतीय को कभी दाद नहीं होती, क्योंकि उन्हें चिक़ेन पॉक्स नहीं होता. इसकी वजह यह है कि उसका टीका बन चुका है और वह हमारे व्यापक स्वास्थ्य कार्यक्रम में शामिल हो चुका है.
युद्ध के खेल बड़े रोमांचक होते हैं, खासकर तब जब कि उससे ज्यादा लोगों के मारे जाने, दुनिया को खत्म कर देने के दावे किए जा सकें. मरने वाले आपके लोग न हों तो और भी बढ़िया! इसके बारे में मैं ग्लोबल मीडिया में सुनता-पढ़ता हूं. बड़े अफसोस भरे अविश्वास से इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं— ‘भारत में इतनी कम मौतें कैसे?’ (रिचर्ड क्वेस्ट, पिछले सप्ताह सीएनएन पर).
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युद्ध के खेलों का इतिहास पढ़िए तो आपको पता चलेगा कि इस तरह के बुद्धिमान लोग गलत कैसे साबित होते हैं. दरअसल, वे इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि दूसरा पक्ष क्या कर रहा है. वह ‘दूसरा पक्ष’ हम हैं, भारत के लोग, हमारा लोकतंत्र, स्वतंत्र मीडिया, सिविल सोसाइटी, और हमारा शोर-शराबा. आप नरेंद्र मोदी को पसंद करें या न करें, मोदी का भी भारत माओ का चीन नहीं है, जहां लाखों लोग भूख और बीमारी से मर गए और उन्हें खाद की तरह जमीन में जोत दिया गया. इस भारत में आप अस्थायी मजदूरों को सैकड़ों मील दूर अपने घरों की ओर पैदल जाते, आपको बेचैन करते, और सरकारों को अपने लिए कुछ करने को मजबूर करते देख सकते हैं.
इसलिए, छोटा सा जवाब यही है कि भले हम सबको अंत में मरना है, पर हम हाथ पर हाथ धरे इंतज़ार नहीं करेंगे बल्कि इस ‘जीवन’ को लंबा खींचने के लिए कुछ-न-कुछ करते रहेंगे. बस हमें अपने आने वाले कल को बेहतर बनाने के लिए आज का पूरा उपयोग करने की जरूरत है. हम टीबी, नेत्रहीनता, गर्भाशय के कैंसर, और रेबीज़ जैसी नकारात्मक बीमारियों को जड़ से खत्म करने की ओर बढ़ सकते हैं जिनमें अफसोस कि हम दुनिया में सबसे आगे हैं.
क्योंकि, याद रहे कि कल तो आता ही है.
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