चीन के किसी डिप्लोमैट ने भारतीय डिप्लोमेसी का मजाक उड़ाते हुए कभी कहा था; ‘वे (भारतीय) किसी मुद्दे पर बात करते हैं और फिर बात करते हैं और फिर बात करते हैं. बस बात ही करते रहते हैं, समाधान तक नही पहुंचते.’ बात कड़वी है पर पूरी तरह असत्य नहीं. किसी भी गम्भीर समस्या के समाधान के लिए जिस इच्छा शक्ति की ज़रूरत होती है, वह हमारे भीतर संपूर्णता में नहीं है.
पलायनवाद हमारा चिन्तन चरित्र बन चुका है. हम पेन किलर खा कर अपनी बीमारी को छिपाने वाले राष्ट्र में तब्दील हो गए हैं. हम यह नहीं समझते कि इस तरह ही फुंसी, भगन्दर में तब्दील हो जाती है. 1947 में कश्मीर की समस्या फुंसी ही थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तब उस फुंसी का इलाज करने की जगह धारा 370 का पेन किलर लेना ठीक समझा. उस समय भी भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इस समस्या को समझा था लेकिन उन्हें पेन किलर नीति के विरोध की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी. पेन किलर से कश्मीर की बीमारी को दबाने की जो आदत 70 वर्ष पहले लगी, वह आज तक जारी है. नतीजा यह हुआ कि इलाज के अभाव में यह छोटी सी बीमारी आज विकराल रूप धारण कर चुकी है और इसका कोई सरल समाधान भारत के पास नहीं दिखता है.
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पुलवामा एक ऐसी घटना है, जिसने हमें झकझोर कर रख दिया है. लेकिन यह आशंका अकारण नहीं है कि हम इसे भी भूल ही जाएंगे. क्या हम 2008 का मुंम्बई कांड नही भूल गए हैं? क्या हमें भारतीय संसद पर हुआ हमला याद है? क्या हमें कारगिल याद है? क्या हमें 1965 याद है? क्या हम खालिस्तान आंदोलन भूल नहीं गए? और क्या हम विभाजन को याद करते हैं? भगवान राम के उत्तराधिकारी और ज्येष्ठ पुत्र लव के बसाये नगरी लाहौर में अब मन्दिरों की घंटियां नहीं बजती. वहां न कोई वेदपाठी ज़िंदा बचा है, न कोई रामायण का पाठ करता है. क्या हम शर्मिंदा हैं, क्योंकि ये सब हमारे आंखों के सामने हुआ है? नहीं क्योंकि हिंदुओं की स्मृति में कुछ नही रहता. फिर हमारे पास याद करने को इतना कुछ है कि हमने सब कुछ भूलना ही बेहतर समझा है.
कश्मीर समस्या कोई जमीन का झगड़ा नही है. पाकिस्तान हमसे कश्मीर पर इसलिए नहीं लड़ रहा कि उसे कश्मीर मिलने की उम्मीद है. पकिस्तान इसलिए लड़ रहा है, क्योंकि वह चाहता है कि भारत के माथे पर कश्मीर का घाव कभी सूखने न पाए और भारत अपने संसाधनों और अपनी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा इस पर खर्च करता रहे. परमाणु शक्ति हासिल करने के बाद से पाकिस्तान यह भी मानता है कि भारत के साथ उसके पारम्परिक युद्ध की सम्भावनाएं समाप्त हो चुकी हैं. वह यह भी मानता है कि मुम्बई, उड़ी और पुलवामा जैसे हमलों का जवाब देने का कोई ठोस तरीका भारत के पास नहीं है. ये सारी लड़ाइयां वह हमारी जमीन पर ही लड़ता है.
इसीलिए यदि 10 में से 1 बार भी उसे सफलता मिले तो नुकसान भारत का ही होता है. इसमें पाकिस्तान का कैलक्युलेटेड रिस्क है और उतना खतरा उठाने को वह तैयार है. याद करें तो 2001 में भारतीय संसद पर हुए हमले के बाद भारत ने ऑपेरशन पराक्रम आरम्भ किया और अपनी सेना को भारत पाक सीमा पर ले गया. लेकिन कोई युद्ध नहीं हुआ. इससे पाकिस्तान को यह भरोसा हो गया कि भारत कभी भी पाकिस्तान पर खुले तौर पर सैन्य कार्यवाही नहीं करेगा. उसका यह भरोसा पिछले 17 वर्षों में सही ही साबित हुआ है. पाकिस्तान के इस विश्वास को तोड़ने का कोई उपाय आज भी व्यावहारिक धरातल पर हमारे पास नहीं दिखता है.
कश्मीर में जो चरमपंथी हैं, वे पाकिस्तान की तरफ इसलिए नहीं झुके हुए हैं कि पाकिस्तान में उन्हें बेहतर अधिकार और सुविधाएं हासिल होंगी. वे तो पाकिस्तान के गीत इसलिए गा रहे हैं, क्योंकि उन्हें हर कीमत पर इस्लामिक मुल्क का हिस्सा होना है. वे लोकतांत्रिक और सेक्युलर ढांचे के अंदर नहीं रहना चाहते. उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पाकिस्तान में बलोची, सिंधी, पख्तून और मुहाजिर किस बेरहमी से मारे जा रहे हैं और गायब कर दिए जा रहे हैं.
लेकिन भारत का नेतृत्व और भारत की जनता इस मसले को क्या इस तरह से देखती भी है? क्या सरकार यह मानती है कि कश्मीर में जो हो रहा है, वह मजहबी उन्माद और जिहाद है? हमारा राजनीतिक नेतृत्व इस सत्य को जानता है, लेकिन स्वीकार करने का साहस नहीं रखता. स्वीकारोक्ति के अभाव में हम इस समस्या के स्थायी समाधान की ओर सोचते भी नही हैं. परिणामस्वरूप कश्मीर की समस्या 70 सालों में बद से बदतर होती गई है. कश्मीर के मसले पर भारत की हालत एक ऐसे विद्यार्थी की रही है जो किसी भी तरह परीक्षा उत्तीर्ण कर अगली कक्षा में जाने की रुचि रखता है. भारत कश्मीर की समस्या पर उतना ही करता है जिससे कश्मीर भारत का हिस्सा बना रहे, लेकिन वह करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाता, जिससे जम्मू-कश्मीर भारत का सामान्य प्रदेश बन सके.
कश्मीर पर दो नीतियां हैं. एक नेहरू की नीति है जिसे हम पेन किलर नीति कह सकते हैं. 70 सालों में इस नीति ने देश को क्या दिया है, यह पूरा देश देख ही रहा है. इसी नीति के तहत कभी हम वार्ता का राजनीतिक राग अलापते हैं तो कभी सैनिक समाधान खोजते हैं. वार्ता किस मुद्दे पर होगी, किन किन पक्षों के साथ होगी, इस पर कोई स्पष्टता नहीं दिखती. वार्ताकार नियुक्ति की तमाम खबरें हम सुनते हैं पर उस वार्ताकार के उद्यम का कोई परिणाम विरले ही पब्लिक डोमेन में आता है. अन्दरखाने से ऐसी खबरें छन छन कर आती हैं कि हुर्रियत नेताओं को कुछ फेवर्स मिल गए. यह कहना कि कश्मीर समस्या सुलझाने की नीयत ही नहीं रही, ऐसा कहना उनके साथ अन्याय होगा, जिन्होंने थोड़ी भी इच्छाशक्ति दिखायी हो. लेकिन राजनीतिक और सैनिक समाधान के द्वंद्व में डेमोग्राफी के सामाजिक कोण पर शायद ही किसी ने गंभीरता से सोचा.
दूसरी नीति डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की है. वह बीमारी को समझकर उसका उपचार करके उससे निजात पाने की नीति है. ऐसा इसलिए है कि समस्या के राजनीतिक पहलू को वह सामाजिक नजरिये से भी देख सके. भारतीय जनसंघ की उत्तराधिकारी पार्टी भाजपा ने केंद्र में लगभग 11 वर्ष शासन तो किया है, लेकिन कश्मीर पर ये भी कमोबेश नेहरू की पेन किलर नीति पर ही चले हैं.
अब समय आ गया है कि देश डॉ. मुखर्जी की नीति का अनुसरण करने का साहस दिखाए. डॉ मुखर्जी ने दो प्रधान, दो निशान और दो विधान का विरोध किया था. इस विरोध की कीमत उन्हें जान देकर चुकानी पड़ी. वे कश्मीर के पहले हुतात्मा थे. आज दो प्रधान तो नही हैं, लेकिन आर्टिकल 370 के रूप में दो विधान और कश्मीर के अलग ध्वज के रूप में दो निशान मौजूद हैं. इस दो निशान और दो विधान को समाप्त करना ही कश्मीर समस्या के समाधान की दिशा में पहला कदम होगा.
क्या यह विडंबना नहीं है कि जिस कश्मीर की भूमि के लिए भारतीय सैनिक जान दे सकता है, उस कश्मीर में वह बस नहीं सकता. कश्मीर की भूमि की रक्षा तो भारतीयों का कर्तव्य है, लेकिन उस भूमि पर उसका अधिकार नहीं है. यह विरोधाभास समाप्त होना चाहिए. भारत इस मामले में चीन से सीख सकता है. चीन के शिनजियांग प्रान्त में वहाबी इस्लाम के विस्तार के साथ उईगर मुसलमानों में अलगाववाद की आग बढ़ने लगी.
चीन ने इस समस्या को प्रारम्भिक स्तर पर ही चिन्ह्ति कर लिया और समाधान की दिशा में कठोर और योजनाबद्ध कदम उठाए. सबसे पहले चीन ने अपने सबसे बड़े और मूल एथिनिक समुदाय हान समुदाय को उईगर प्रभाव वाले इलाकों में बसाया. इसका नतीजा यह हुआ कि शिनजियांग प्रान्त की डेमोग्राफी हमेशा के लिए बदल गई. इस बदलाव ने उईगर मुसलमानों के आत्मविश्वास को तोड़कर रख दिया. इसके बाद उसने उईगर मुसलमानों को वहाबी सोच से दूर करने के लिए एक नए किस्म का सोशलिस्ट इस्लाम पेश किया. आश्चर्य नहीं कि इन सबसे शिनजियांग की समस्या बहुत हद तक समाप्त हो चुकी है.
भारत यदि इस मामले में चीन से सीख लेता है तो अगले दो दशक में कश्मीर समस्या लगभग समाप्त हो जाएगी. कश्मीर की डेमोग्राफी बदले बिना कश्मीर समस्या का समाधान सम्भव नहीं है. यदि कश्मीर में भारत विरोधी लोग होंगे तो उनका उपयोग पाकिस्तान करता रहेगा. कल को पाकिस्तान उनका उपयोग नहीं करे तो चीन करेगा. यह कैसे संभव है कि किसी भी सीमाई प्रान्त में राष्ट्रविरोधी तत्व भारी संख्या में मौजूद हों और आपके प्रतिद्वंदी और शत्रु उनका उपयोग न करें.
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प्रथम चरण में कश्मीर में बड़ी संख्या में उद्यम लगाए जाएं और उनमें पूर्व सैनिकों और अर्द्धसैनिक बलों के परिवारजनों को काम करने का मौका दिया जाए. कश्मीर में वीरगति प्राप्त करने वाले सैनिकों के परिवार को वहां की भूमि दी जाए. द्वितीय चरण में देश के प्रत्येक कोने से लोगों को कश्मीर में रहने, बसने और काम करने को प्रोत्साहित किया जाए. इस तरह एक दशक बीतते बीतते कश्मीर की डेमोग्राफी में भारी बदलाव आ जायेगा.
दूसरा काम कश्मीर के वहाबी मदरसों और मस्जिदों पर रोक लगाया जाना चाहिए. इससे वहाबी इस्लाम के जहर से कश्मीर की आने वाली नस्लें बच सकेंगी और एक बेहतर नागरिक बन सकेंगी. इन बदलावों के बिना इस बीमारी का कोई उपचार संभव नही रह गया है. जिस लोकतंत्र और सेक्युलरिज्म को भारत हर मर्ज की दवा मानता है, उसे कश्मीर के अलगाववादी हुर्रियत नेता गैर-इस्लामिक मानते हैं. यहां यह कहना भी जरूरी है कि मसले का सिर्फ सैनिक समाधान ढ़ूंढ़ने वाले आज तक इसकी कोई संभावित तार्किक परिणति बताने में असफल रहे हैं, बस हवा में तलवारें भांजी जाती हैं. पिछले 70 वर्षों में कश्मीर में बहुत पानी बह चुका है.
भारतीय नेतृत्व अपनी सोच बदले, उसे समग्र बनाए और बीमारी को समझे तो ही उपचार संभव है. कश्मीर का जो भी समाधान होगा, वह यथार्थ के धरातल पर ही होगा. लेकिन कश्मीर की डेमोग्राफी बदले बिना इस समस्या का कोई समाधान सम्भव नहीं हो सकेगा. इस मुद्दे पर जितनी देरी होगी, समस्या उतनी ही बढ़ती जाएगी.
(लेखक एक कंपनी के वित्त विभाग में कार्यरत हैं और www.lopak.in में स्तंभकार है.)