उस व्यक्ति के बारे में सोचिये जो सिर्फ सात महीने के लिए प्रधानमंत्री बने हों, जिसमें से तीन महीने वह एक कामचलाऊ सरकार के मुखिया थे।
हमारे जीवनकाल की राजनीति पर एक मुश्किल प्रश्न: हमारे इतिहास में सबसे कमजोर प्रधानमंत्री कौन होना चाहिए था? मुश्किल, क्योंकि यहाँ ट्विस्ट है: और फिर भी सबसे मजबूत प्रधानमंत्री नज़र आये? मैं आपको एक और सुराग देता हूँ: 8 जुलाई को पूछने के लिए यह एक अच्छा सवाल है।
उस व्यक्ति के बारे में सोचिये जो सिर्फ सात महीने के लिए प्रधानमंत्री बने थे, जिसमें से तीन महीने वह एक कामचलाऊ सरकार के मुखिया थे। यानि की प्रभावी रूप से वह सिर्फ चार महीनों तक ही सत्ता में थे। लोकसभा में उनके पास सिर्फ 54 सांसद थे, जो कि सरकार बनाने के लिए कैसे भी पर्याप्त नहीं थे और दूसरी तरफ कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था| क्या वह एक बढ़िया समीकरण नहीं था।
इस प्रधानमंत्री ने इस प्रकार के निर्णय लिए जो पांच वर्ष के कार्यकाल वाली पूर्ण बहुमत की सरकारें भी नहीं ले पायीं। उन्होंने अमेरिकी सैन्य विमानों को सद्दाम हुसैन के खिलाफ पहले खाड़ी युद्ध में (कुवैत को मुक्त करने के लिए) भाग लेने के लिए ईंधन भरने की अनुमति दी क्योंकि वे हिन्द महासागर के अपने अड्डों से उड़ान भरते थे। उनके बाद पूर्णकालीन अवधियों के तीन प्रधानमंत्री अमेरिका के साथ एक सैन्य रसद मदद समझौते पर हस्ताक्षर करने में दुविधाग्रस्त रहे। दरअसल, कांग्रेस ने संसद में हंगामा किया था। विदेशी भुगतान की कमी से बचने के लिए उन्होंने एक हवाईजहाज भर के सोना बाहर भेजा था। वह बाद में सुधारों को आसान बनाते हुए मनमोहन सिंह को “सिस्टम” में वापस लाये। उन्होंने यशवंत सिन्हा का अपने वित्त मंत्री के रूप में राजनीति में पदार्पण कराया और उनसे सुधार का खाका तैयार करवाया। दूसरी चीजों की तरह उनकी दुर्भाग्यपूर्ण रूप से कम विख्यात जिंदगी में, इन दो लम्बी दूरी के धावकों को ढूँढने के पीछे दो कहानियां छिपी हुई हैं। यशवंत सिन्हा याद करते हैं कि वह पहली बार चंद्रशेखर से मिले थे जब दोनों बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री करपूरी ठाकुर से मिलने गए थे। बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी सिन्हा जो अब भूतल परिवहन संयुक्त सचिव हैं, छोड़कर जाने और स्वैच्छिक क्षेत्र में काम करने की योजना बना रहे थे।
उन्हें पता ही नहीं था कि चन्द्रशेखर उनका चयन कर चुके थे। चंद्रशेखर ने उन्हें घर पर बुलाया और भाषण दिया: एक एनजीओ में, वह एक या दो गांवों को बदल सकते थे। लेकिन पैमाने पर बदलाव लाने के लिए, उन्हें राजनीति में शामिल होना चाहिए। सिन्हा 1984 के दिल्ली के सिख पीड़ितों के लिए चन्द्रशेखर और जॉर्ज फर्नांडीस द्वारा संचालित राहत शिविरों में कार्य करने के बाद राजनीति में शामिल हो गये।
और मनमोहन सिंह कहां से आए थे? सिन्हा कहते हैं कि चंद्रशेखर चिंतित थे कि उनके कैबिनेट में कोई सिख नहीं था और यह एक संवेदनशील अंतर था। इसलिए उन्होंने सिंह को नियुक्त किया, जो दक्षिण आयोग में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में अपने कार्यकाल से वापस आये थे| और उन्हें कैबिनेट की बैठकों में नियमित रूप से बुलाने लगे। इसने कुछ ही महीनों बाद पीवी नरसिम्हा राव के लिए वित्त मंत्री के रूप में उन्हें उड़ान दी। उन्होंने एक सबसे जटिल परिवर्तनकाल की अध्यक्षता की और उस अवधि में स्थिरता बनाये रखी जिस समय बहुत लोगों ने भारत की सबसे बुरी स्थिति की कल्पना की थी। मध्यकालीन चुनावों के दौरान राजीव गाँधी की हत्या कर दी गयी थी। ये चुनाव इसलिए हुए थे क्योंकि कांग्रेस ने उनसे समर्थन वापस ले लिया था वह भी यह अविश्वसनीय कारण देते हुए कि उन्होंने गांधियों की जासूसी करने के लिए हरियाणा के दो पुलिसकर्मियों को भेजा था। मुझे यकीन है आपने अनुमान लगा लिया है कि हम किसके बारे में बात कर रहे हैं। 8 जुलाई चंद्रशेखर की पुण्यतिथि की तारीख है। 2007 में इसी दिन उनका निधन हुआ था।
1991 के चुनावों में उनका नारा था, “चालीस साल बनाम चार महीने”। इस पुराने समाजवादी को पता था कि उनके लिए कोई मौका नहीं था लेकिन वह बाध्यकारी रूप से मुखर थे। कुलदीप नायर ने तब कहा था, “क्या वह सच नहीं बोल रहे हैं? कांग्रेस के लोगों ने 40 वर्षों में जो किया, उनके लोग शायद चार महीनों में कर सकते हैं!” अपनी 54 सदस्यीय संसदीय ताकत और अपने स्वयं के हाथों में सत्ता के सकेन्द्रण के साथ (उन्होंने गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय भी अपने पास रखा था) उन्होंने अपने विरोधियों से एक नारा प्राप्त किया: अलीबाबा और चालीस चोर।
नहीं, चन्द्रशेखर कोई फ़रिश्ते नहीं थे। उनके बारे में बहुत कुछ था जो दोषयुक्त था जैसे उनकी व्यक्तिगत जीवनशैली, राजनीतिक स्वार्थ और उनके कुटिल ट्रस्ट, जो थोडा-बहुत बीएसएफ की जमीन पर भी अतिक्रमण कर रहा था, के नाम पर हरियाणा के भोंडसी गाँव (दिल्ली से 40 किमी) में उनका साम्राज्य आदि। लेकिन वह एक मजबूत, वैचारिक और लचीलेपन को समझने वाले बुद्धिमान व्यक्ति एवं एक जन्मजात नेता थे।
अपने कुछ ही महीनों में वह इंदिरा गाँधी के बाद के ज्यादातर प्रधानमंत्रियों की तुलना में अधिक मजबूत प्रधानमंत्री थे। सैफुद्दीन सोज़ से पूछिए। जब उनकी बेटी का कश्मीरी अलगाववादियों द्वारा अपहरण कर लिया गया था, तब चन्द्रशेखर ने नवाज़ शरीफ को अनचाही कॉल की थी और राजी करने के ढंग से लेकिन दृढ़तापूर्वक यह सुनिश्चित करने को कहा था कि लड़की को सुरक्षित रूप से उसके घर वापस भेजा जाए। तब किसी भी प्रकार का आदान-प्रदान अस्तित्व में नहीं था। वह हमारे सभी अल्पावधि प्रधानमंत्रियों में सबसे ज्यादा छाप छोड़ने वाले प्रधानमंत्री थे, जिनकी लोकसभा में ताकत 10 प्रतिशत से भी कम थी।
एक चुनाव, जो राजीव की हत्या के बाद दो टुकड़ों में बंट गया था, में पराजित होने और नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार को सत्ता सौंपने के बाद वह एक आरामदायक – शायद रंगमय हो – व्यक्तिगत जीवन के लिए सेवानिवृत्त हो गये। कभी एक दोस्त या दुश्मन के लिए रूकावट नहीं थे लेकिन सबके दोस्त थे। आमतौर पर रचनात्मक, सहायक, प्रभावी सलाहकार।
मैंने उन्हें एक फायरब्रांड युवा समाजवादी के रूप में देखा और सुना था जब वह आपातकाल के बाद इंदिरा गाँधी के खिलाफ अभियान का नेतृत्व कर रहे थे। मैं उस समय पत्रकारिता एक छात्र ही था। उन्होंने एक लोहियावादी के रूप में शुरुआत की, कांग्रेस की तरफ गये क्योंकि इंदिरा समाजवादी बन गयी थीं, फिर उन्होंने इंदिरा से सवाल पूछ रहे युवा तुर्कों के एक चार सदस्यीय समूह का नेतृत्व किया जिसमें अन्य तीन लोग थे कृष्णकांत, मोहन धारिया और राम धन। उन चारों लोगों को आपातकाल के दौरान निष्काषित कर दिया गया था और जेल भेज दिया गया था। उसके बाद उनके पास एक अपूर्ण राजनीतिक प्रलोभन था। उनका मानना था कि वी.पी. सिंह, जो कि उनकी नज़र में एक “पाखंडी” थे, ने वह प्रशंसा हथियाई थी जो उन्हें मिलनी चाहिए थी।
मैं उन्हें उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल के चरण के बाद से ज्यादा जान पाया जब उनके पास समय और धैर्य था। मैं कई बार उन्हें देखने गया जब वह एकाधिक माइलोमा के एक भयानक दर्द से जूझ रहे थे। यहाँ तक कि उस हालत में भी, उन्होंने हमारी राजनीति में जो सबसे खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में देखा था वह उस पर हमेशा झल्लाते थे। वह प्रवृत्ति थी अलग-अलग दलों के नेताओं का एक दूसरे से बात न करना।
वह कहते थे कि भाजपा और कांग्रेस ने बातचीत करनी बंद कर दी है। वामी भाजपा से किसी भी तरीके से बात नहीं करेंगे तथा लालू और मुलायम एक दूसरे से दूर रहेंगे, ऐसा ही मुलायम और मायावती के बीच भी होगा। करूणानिधि और जयललिता एक दूसरे को दुआ-सलाम तक नहीं करेंगे। जब मैं फरवरी 2007 में उनकी सेहत का जायजा लेने गया तो उन्होंने कहा, “भारतीय राजनीति को चलाने का यह कोई तरीका नहीं है। ऐसा तब भी नहीं था जब आपातकाल समाप्त हुआ था और हम में से कई लोग इंदिरा की जेलों से बाहर आये थे।
वह खुश थे जब 2004 में एनडीए को हार मिली थी और सोनिया गाँधी ने “बुद्धिमानी और उदारतापूर्वक” प्रधानमंत्री न बनने का फैसला किया था क्योंकि इस निर्णय ने भारत को विभाजित कर दिया होता और इसकी राजनीति में कड़वाहट घोल देता। लेकिन उनके जैसा एक अनुभवी भी इस बात से आश्चर्यचकित था कि संसद अब कितनी ध्रुवीकृत हो गयी थी। उन्होंने कहा कि इस दर के साथ 2009 में एक और गठबंधन बनाना असंभव हो सकता है। वी.पी. सिंह या गौड़ा जैसे लोगों के साथ गठबंधन बनाने का क्या मतलब है जो कुछ ही दिनों में समाप्त हो जायेगा, वह भी वैचारिक मतभेदों के कारण कम बल्कि व्यक्तिगत प्रतिद्वंदिता के कारण ज्यादा।
उन्होंने कहा, अतीत के कई सबसे कड़वे समय में राजनीतिक दलों और गंभीर खिलाडियों के बीच परामर्श की प्रक्रिया भंग नहीं हुई थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि सामाजिक तौर-तरीका जैसे सुबह शाम का उठाना-बैठना लुप्त नहीं हुआ था। लेकिन अब, वह इस बात से हताश थे कि राजनीति कितनी विभाजित हो चुकी थी। उन्होंने कहा कि उन्हें ठीक-ठीक पता नहीं था कि परमाणु मुद्दे पर पाकिस्तान या अमेरिका के साथ चर्चा का रुख क्या था लेकिन वह इस सरकार पर भारत के हितों के साथ-साथ अन्य लोगों की देखभाल करने का भरोसा करते थे। लेकिन क्या वे एनडीए को साथ लिए बिना किसी भी चीज को तय या निर्धारित करने में सक्षम होंगे?
तब से कई जीवनी-सम्बन्धी श्रद्धांजलियाँ उस व्यक्ति के लिए लिखी जा चुकी हैं जो एक संयोगवश प्रधानमंत्री से कहीं अधिक थे और जिन्हें इंदिरा युग के आखिरी महान असाधारण व्यक्तियों में से एक के रूप में याद किया जायेगा जो एक ही समय में एक विनाशक भी थे और समझौताकार भी थे। मैं एक और श्रृद्धांजलि लिखने के लिए योग्य नहीं हूँ। शायद यशवंत सिन्हा या सुब्रमनियन स्वामी (वह चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल वाणिज्य और कानून मंत्री थे) को कुछ लिखना चाहिए।
मैं उनकी सफलता के दिनों में राष्ट्रीय राजनीति को कवर नहीं कर रहा था और मैंने उनके बारे में हाल ही में जाना था क्योंकि उनके पास बाद में अधिक समय था और यदि आप भारतीय राजनीति के बारे में जानने की जिज्ञासा रखते हों तो उनसे बेहतर कोई और शिक्षक नहीं था। पिछले कुछ सालों में उनके पास राजनीति का एक अलग दृष्टिकोण था। राजनीति में उनके लिए जो कुछ भी दांव पर था वह थी उनकी एकमात्र बलिया लोकसभा सीट, जिसके बारे में, ऐसा प्रतीत होता है, कि इसे सभी अन्य पार्टियों ने उनके अकेले के लिए छोड़ने की साजिश की थी। वह एक बहुत असामान्य, बहुत गर्मजोशी वाले और विशिष्ट व्यक्ति थे, और हाल ही के एक सबसे अहानिकर राजनेता जिन्हें संसद से बाहर रखा गया था।
उन्होंने भारत के क्रम-विकास को समाजवाद से लेकर एक मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था तक देखा था। असल में उन्होंने उस प्रक्रिया को बातचीत करने के तरीके से शुरू किया क्योंकि उन्हें वी.पी. सिंह से दिवालिया राजकोष विरासत में मिला था। वह जानते थे कि जिस तरह के समाजवाद में वह यकीन रखते हैं, जो इंदिरा के बजाय जेपी के करीब था, वह अब अप्रचलित था। लेकिन वह कभी भी द्वेषपूर्ण नहीं थे। उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया कि लोहियावादियों सहित सभी पुराने समाजवादियों ने अब वास्तविकता स्वीकार कर ली थी। लेकिन यदि केवल मुलायम, लालू मायावती और नितीश किसी तरह से एक साथ आ जाते! तो वह अब उन समीकरणों में नवीनतम परिवर्तनों से प्रसन्न होते।
आखिरी बार जब मैं उनसे मिला था तो उन्होंने मजाक उड़ाया था कि कैसे भारत की अर्थव्यवस्था के साथ समय में बदलाव आ चुका है।
उन्होंने कहा, एक समय था जब विदेशी मुद्रा भण्डार इतना कम था कि उन्हें भारत के स्वर्ण भंडार को गिरवी रखना पड़ा था। “अब वे कहते हैं कि उनके पास बहुत अधिक विदेशी मुद्रा भंडार है। इतना अधिक है कि उन्हें पता ही नहीं कि इसका करना क्या है, तो क्या वे इसे हवाई जहाज में भरकर बाहर भेज देंगे, या क्या करेंगे?” लेकिन इसे उन्होंने एक क्षण के लिए भी लम्बे समय से चली आ रही अपनी समाजवादी मान्यताओं के लिए किसी हार की तरह नहीं देखा। अपने पलंग से ही सिर्फ एक बच्चे की तरह हँसे।
चंद्रशेखर शायद हमारी राजनीति में अंतिम महान व्यक्तियों में से थे जिन्होंने तस्वीर के सभी पहलुओं को देखा था और बहुत कठोर, परंतु बहुत ही विनम्र नेताओं, जो उस समय तक सबके साथ जुड़ने के लिए जूझ रहे थे, की एक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व किया था।
उपसंहारः चंद्रशेखर मेरे लिए एक रहस्य छोड़ गए, जिस पर से पर्दा केवल सोनिया गाँधी ही उठा सकती हैं। उन्होंने मुझसे कहा था, जब अटल बिहारी वाजपेयी 2004 में हारने के बाद राष्ट्रपति भवन में सोनिया गांधी से मिले थे, तो उन्होंने स्नेहपूर्वक उन्हें प्रधानमंत्री न बनने की सलाह दी थी। उन्होंने कहा कि अटलजी के विचार थे, “अनर्थ हो जायेगा” क्योंकि कोई भी इसे स्वीकार नहीं करेगा और न ही उन्हें शासन करने देगा। बाद में मैंने वाजपेयी से पूछा कि क्या यह सच था। आदतन उन्होंने अपनी भौहें मरोड़ते हुए पूछा कि मुझे किसने बताया था। मैंने कहा चंद्रशेखर ने। तो उन्होंने बस इतना ही कहा, “बहुत शैतान हैं वह”, लेकिन सवाल का जवाब नहीं दिया। चंद्रशेखर जा चुके हैं, वाजपेयी चुप हो चुके हैं। अब जवाब केवल सोनिया के पास है।
Read in English : Who should’ve been the weakest, but turned out to be most decisive Indian prime minister?