हिंदू दक्षिणपंथी और लिबरल्स दोनों शाह बानो फ्लिप-फ्लॉप के लिए राजीव गांधी को दोषी ठहराते हैं और उन्हें अल्पसंख्यक के तुष्टिकरण में शामिल होने का आरोप लगाते हैं।
लोकप्रिय धारणा के विपरीत, 1985-86 में शाह बानो मामले में राजीव गांधी ने अपने मंत्री जियाउर रहमान अंसारी को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए मैदान में नहीं उतारा था। शाह बानो प्रकरण के दौरान मुस्लिम रूढ़िवादियों के समक्ष आत्मसमर्पण करने में उनकी भूमिका पर बहुत लंबे समय तक, भारतीयों द्वारा राजीव की निंदा की गई।
लेकिन अंसारी के बेटे की एक नई किताब कहती है कि यह मामला कुछ और था।
विंग्स ऑफ़ डेस्टिनी: ज़ियाउर रहमान अंसारी – ए लाइफ (हाइब्रो स्क्राइब्स पब्लिकेशंस, 2018), नामक आगामी पुस्तक में कनाडा में रहने वाले अंसारी के बेटे फसीहुर रहमान का दावा है कि वास्तव में धार्मिक उत्साह से प्रेरित और इस्तीफ़े के साथ हथियारबंद उनके पिता ने, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए राजीव ने बहकाया था।
अंसारी ने राजीव को सूचित किया कि वह 23 अप्रैल 1985 को मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़, जस्टिस रंगनाथ मिश्रा, डी.ए. देसाई, ओ. चिन्नप्पा रेड्डी और ई.एस. वेंकटरमैया की पाँच न्यायाधीशीय संविधान बेंच द्वारा दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देंगे।
एक प्रशिक्षित पर्यावरणीय वैज्ञानिक और कनाडा के ओकानागन कैंपस, ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के एक सदस्य फसीहुर, इस पुस्तक में लिखते हैं कि एक “पूर्वकल्पित धारणा” आज तक प्रभावशाली रही है, कि अंसारी को निर्णय के खिलाफ बोलने के लिए राजीव गाँधी या कांग्रेस पार्टी ने ही उकसाया था।
हिन्दू दक्षिणपंथी तथा उदारवादी दोनों ही राजीव गांधी को अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और अंसारी तथा ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रतिनिधित्व वाले रूढ़िवादी मुस्लिम पुरोहित वर्ग के सामने झुकने का आरोप लगाते हुए शाह बानो मामले को पूर्णतया बदलने का दोषी ठहराते हैं। शाहबानो मामले में उनके रुख ने भारत में कंप्यूटर युग और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी मिशन जैसी उनकी अन्य उपलब्धियों को प्रभावित किया था।
एक साल की बहस के बाद, मुस्लिमों और उलमाओं के दबाव के कारण राजीव गांधी सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने करने के लिए मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 लाई। मुस्लिमों और उलमाओं ने कहा था कि अदालत का फैसला शरीयत के खिलाफ था।
फसीहुर ने पुस्तक में द टेलीग्राफ(कलकत्ता) से उद्धृत किया है: “कांग्रेस (।) ने संसद में आरिफ मोहम्मद खान के दावे का विरोध करने के लिए और मंत्री श्री जेड आर अंसारी को मैदान में उतारने का फैसला किया।” उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय का हवाला देते हुए बताया कि “बिना किसी संदेह के यह स्पष्ट है कि श्री गांधी ने श्री अंसारी को आगे जाने का संकेत दिया। सीधे तौर पर कहा जाए तो श्री अंसारी भी अपनी पहल पर काम नहीं कर रहे थे।”
फसीहुर के मुताबिक, अगर राजीव उनके पिता को संसद में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ बोलने की अनुमति न देते तो उनके पिता केन्द्रीय मंत्री मंडल से इस्तीफा देने के लिए तैयार थे। फसीहुर लिखते हैं, “शाह बानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संबंधित बहस में राजीव गाँधी या कांग्रेस पार्टी के आदेश पर जियाउर रहमान के हस्तक्षेप में इस तरह की पूर्वकल्पनाओं में जर्रा बराबर भी सच्चाई नहीं थी। बहस में उनका हस्तक्षेप उनके विवेक से प्रेरित व्यक्तिगत निर्णय था। न तो राजीव गाँधी और न ही कांग्रेस पार्टी ने उनसे बात कनरे को कहा था जैसा कि विभिन्न लेखों में दावा किया जा गया है।”
अजीज कुरैशी, जो बाद में यूपीए के शासन के दौरान उत्तराखंड के गवर्नर बने, इस अंसारी-गांधी बैठक में भी मौजूद थे।
कुरैशी का हवाला देते हुए लेखक लिखते हैं: “माननीय राजीव गांधी ने त्यागपत्र लिया, उसे फाड़ा और एक कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। राजीव गांधी ने जियाउर रहमान से पूछा, आपको बोलने से कौन रोक रहा है? गांधी ने आगे कहा, डॉ. अजीज कुरैशी के अनुसार (इस प्रकार) अब हमारे कितने शुभचिंतक बचे हैं।”
फसीहुर का विवरण वजाहत हबीबुल्लाह के विवरण जो कि उन्होंने दो साल पहले बताया था से थोड़ा सा अलग है। हबीबुल्लाह के विवरण के अनुसार, वह एम.जे. अकबर थे जिन्होंने राजीव को मुस्लिम पादरी के उद्देश्य का समर्थन करने के लिए प्रभावित किया था।
उन्होंने बताया, “फिर, एक दिन जब मैंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कक्ष में प्रवेश किया, तो मैंने पाया कि एम.जे. अकबर उनके सामने बैठे थे, राजीव खुशी से मुस्कुराकर बोले कि अंदर आओ, वजाहत आ जाओ, आप हम में से एक ही हैं।” हबीबुल्लाह ने स्मरण किया कि उन्होंने राजीव का अभिवादन कुछ “विचित्र” पाया था लेकिन जल्दी ही वे कारण जान गए थे। हबीबुल्लाह ने आगे बताया, “श्रीमान अकबर ने राजीव को आश्वस्त किया था कि यदि सरकार ने शाह बानो के फैसले को चुनौती नहीं दी, तो मुस्लिम समुदाय को ऐसा लगेगा कि प्रधान मंत्री ने उन्हें अपना नहीं मानते। जिसमें उन्होंने महसूस किया कि अपने धार्मिक अधिकारों की रक्षा के रूप में राजीव स्वयं को उस समर्थन के योग्य दिखाएंगे जिसे समुदाय ने हमेशा उनके परिवार पर बरकारार रखा था। यह श्रीमान अकबर तत्कालीन मंत्री आरिफ मोहम्मद खान के साथ जब दूरदर्शन की वार्ता में शामिल हुए तब सामने आया, जिसमें श्री खान ने तर्क दिया था कि कुरान संबंधी सामग्री अथवा रखरखाव के लिए इसकी कमी न तो कोई विवशता थी और न ही स्पष्टीकरण के लिए इस पर रोक लगी थी। लेकिन श्री अकबर, जोकि पाश्चात्य से अति प्रभावित थे, ने तर्क दिया था कि मुसलमानों को आश्वासन की आवश्यकता है जो कि केवल एक संशोधन से ही हो सकता है।”
अकबर, वर्तमान में नरेंद्र मोदी सरकार के मंत्री, ने हबीबुल्लाह के दावे का विरोध नहीं किया।
रशीद किदवई ओआरएफ का दौरा करने वाले एक व्यक्ति, लेखक और पत्रकार हैं। यहाँ व्यक्त किए गए विचार उनके अपने विचार हैं।