scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतदीनदयाल उपाध्याय की हत्या किसने की? ये एक 50 साल पुराना सवाल है

दीनदयाल उपाध्याय की हत्या किसने की? ये एक 50 साल पुराना सवाल है

भारतीय जनसंघ के प्रमुख दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय परिस्थितियों में हुई मौत को पांच दशक से अधिक समय बीच चुका है लेकिन अभी तक इस बात का जवाब नहीं मिल सका है कि उनकी हत्या किसने और क्यों की.

Text Size:

नई दिल्ली:  1971 में दीनदयाल उपाध्याय की 55वीं जन्म तिथि पर, तीन दशकों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में उनके सहयोगी रहे, नानाजी देशमुख ने खेद व्यक्त किया था, कि किस तरह तीन साल के बाद भी, उपाध्याय की मौत एक रहस्य बनी हुई है.

11 फरवरी 1968 को तब की जनसंघ के अध्यक्ष, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) बनी, उपाध्याय उत्तर प्रदेश में वाराणसी के पास मुग़लसराय रेलवे स्टेशन पर, रहस्यमय हालात में मृत पाए गए.

1971 में नई दिल्ली में एक सभा को संबोधित करते हुए देशमुख ने कहा, ‘आज हम दीनदयाल उपाध्याय की 55वीं जन्म तिथि मना रहे हैं, लेकिन हमारी आंखों में आंसू हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘पंडितजी की न केवल हत्या हुई, बल्कि उनके हत्यारों के बारे में भी कुछ पता नहीं चल सका. न तो सीबीआई और न ही चंद्रचूड़ जांच आयोग ये पता लगा पाया, कि उपाध्याय जी की हत्या क्यों और किसके हाथों हुई. ऐसा लगता है कि सरकार (तब जिसकी मुखिया प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं) इस डर से, कि इसके राजनीतिक परिणाम ख़राब हो सकते हैं, नहीं चाहती थी कि हत्यारे और उनके साथी पकड़े जाएं.’

1968 में, अपने मित्र की याद में देशमुख ने, दीनदयाल शोध संस्थान (डीआरआई) की स्थापना की, जो आज भी ग्रामीण भारत के बदलाव के लिए अग्रणी कार्य करता है. ये विषय उपाध्याय के दिल के बहुत क़रीब था. इसके साथ ही उन्हें ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा को क़ायम करने का श्रेय भी जाता है, जो वर्तमान बीजेपी की अधिकारिक विचारधारा है, और जिसमें एक सुदृढ़ भारत बनाने के लिए, ग्रामीण परिवर्तन को आवश्यक माना गया है.

लेकिन देशमुख के उस भाषण के क़रीब चार दशक बाद भी, ये सवाल उनके अनुयायियों और प्रशंसकों को आज भी क्रोधित करता है- कि दीनदयाल उपाध्याय की हत्या किसने की?

25 सितंबर फिर आ गया है, और आज उनकी 104वीं जन्मतिथि है, लेकिन आज भी इस बात का जवाब नहीं है, कि उपाध्याय को किसने मारा था, जो उस समय देश के सबसे होनहार राजनेताओं में से एक थे.


यह भी पढ़ें: चीन मसले पर राजनाथ सिंह की परफॉर्मेंस दर्शाती है कि मोदी और शाह को उनकी जरूरत क्यों है


एक रहस्यमय मौत

मुग़लसराय स्टेशन की रेल पटरियों से उपाध्याय का शव मिलने के बाद, जिसका नाम 2018 में बदलकर दीन दयाल उपाध्याय रेलवे स्टेशन कर दिया गया, तब की केंद्र सरकार ने इसकी जांच, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के हवाले कर दी थी.

उस समय सीबीआई के निदेशक जॉन लोबो थे, जो एक सीधे और ईमानदार अधिकारी के तौर पर जाने जाते थे. जैसे ही जांच सीबीआई को दी गई, लोबो अपनी टीम के साथ मुग़लसराय गए. लेकिन इससे पहले कि वो अपना काम पूरा कर पाते, उन्हें वापस बुला लिया गया. इस घटनाक्रम के बाद ये संदेह व्यक्त किया गया, कि जांच की दिशा को बदला जा रहा था.

अपनी जांच रिपोर्ट में सीबीआई इस निष्कर्ष पर पहुंची, कि ये हत्या एक सामान्य अपराध थी. सीबीआई रिपोर्ट के अनुसार, दो मामूली चोरों ने पंडित दीन दयाल उपाध्याय की हत्या की थी, और उनका मक़सद चोरी था.

कोर्ट में जज की टिप्पणी ने एक हंगामा खड़ा कर दिया, जिसके बाद तब की इंदिरा गांधी सरकार ने, एक जांच आयोग गठित कर दिया.

कोर्ट के फैसले के पांच महीने बाद, 23 अक्तूबर 1969 को गठित आयोग के अध्यक्ष, न्यायमूर्ति वाईवी चंद्रचूड़ थे.

आयोग ने कुछ दिलचस्प टिप्पणियां कीं.

उपन्यास से भी ज़्यादा अजीब

चंद्रचूड़ कमीशन ने कहा कि उपाध्याय की, रहस्यमय परिस्थितियों में हत्या की गई थी.

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘मुगलसराय में जो कुछ हुआ, कुछ हिस्सों में, वो किसी उपन्यास से भी ज़्यादा अजीब है. कई लोगों का बर्ताव आसामान्य था, जिससे शक पैदा होता था. ऐसी तुलनात्मक परिस्थितियों में उन्होंने जो कुछ भी किया, वो ऐसा सामान्य इंसानी व्यवहार नहीं था, जिसकी उम्मीद की जाती है. इसी तरह मुग़लसराय की कुछ घटनाओं का ताना बाना भी, कुछ अजीब तरह से बुना गया है’. रिपोर्ट में आगे कहा गया, ‘व्यक्तियों और घटनाओं को लेकर जब सामान्य उम्मीदें ग़लत साबित होती हैं, तो संदेह पैदा होता है. इस मामले में ऐसी संदिग्ध परिस्थितियों का कोई अंत नहीं है. इससे एक ऐसा धुंधलापन पैदा हो जाता है, जिसका मक़सद अस्ली मामले पर पर्दा डालना है’.

जिस दिन उनकी हत्या हुई, उपाध्याय लखनऊ-सियालदा एक्सप्रेस में सफर कर रहे थे, और पटना से लखनऊ जा रहे थे. जिस बोगी में वो बैठे थे, उसका आधा हिस्सा थर्ड क्लास था, और बाक़ी फर्स्ट क्लास था. रेलवे की भाषा में वो एक एफसीटी बोगी थी.

उपाध्याय फर्स्ट क्लास में चल रहे थे.

बोगी में तीन कूपे थे जो फर्स्ट क्लास के थे- ए, बी, और सी. ए कूपे में चार बर्थ थीं, बी में दो थीं, और सी में चार थीं.

उपाध्याय की बर्थ ए कूपे में थी, जिसे उन्होंने बी कूपे से बदल लिया था. इसमें वो अकेले यात्री थे. उन्होंने अपनी बर्थ एक विधान परिषद सदस्य गौरी शंकर राय से बदली थी. कूपे ए में दूसरे यात्री एमपी सिंह थे, जो एक सरकारी अधिकारी थे.

मेजर एसएल शर्मा का आरक्षण कूपे सी के लिए था, लेकिन उन्होंने उस कूपे में सफर नहीं किया, और उसकी बजाय ट्रेन सर्विस कोच में सफर किया.

आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘पहली नज़र में घटनाक्रम का ताना-बाना, जेम्स बॉण्ड की किसी डरावनी फिल्म से कम नहीं है. मेजर एसएम शर्मा का नाम ग़लत लिखा गया था, एक बार नहीं बल्कि दो बार, यहां तक कि उनका टिकट नम्बर भी ग़लत लिखा हुआ था’. ‘हालांकि उनकी शादी कुछ दिन पहले ही हुई थी, तब भी उन्होंने अपने सफर की तारीख़ पहले ही बदल ली थी; एमपी सिंह के सह-यात्री और कंडक्टर बीडी कमल की परस्पर विरोधी गवाहियां; शव की दशा में बदलाव, मृतक की जेब से वैध टिकट का मिलना, जिससे उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता था; उनके शव को एक अस्थायी तरीके से रखना, कंपार्टमेंट में फिनायल की एक बोतल का मिलना; घावों की विचित्रता, और ऐसे बहुत से सवाल एक असामान्यता को दर्शाते हैं. दिलचस्प बात ये है कि हर क़दम पर किसी न किसी रेलवे कर्मचारी की भागीदारी पाई गई है”.

आरएसएस प्रचारक जो जनसंघ के मुखिया थे

दीनदयाल उपाध्याय 25 सितंबर 1916 को यूपी में, मथुरा ज़िले के नगला चंद्रभान गांव में पैदा हुए थे. उनकी माता श्रीमती राम प्यारी एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं, और उनके पिता भगवती प्रसाद जालेसर में एक सहायक स्टेशन मास्टर थे.

1937 में, उन्होंने कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज से अपना बीए पास किया. उनके मित्र बलवंत महाशबड़े ने, 1937 में उनके आरएसएस में शामिल होने में, एक बड़ा रोल अदा किया. कुछ साल बाद वो एक आरएसएस प्रचारक बन गए.

उपाध्याय ने लखनऊ में एक प्रकाशन हाउस, ‘राष्ट्र धर्म प्रकाशन’ की स्थापना की, और ‘राष्ट्र धर्म’ नाम से एक मासिक पत्रिका शुरू की. बाद में उन्होंने साप्ताहिक ‘पांचजन्य’ और दैनिक ‘स्वदेश’ शुरू किए.


यह भी पढ़ें: दीनदयाल उपाध्याय का जन्मदिन कैसे भाजपा शासन में बन गया महत्वपूर्ण दिन


ऐसा माना जाता है कि आरएसएस प्रचारक बनने के बाद, उन्होंने अपने सारे शैक्षिक प्रमाण पत्र जला दिए थे, ताकि वो एकनिष्ठता से संगठन व उसके उद्देश्यों की सेवा कर सकें. दिसंबर 1967 में, उन्हें भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया.

(*इस रिपोर्ट में इस्तेमाल की गई तमाम जानकारी कंप्लीट वर्क्स ऑफ दीनदयाल उपाध्याय, वॉल.1-15, प्रभात प्रकाशन से ली गई है).  

(लेखक आरएसएस से जुड़े हैं. वो थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में रिसर्च डायरेक्टर हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो किताबें लिखी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments