देश की सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त कराने के प्रयासों के प्रति राजनीतिक दलों के उदासीन रवैये पर चिंता व्यक्त की है. इस महत्वपूर्ण विषय पर राजनीतिक दलों के रवैये से उत्पन्न स्थिति पर निराशा व्यक्त करते हुये न्यायालय ने हाल ही में टिप्पणी की ‘अभी तक कुछ नहीं किया गया है और आगे भी कुछ नहीं होगा और हम भी अपने हाथ खड़े कर रहे हैं.’
न्यायालय ने यह टिप्पणी राजनीतिक दलों द्वारा प्रत्याशियों की आपराधिक पृष्ठभूमि सार्वजनिक करने, इसका विवरण अपनी वेबसाइट पर अपलोड करने और मीडिया में इसका प्रचार करने से संबंधित न्यायिक आदेशों का अनुपालन नहीं किए जाने के संदर्भ में की लेकिन इसमे उसकी निराशा साफ झलक रही है.
न्यायालय ने एक प्रकरण में 2013 में कहा था कि चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी प्राप्त करना मतदाताओं का अधिकार है. मतदाताओं के इसी अधिकार का विस्तार करते हुए 25 सितंबर, 2018 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने Public Interest Foundation & Ors.VS Union of India प्रकरण में अपने फैसले में उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को कई निर्देश दिये थे.
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इनमें निर्वाचन आयोग द्वारा उपलब्ध कराये गए एक फार्म में प्रत्येक प्रत्याशी के लिए सभी आवश्यक, विशेषकर लंबित आपराधिक मामलों की जानकारी उपलब्ध कराना अनिवार्य था. अगर कोई प्रत्याशी किसी राजनीतिक दल के टिकट पर चुनाव लड़ रहा हो तो उसे अपनी पार्टी को इन आपराधिक मामलों की जानकारी देनी होगी और ऐसा उम्मीदवार तथा संबंधित राजनीतिक दल को नामांकन पत्र दाखिल होने के बाद कम से कम तीन बार स्थानीय समाचार पत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर इसकी सार्वजनिक घोषणा करनी होगी.
लेकिन बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों ने इन निर्देशों का पालन नहीं किया तो इनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही के लिये याचिकाएं दायर की गयी हैं. इसी मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने टिप्पणी की, ‘अभी तक कुछ नहीं किया गया है और आगे भी कुछ नहीं होगा और हम भी अपने हाथ खड़े कर रहे हैं.’
अब सवाल यह उठता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सुधार और इसे अपराधीकरण से मुक्त कराने तथा इसमें पारदर्शिता लाने के लिये केन्द्र और निर्वाचन आयोग को न्यायालय के निर्देशों पर अमल कैसे कराया जाए. निर्वाचन आयोग अपनी ओर से कदम उठाता है लेकिन इस समूची व्यवस्था में बदलाव के लिये सत्तारूढ़ दल के साथ ही सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति बनाने की जरूरत है लेकिन ऐसा लगता है कि कोई भी राजनीतिक दल कानून में इस तरह के प्रावधान करने का समर्थन करने का इच्छुक नही है.
न्यायपालिका की मजबूरी यह है कि वह इस तरह के मामलों में विधायिका के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकती है और सरकार चुनाव सुधार के तमाम बिन्दुओं पर तत्परता से कार्रवाई करती नजर नहीं आती है.
स्थिति यह है कि एक ओर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने और इसे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों से मुक्त कराने के बारे में उसके आदेशों और निर्देशों पर राजनीतिक दल पूरी ईमानदारी से अमल नहीं कर रहे हैं तो दूसरी ओर संगीन अपराधों के आरोपों में वर्तमान और पूर्व सांसदों और विधायकों के खिलाफ मुकदमों का तेजी से निपटारा भी नहीं हो पा रहा है.
देश की शीर्ष अदालत ने 10 जुलाई, 2013 को Lily Thomas and Lok Prahari, through its General Secretary S.N. Shukla VS Union of India & Ors. … प्रकरण में आपराधिक तत्वों को सदन से दूर रखने के इरादे से जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को अंसवैधानिक करार दे दिया था. न्यायमूर्ति ए के पटनायक की अध्यक्षता वाली पीठ के इस निर्णय का नतीजा यह हुआ कि आपराधिक मामलों में दो साल से ज्यादा की सजा पाने वाले सांसदों ओर विधायकों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म होने लगी.
हालांकि, राजनीतिक दलों के दबाव में मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार इस व्यवस्था को निष्प्रभावी बनाना चाहती थी लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष राहुल गांधी के कड़े रुख के कारण ऐसा नहीं हो पाया. यही नहीं, संप्रग सरकार हत्या, बालत्कार और अपहरण जैसे संगीन अपराध के आरोपियों को चुनाव प्रक्रिया से दूर रखने के लिये कानून बनाना चाहती थी लेकिन राजनीतिक बाध्यताओं की वजह से यह भी नहीं हो सका था.
राजनीतिक दलों के उदासीन रवैये और सरकार की उदासीनता का दूसरा उदाहरण Manoj Narula VS Union of India मामले में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ का 27 अगस्त 2014 का फैसला है.
न्यायालय का इस फैसले में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को सुझाव कि हत्या, बलात्कार तथा भ्रष्टाचार जैसे संगीन अपराध के आरोपों में मुकदमों का सामना कर रहे व्यक्तियों को मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं किया जाना चाहिए.
संविधान पीठ का मत था कि जब न्यायपालिका और प्रशासनिक सेवाओं में संदिग्ध छवि वाले व्यक्तियों की नियुक्त नहीं हो सकती तो मंत्रिपरिषद में ऐसे व्यक्तियों को कैसे जगह दी जा सकती है. लेकिन न्यायालय के इस सुझाव को भी गंभीरता से नहीं लिया गया.
इसी तरह, शीर्ष अदालत ने एक गैर सरकारी संगठन पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन की जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान 10 मार्च, 2014 को अपने अंतरिम आदेश में कहा था कि निचली अदालतों को सांसदों तथा विधायकों से संबंधित आपराधिक मुकदमों की सुनवाई के आरोप निर्धारित होने के बाद एक साल के भीतर पूरी करनी चाहिए.
ऐसा नहीं होने की स्थिति में निचली अदालत को उच्च न्यायालय को इसकी वजह बताने का भी निर्देश दिया गया था. इसके बावजूद निचली अदालतें इन मुकदमों की सुनवाई निश्चित समय के भीतर पूरा नहीं कर सकीं.
सरकार के उदासीन रवैये का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन माननीयों के खिलाफ मुकदमों की तेजी से सुनवाई के लिये विशेष अदालतें गठित करने के न्यायिक आदेश पर भी अमल में भी तत्परता नहीं दिखाई गयी.
हालांकि न्यायालय की सख्ती के बाद केंद्र ने एक दर्जन से ज्यादा विशेष अदालतें ऐसे मुकदमों की सुनवाई के लिए गठित कीं, लेकिन इन विशेष अदालतों में भी मुकदमों के सुनवाई की रफ्तार बहुत तेज नहीं है.
निर्वाचन आयोग भी चाहता है कि राजनीतिक दल आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को अपना उम्मीदवार नहीं बनाएं लेकिन सत्ता पर कब्जा करने की राजनीतिक दलों की लालसा उन्हें इस सवाल पर आम सहमति बनाने से रोक रही है. इस बारे में राजनीतिक दलों के अपने-अपने तर्क और कुतर्क हैं.
न्यायालय की हालिया तल्ख टिप्पणियों के बाद यही उम्मीद की जा सकती है कि निर्वाचन आयोग और केन्द्र सरकार इन बिन्दुओं को कानूनी रूप प्रदान करने के लिए सभी राजनीतिक दलों में आम राय बनाने का प्रयास करेंगे ताकि देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अधिक पवित्र और पारदर्शी बनाया जा सके.
अगर यही स्थिति जारी रही और राजनीतिक दलों ने अपने दृष्टिकोण में बदलाव नहीं किया तो वह समय दूर नहीं जब देश की संसद और विधानमंडलों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों का बहुमत होगा और जनता इन दलों के चाल, चरित्र और चेहरों को देखते हुए खुद को असहाय और ठगा हुआ महसूस करती रहेगी.
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)