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Friday, 22 November, 2024
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कहां ले जायेगी प्रेम को जाति व धर्म की नोंक पर रखने वाली पंचायतों की क्रूरता

झारखंड में पलामू जिले की उलडंडा ग्राम पंचायत के मुसुरमू गांव में एक पंचायत ने प्रेम को जाति की नोंक पर रखा तो पुरानी सारी सीमाएं पार करती उसकी क्रूरता ने प्रेम में डूबी एक बेटी के पिता की जान ले ली.

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अपने देश में पंचायतों द्वारा प्रेम को कभी जाति, तो कभी धर्म की नोंक पर रखकर प्रेमियों-प्रेमिकाओं के खिलाफ क्रूरतापूर्ण फैसलों का ‘इतिहास’ अब इतना पुराना पड़ चुका है. उनके क्रूरतम फैसले भी सिर झटककर किनारे कर दिये जाते हैं. विडंबनाओं से भरे सामाजिक ढांचे की अनिवार्य परिणति मानकर उन पर चर्चा तक नहीं की जाती.

शुतुर्मुर्गों द्वारा तूफान से बचने के लिए रेत में सिर गड़ा लेने जैसे इस सामाजिक आचरण का ही कुफल है कि झारखंड में पलामू जिले की उलडंडा ग्राम पंचायत के मुसुरमू गांव में एक पंचायत ने प्रेम को जाति की नोंक पर रखा तो पुरानी सारी सीमाएं पार करती उसकी क्रूरता ने प्रेम में डूबी एक बेटी के पिता की जान ले ली.

झारखंड की पंचायत का सच

इस पंचायत ने पहले तो बेटी के प्रेम को, चूंकि वह दूसरी जाति के शख्स से हुआ था, बदचलनी की संज्ञा दी, फिर उसके गरीब पिता को बेतरह अपमानित करते हुए कहा कि बदले में वह इकतालीस हजार रुपए का जुर्माना दे. अलबत्ता, लाचार पिता के बहुत रोने गिड़गिड़ाने के बाद ‘दरियादिली’ बरतते हुए उसने जुर्माने की रकम घटाकर पहले 21 हजार फिर ग्यारह हजार रुपये कर दी. इस पिता ने जैसे-तैसे कर्ज वगैरह लेकर पंचायत को सात हजार रुपये दिये और शेष की यथासमय अदायगी का वचन दिया ताकि इस बीच उसका मुंह बंद रहे. इस सबसे पैदा हुई ग्लानि ने फिर भी उसका पीछा नहीं छोड़ा तो सीधा पास के जंगल में गया और एक पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर ली.

इस तरह पिता तो बेबसी का जुआ पटककर चल बसा, लेकिन उसकी तीन बेटियों, दो बेटों और उनकी मां की मुसीबतों का अभी भी कोई अंत नहीं है. उन पर असहनीय सामाजिक दबाव है कि वे अपनी जाति के कोई दो सौ लोगों को दो दिन का भोज दें, वरना भविष्य में कोई भी उनके घर पानी पीने नहीं जाएगा. अब वे इस भोज की व्यवस्था के लिए सूदखोर महाजनों से कर्ज की याचना करते हुए हलकान हैं.

इंसानियत के वे पुराने मूल्य बचे होते, जिनके मद्देनजर महात्मा गांधी ने अपने ग्राम स्वराज्य का तकिया ग्राम पंचायतों पर ही रखा था और आजादी के बाद कई सरकारों ने पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए अच्छे-बुरे कई पापड़ बेले थे, तो हम कल्पना कर सकते थे कि किसी दिन इस मां व बेटे बेटियों को हलकान होते देख उक्त पिता की आत्महत्या को मजबूर करने वाली पंचायत के सदस्य भी ग्लानि से भर उठेंगे. इस कदर कि उनसे अपनी क्रूरता का बोझ और नहीं उठाया जायेगा और वे इन हलकानों के पास जाकर कहेंगे कि ‘बहुत हुआ, अब आओ, इस दुर्दशा का अंत कर लेते हैं.’


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फिर दिवंगत राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ सही सिद्ध हो जायेंगे, जिन्होंने लिखा था कभी-‘मत समझो दिन रात पाप में मनुज निरत होता है. हाय, पाप के बाद वही तो पछताता रोता है. यह क्रन्दन, यह अश्रु मनुज की आशा बहुत बड़ी है. समझाती है यह कि मनुजता अब तक नहीं मरी है.’

अब नहीं होते प्रेमचंद के पंच परमेश्वर

लेकिन, हम जानते हैं कि मनुज की इस ‘बड़ी आशा’ के निराश होने के बाद भी देश की नदियों में बहुत पानी बह गया है. यहां तक कि जनकवि अदम गोंडवी की वह गजल भी पुरानी पड़ चुकी है, जिसके एक शेर में उन्होंने समकालीन पंचायतों का हाल बताते हुए कहा था कि ‘जितने हरामखोर थे पुरवो जवार में, परधान बनके आ गये अगली कतार में.‘ अब तो ऐसे परधानों ने पंचायतों और उनकी संस्थाओं को अपनी ऐसी हरकतों के लिए इस तरह अनुकूलित कर लिया है कि उनकी सदारत वाली पंचायतों में प्रेमचंद के वक्त वाले पंच ही नहीं हुआ करते. होते भी हैं तो अपने आदेशों को परमादेश तो मानते ही हैं, उनकी उदूली भी बरदाश्त नहीं करते, लेकिन खुद को परमेश्वर की तरह निहित या निजी स्वार्थों व लाभ-लोभ से निरपेक्ष रखना उन्हें गवारा नहीं.

वे इंसाफ करने बैठते हैं तो उनके मन में प्रेमचंद की बहुपठित व बहुचर्चित कहानी ‘पंच परमेश्वर’ के नायक जुम्मन शेख जैसा जिम्मेदारी का उच्च भाव आता ही नहीं कि अपने सोच का इतना विस्तार कर लें कि उनके दिये इंसाफ में मनोविकारों का कदापि समावेश न हो. जुम्मन शेख पंच की हैसियत से पहले की किसी पंचायत में अपने खिलाफ फैसला दे चुके अलगू चौधरी के मामले में इंसाफ करने चले तो उनके मन में आया था कि ‘मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूं और मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं.’ लेकिन अब उनके वारिस उक्त सर्वोच्च आसन ग्रहण करने से पहले ही इस तरह की पवित्र व उदात्त भावनाओं को जान से मार चुके होते हैं.

उनका सोच होता है कि आज मौका मिलने पर भी हिसाब-किताब बराबर कर सारे अरमान नहीं निकाल लिये तो उक्त उच्चासन तक पहुंचना ही बेकार चला गया. ऐसे में यह कैसे संभव है कि उनकी पंचायतें जवान बेटियों के पिताओं पर कहर बनकर न टूटें?

गौरतलब है कि हम इन दिनों देश की संसद और प्रदेशों के विधानमंडलों के साथ तमाम संवैधानिक व लोकतांत्रिक संस्थाओं में तेजी से आ रही गिरावट का रोना रोते नहीं थकते. लेकिन इस ओर शायद ही कभी किसी का ध्यान जाता है कि दूषित लोकतांत्रिक चेतनाओं की बेलों के सहारे इस गिरावट ने किस तरह नीचे तक पहुंचकर पंचायतों तक को, वे जातीय पंचायतें हों या बाकायदा निर्वाचित, खोखली कर डाला है.

दूषित हो चुकी हैं पंचायतें

जिन पंचायतों को गांवों में परंपरागत रूढ़ियों के बरक्स नये लोकतांत्रिक व प्रगतिशील समाज का निर्माण करना था, बाबासाहब आंबेडकर के शब्द उधार लेकर कहें तो इस गिरावट के चलते वे उन्हें नये तरह के ‘घेटो’ में तब्दील करने लगी हैं, जहां मानवीय मूल्यों या समझदारी के लिए कोई जगह ही नहीं बच रही. कुंए में किस तरह भांग पड़ी है, इसे यों समझ सकते हैं कि अब वहां भीड़ किसी पर कोई आरोप लगाकर उसकी जान की दुश्मन बनने लगती है तो कोई उसे बरजने (बचाने) के लिए आगे नहीं आता.


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हां, इन पंचायतों की चेतनाएं इसलिए भी दूषित हैं क्योंकि इधर एक नई परंपरा यह निर्मित हो गई है कि जिन्हें भी और जैसे भी इन दूषणों से मुक्ति मिल जाती है, वे गांव को उसके हाल पर छोड़कर अपना अलग और गांव के लिहाज से पूरी तरह अभेद्य सामाजिक-आर्थिक संस्तर बना लेते और उसी में सुरक्षा का अनुभव करने लगते हैं. यह एक अलग तरह की सामाजिक क्रूरता है, जो गांवों के बेटे-बेटियों और मां-बापों को निष्कवच व निःशस़्त्र बने रहकर भेड़ियों से मुकाबले को मजबूर करती है.

सवाल है कि इस ढर्रे को ऐसे ही चलता रहने दिया गया तो अंजाम क्या होगा? यही तो कि ये पंचायतें हमें अतीत में इतने पीछे ले जाने का मंसूबा भी पालने लगेंगी, जब हमारे पुरखों ने अपनी लज्जा ढकने के लिए अपने शरीर के आगे-पीछे पत्ते लपेटना भी नहीं सीखा था. फिर? शुक्र है कि अभी भी कई ऐसी पंचायतें बची हुई हैं, जो गांवों में कन्या भ्रूणों की हत्याएं और सार्वजनिक स्थानों पर शराब का सेवन रोकने के लिए प्रयत्नशील हैं. उनके प्रयत्नों की सफलता के लिए सुनिश्चित करना होगा कि वे नक्कारखाने में तूती की आवाज भर होकर न रह जायें.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

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