ये चार साल पुरानी बात है. मैंने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘ब्राम्हणों ने अपनी स्त्रियों को कभी बराबरी का, सम्मान का दर्जा नहीं दिया. ऊंची जाति के तमगे से फूलती होगी मर्दों की छाती, औरतों के लिए तो ये कोई गौरव की बात नहीं.’ इस पर एक आदमी ने मुझे इनबॉक्स में आकर ऐसी अभद्र गालियों से नवाजा, जो मैं यहां लिख नहीं सकती. उसके प्रोफाइल को खंगालते हुए मैं एक ऐसे पेज पर पहुंची, जो पूरे देश के ब्राम्हणों को एकजुट करने का आह्वान कर रहा था क्योंकि उन पर कोई अदृश्य खतरा मंडरा रहा है. 40 लाख से ज्यादा लोगों ने उस पेज को लाइक किया था. बहुत से मेरे जानने वाले भी थे.
कवर पर राम की फोटो लगी थी. हाथों में धनुष उठाए, बाण चढ़ाए, प्रत्यंचा ताने, भौरियां चढ़ाए. राम का वह रौद्र रूप जो 1992 से पहले हमारी चेतन और अवचेतन स्मृति में कहीं नहीं था. राम की आंखों में मानो खून उतर आया था. वैसे ही जैसे मेरे गैंगरेप का आह्वान कर रहे उस मैसेज को लिखने वाले की आंखों में उतर आया होगा.
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विकास से हिंदू राष्ट्र तक
ये 2016 की बात है. राम मंदिर आंदोलन से सुर्खियों में आई पार्टी को देश की बागडोर संभाले दो बरस हो चुके थे. जब आने के लिए हाथ जोड़ रहे थे तो वादा विकास का था. लेकिन वो कब देखते-देखते हिंदू राष्ट्र के एजेंडे में बदल गया, पता भी नहीं चला. 2014 से पहले ब्राम्हणवाद का विरोध करने पर कोई ऐसे धुआंधार गालियों से नहीं नवाजता था. कुछ आंखें टेढ़ी करने वाले तब भी थे, लेकिन फिर भी इतनी जगह थी कि सच लिख सकें. गलत पर सवाल कर सकें. कम से कम अपना ये अनुभव ही बता सके कि उसने ब्राह्मणवाद के अहंकार को कितने करीब से देखा है. ये सब लिखने पर कोई ये नहीं कहता था कि तुम्हारा रेप कर देंगे.
लेकिन 25 सितम्बर को गुजरात के रपार में फेसबुक पर ब्राम्हणवाद का विरोध करने पर एक दलित वकील देवजी माहेश्वरी की हत्या कर दी गई. मारने वाला उन्हीं के गांव का एक ब्राम्हण भरत रावल है, जिसे इस बात से तकलीफ थी कि वो फेसबुक पर ब्राम्हणों के खिलाफ क्यों लिखते हैं. लिखते वो ब्राम्हणवाद के खिलाफ थे. उसे लगता है कि ब्राम्हणों के खिलाफ हैं. मरने से पहले उनकी आखिरी पोस्ट वामन मेश्राम का एक वीडियो था, जिसमें वो कह रहे थे कि दलित हिंदू नहीं हैं.
भरत रावल ने कई बार आगाह किया कि ब्राम्हण विरोधी बातें लिखना बंद करो. वो नहीं माने. कहा, ‘जो करना हो, कर लो.’ रावल को जो करना था, उसने कर दिया. मुंबई के मलाड से चलकर रपार गया और देवजी के ऑफिस में घुसकर उन पर चाकू से इतने वार किए कि उनकी मौके पर ही मौत हो गई. पुलिस ने रावल को गिरफ्तार तो कर लिया है, सख्त धाराएं भी लगा दी हैं, लेकिन इन सब में उन सवालों का जवाब कहां है, जो मौजूदा सरकार के सत्ता में आने के बाद हर रोज और तीखे होते जा रहे हैं.
हाथरस में एक दलित लड़की के रेप और हत्या के बाद जाति का यह सवाल एक बार मुख्यधारा की बहस में आ गया है. हाथरस के आसपास के 12 गांवों के सवर्णों ने एक पंचायत बुलाकर बलात्कार के आरोपियों का साथ देने और उनके पक्ष में आंदोलन करने का ऐलान किया है. आरोपियों के घरवालों का कहना है, ‘ये नीच जात के लोग हैं. हम इनका छुआ पानी नहीं पीते, इनकी बेटियों को क्या छुएंगे.’
दलित समाज का सबसे कमजोर और सताया हुआ तबका पहले भी था. अत्याचार पहले भी होता था, जिस आत्मविश्वास के साथ सवर्ण समूह इस समय एकजुट होता दिख रहा है, ऐसा पहले नहीं होता था.
66 फीसदी बढ़ी दलितों के साथ हिंसा
दो साल पहले 2018 में जारी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 सालों में दलितों के साथ होने वाली हिंसा में 66 फीसदी का इजाफा हुआ है. इतना ही नहीं, वो रिपोर्ट कहती है कि जिन राज्यों में दलित उत्पीड़न के सबसे ज्यादा मामले दर्ज हुए, वहां या तो बीजेपी की सरकार है या उनके सहयोगी की.
चुनावी आंकड़ों को देखें तो लगता है कि दलितों की उम्मीद और भरोसा कुछ और ही था, जब वो चुनावी बयार में बीजेपी के साथ बह लिए. आजाद भारत के इतिहास में 2014 का चुनाव वह पहला मौका था, जब सबसे ज्यादा संख्या में दलितों ने कमल का बटन दबाया था. 543 में से 84 सीटें जो दलित उम्मीदवारों के लिए आरक्षित थीं, उनमें से 40 अकेले बीजेपी के हिस्से में गिरीं. लोकतंत्र में यह पहली बार हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में चुने हुए दलित जनप्रतिनिधि संसद तक पहुंचे. विकास और अच्छे दिनों का ये सपना इतना सुनहरा था कि सदियों से विकास के सबसे निचले पायदानों पर रहा दलित भी उस सपने में अपना हिस्सा पाने से खुद को रोक न सका.
लेकिन उसके हाथ लगा क्या? जातीय श्रेष्ठता के अहंकार में डूबी पार्टी की राजनीतिक विचारधारा दिन पर दिन और मजबूत होती गई. समाज का एक तबका पहले जो बात कानून के डर से खुलेआम कहने से डरता था, वो अब खुलकर कहने लगा. फेसबुक पर ज्यादा आत्मविश्वास के साथ गालियां दी जाने लगीं. ज्यादा उन्माद के साथ गौरी लंकेश, पानसारे, कलबुर्गी जैसे लोगों की हत्याएं की गईं. मुंबई में दलित महिला डॉक्टर को ज्यादा ताकत से यह कहकर लिंच किया गया कि वो तो रिजर्वेशन से आई है. मेरिट वाली नहीं है. गुजरात के उना में गौहत्या के शक में दलितों की बर्बर पिटाई जैसी घटनाएं आम होने लगीं. यूनिवर्सिटी कैंपस के अंदर रोहित वुमेला को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा.
ये सब हुआ, जिसके बारे में हमारे आसपास शायद ही कभी कोई फिक्र करता, दुखी होता दिखता है. मेरे परिवार के पंडितजी लोग आज भी कान पर जनेऊ चढ़ाए अपनी जांघें खुजाते यही कहते पाए जाते हैं कि मोदीजी आ गए हैं. अब आरक्षण भी खत्म होगा. उनके मुताबिक देश में दो ही समस्याएं हैं. अयोध्या में मंदिर बन जाए और कानून की किताब में से आरक्षण का नामोनिशान मिट जाए.
ये 30 साल पुरानी बात है. उत्तर प्रदेश के जिला प्रतापगढ़ में हमारा गांव था. घर से कुछ पांच सौ कदम दूर खेत के उस पार एक बस्ती थी. मेरी दादी उसे चमरौधा कहती थीं. हमें वहां जाना सख्त मना था. वैसे मना तो हमें घर के दुआरे तक जाना भी था. पर खेत के उस पार तो बिलकुल नहीं. कभी-कभी उनकी बस्ती से कोई आता हमारे घर. हाथ जोड़कर, देह सिकोड़े जमीन पर बैठा रहता. पंडित जी खटिया पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते. वो डर-डरकर बात करता. एक बार एक चाचा कहीं जा रहे थे. मैं बच्ची थी. साथ लटक लिया. हम उस बस्ती में पहुंचे. उन्होंने अपनी खटिया छोड़ दी. चाचा और मैं खटिया पर. बूढ़ा दलित जमीन पर. पंडितजी की खटिया वहां भी आरक्षित थी. बच्ची थी मैं लेकिन ताकत और अहंकार का जो नमूना मैंने वहां देखा, अच्छा नहीं लगा.
18 साल बाद एक बार फिर गांव जाना हुआ. तब तक बहुत कुछ बदल चुका था. मंडल कमीशन लागू हो चुका था. उत्तर प्रदेश की सियासत में पंडितों का दबदबा नहीं रहा था. गांव से शहर पढ़ने गया दलित का लड़का सरकारी नौकरी पा कर, साहब बनकर गांव लौटा था. इस बार मैं खासतौर पर गई उस बस्ती को देखने. उसकी सूरत बदल गई थी. घर पक्का हो गया था. दुआरे पर मोटरसाइकिल खड़ी थी. 10 घरों के बीच में एक छपरे के नीचे आंबेडकर की मूर्ति लगी थी. सूट पहने, हाथों में किताब लिए.
यही वो बदलाव था, जिससे गांव के पंडितों को इतनी कुढ़ थी. बूढ़ा दलित अब अपनी खटिया से नहीं उठता था इनके लिए. जिस साल ट्रंप जीता था अमेरिका में, वहां रह रहे मेरे एक इंडियन दोस्त को एक गोरे अमरीकी ने पेट्रोल पंप पर चिल्लाकर कहा, ‘गेट रेडी टू गो बैक.’
गांव के पंडितजी तब से उस मौके की तलाश में हैं कि दलितों को कह सकें, ‘गो बैक’. लेकिन ऐसा कभी होता है क्या कि वक्त का पहिया पीछे की ओर चल पड़े.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंडिया टुडे और दैनिक भास्कर में फीचर एडिटर रह चुकी हैं)
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Pandey ji, i have no doubt tht u have seen castism and ur forefathers literally invented and practiced it, but tht does not mean tht ppl who support bjp believe in caste supremacy, aa far in case of brahmins, 99 perscent believe tht they r supreme. But u blaming bjp for ur caste issue? Now i m also from a small town of Rajasthan and i can bet tht on rural level u will see rss ppl r less casteist compare to others(except brahmins). Dalits at these days r aggressive and thts y powerless dalit at rural area is receiving end of this conflict.but ur biased towards whole hindu society amaze me, i mean how u can blame all upoer caste for rohit vemula sucide, kal ko kota me bacche jo sucide karte h , shd we blame dalit community or reservation for tht? Its not bjp or rss or modi who working hard and getting elected, it bcoz of ppp like u , ur hate and ur biased towards hindus which is helping them, keep doing it, but this is not journalism.
??
India’s partition was on religious line and in the constitution, caste-based reservation is valid. Both caste and religion are more important than any other factor.
still obsessed with leftist mind set.for last 65yrs no electricity,gas,toilets,in our most of the villages.now al these necessities for every indian available.this is new beginning of new era. but it doesn’t suit to power hungry parties or dynasties.so they raise these caste system to divide us.come out of these medieval mindset.work for inclusive growth and play positive role for nation’s well being.