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Friday, 22 November, 2024
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भारतीय स्कूल कब खोले जाने चाहिए? इसका सही जवाब है: अभी नहीं

ऑनलाइन कक्षाएं माध्यमिक स्तर के लिए अच्छी साबित हो सकती हैं. छोटे बच्चों को शिक्षक के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है और बड़ों को लैब और प्रोजेक्ट स्पेस की जरूरत होती है.

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भारत को अब जबकि ‘अनलॉक’ किया जा रहा है और कोरोनावायरस की महामारी से निबटने की ज्यादा ज़िम्मेदारी राज्यों पर डाली जा रही है, देश की रोज़मर्रा की ज़िंदगी वैसी नहीं रह जाएगी जैसी पिछले कुछ महीनों से रही है. अर्थव्यवस्था को खोलना बेशक जनता के सरोकार का विषय है, लेकिन स्कूलों और शिक्षा संस्थाओं को खोलने के बारे में आगामी कुछ सप्ताहों में ज्यादा सोच-समझकर फैसला करने की जरूरत है.

लॉकडाउन से शिक्षा के क्षेत्र में जितनी तबाही मच सकती थी उससे कम ही मची क्योंकि कई राज्यों में यह शैक्षणिक वर्ष के अंत में आया और छात्र ज्यादा समय घर में रहे. लेकिन अब इन सवालों को और टाला नहीं जा सकता कि स्कूलों-कॉलेजों को खोला जाए या न खोला जाए, खोला जाए तो कब और कैसे? राज्य सरकारें इस मामले में कैसे कदम बढ़ाएं ?

सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से दो प्रमुख बातों का ध्यान रखना जरूरी है. एक मसला तो बच्चों और उनके परिवारों को इस बीमारी से सुरक्षा देने और स्कूली बच्चों के जरिए संक्रमण के फैलाव को रोकने का है. हालांकि यह रोग युवाओं के लिए अपेक्षाकृत कम घातक है और संकेत देता है कि बच्चों को इससे कम खतरा है. लेकिन जिस तरह यह उन लोगों से भी फैलता है जिनमें इसके लक्षण नहीं दिखते उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यह बच्चों के जरिए भी दूसरों में फैल सकता है. बच्चों और किशोरों में हाथों की स्वच्छता, मास्क और सोशल डिस्टेन्सिंग आदि लागू करवाना कुछ कठिन है. चूंकि स्कूल-कॉलेज सामाजिक केंद्र जैसे होते हैं, इसलिए वे रोग संक्रमण के केंद्र भी बन जा सकते हैं.

हालांकि दूसरे देशों में हो चुके अध्ययन बताते हैं कि स्कूली बच्चों के जरिए संक्रमण का फैलाव सीमित होता है, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि भारत के मामले में भी यह निष्कर्ष सही ही होगा. इसलिए सुविचारित और सतर्क कदम उठाने की जरूरत होगी.


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ऑनलाइन क्लास का कारोबार

क्लास बहुत हद तक अच्छी तरह से ऑनलाइन चलाई जा सकती है. ‘तक्षशिला’ के किशोर इंटर्न अदा पइ, म्येशा फुकन, और जोसह नायक ने कई देशों के छात्रों के बीच जो सर्वे किया उसकी प्रस्तावित रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकतर छात्र क्लास की पढ़ाई, और पढ़ाई से इतर कई गतिविधियां ऑनलाइन करने लगे हैं. लेकिन सर्वे में शामिल अधिकांश छात्रों ने कहा कि उन्हें क्लास में जाकर पढ़ना ही ज्यादा पसंद है. इसकी वजह भी है. दरअसल, स्कूल एक महत्वपूर्ण सामाजिक कार्य को भी अंजाम देते हैं. बंगलूरू के जिन प्राइवेट स्कूलों ने ऑनलाइन क्लासें शुरू की है उनका शुरुआती अनुभव यह है कि ऑनलाइन क्लासें सेकेंडरी स्कूल से लेकर ऊपर की क्लासों के लिए ज्यादा कारगर हैं.

किंडरगार्टेन और प्राइमरी स्कूल के स्तरों पर ऑनलाइन क्लासों का कारगर होना शिक्षक की मौजूदगी पर निर्भर करता है. शिक्षक की बड़ी भूमिका यह होती है कि वह बच्चों को बैठाए रखकर उनका ध्यान पढ़ाई पर लगाए रखे. इन स्तरों पर ऑनलाइन क्लास बहुत अच्छा परिणाम नहीं दे सकते हैं. ये स्कूल की सबसे ऊंची क्लासों के लिए भी कारगर नहीं हो सकते क्योंकि उनमें प्रयोगशालाओं में और प्रोजेक्ट वर्क के लिए भी काम करना होता है.

टीवी का सहारा

लेकिन मूल समस्या यह है कि ऑनलाइन क्लासें विषमतामूलक हैं, बहुत कम परिवार ही इनके लिए साजसामान और इंटरनेट कनेक्सन लेने का खर्च उठा सकते हैं, इसलिए इनके आधार पर स्कूलों को फिर से खोलने का दावा नहीं किया जा सकता. एक बेहतर उपाय, जिस पर कर्नाटक सरकार विचार कर रही है, वह टीवी को माध्यम बनाना हो सकता है. देश की कोई 70 प्रतिशत आबादी तक टीवी पहुंच चुका है. दक्षिणी राज्यों में तो यह 90 प्रतिशत से ज्यादा आबादी तक पहुंच चुका है. कई निजी क्षेत्रीय टीवी चैनल विज्ञापनों के बीच के समय में काफी कबाड़ प्रसारित करते रहते हैं, दूरदर्शन पर भी समय निकाला जा सकता है. भारतीय और विदेशी उपग्रह ट्रांसपोंडरों की भी कमी नहीं है, और वे कम ख़र्चीले भी हैं.

सो, टीवी पर एक कक्षा के लिए एक समय में एक चैनल के हिसाब से राज्यव्यापी स्कूल व्यवस्था चलाई जा सकती है. अगर एक चैनल पर दो कक्षाओं को समय दिया जाए, तो प्रतिदिन 10 घंटे के लिए छह चैनलों की जरूरत पड़ेगी. इसके लिए बहुत ज्यादा शिक्षकों या साजोसामान की जरूरत नहीं पड़ेगी. राज्य के सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों को स्टूडिओ में क्लास चलाने के लिए बुलाइए और उसका प्रसारण कीजिए. इन क्लासों को इंटरनेट पर भी डाला जा सकता है.

टीवी चैनल शाम में व्यावसायिक सामग्री प्रसारित करने के अलावा इन क्लासों के प्रसारण के बीच में विज्ञापनों से कमाई भी कर सकते हैं. कम खर्चीला होने की वजह से ये टीवी आधारित स्कूल नकदी की कमी से जूझ रहे राज्य सरकारों के लिए आदर्श व्यवस्था साबित हो सकते हैं. जहां अच्छे शिक्षक नहीं हैं या जहां शिक्षक गायब रहते हैं, ऐसी जगहों पर भी ये टीवी स्कूल सचमुच के स्कूलों से अच्छे साबित हो सकते हैं.


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अभी घंटी मत बजाइए

इसमें शक नहीं कि टीवी स्कूल क्लास में हाज़िरी, टेस्ट, वार्षिक परीक्षा आदि का संतोषजनक उपाय नहीं प्रस्तुत करते. इनके लिए परिवारों और छात्रों को ज़िम्मेदारी सौंपनी होगी. लोगों के बीच अभियान चलाने से बात बन सकती है. इन कार्यक्रमों से बड़ों को भी फायदा हो सकता है. बोर्ड परीक्षाओं को छोड़ दूसरी परीक्षाओं की ज़िम्मेदारी अभिभावकों को सौंपी जा सकती है. जिन परिवारों को यह लगता है कि उनके बच्चे किसी भी तरह ऊंचे नंबर लाएं उनके लिए यह एक अजूबा लग सकता है. अगर आप खुद से ही ‘चीटिंग’ कर रहे हों तब ‘चीटिंग’ का कोई मतलब नहीं रह जाता.

लेकिन जिस चीज की भरपाई नहीं की जा सकती, वह है सरकारी स्कूलों में मिलने वाला दोपहर का भोजन (मिड-डे मील). टीवी स्कूल वाली नयी व्यवस्था के कारण अभावग्रस्त परिवारों के बच्चों को सचमुच कुपोषण का खतरा है. और यह शहरी क्षेत्रों तथा अमीर राज्यों में भी हो सकता है. राज्य सरकारों और उनके सहयोगी एनजीओ को ‘मिड-डे मील स्कीम’ को नया स्वरूप देना पड़ेगा और यह व्यवस्था करनी होगी कि दोपहर का भोजन बच्चों तक पहुंचे.

सवाल यह है कि स्कूलों के फाटक फिर से कब खोले जाएं ? इसका सबसे अच्छा जवाब है— अभी नहीं. जहां और जब यह पर्याप्त भरोसा हो जाए कि वायरस को फैलने से रोक दिया गया है, वहां और तब ही धीरे-धीरे, चरणबद्ध तरीके से स्कूलों को खोलने पर विचार किया जाए. हम यह न भूलें कि वायरस के और हमले भी हो सकते हैं, जिनके लिए स्थानीय स्टार पर रोकथाम या राज्य स्तरीय लॉकडाउन किया जा सकता है.

बच्चों को ज्यादा परेशानी या अनिश्चितता से बचाने के लिए राज्य सरकारें बार-बार व्यवधानों से परहेज कर सकती हैं. इसलिए एक मजबूत टीवी+टेक्नोलोजी सिस्टम जरूरी है ताकि स्कूल खुलें या न खुलें, सेकेंडरी स्कूल के गणित की पढ़ाई चैनल 64 पर चलती रहे.

(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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