scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमत1971 के युद्ध के 50 साल होने पर जिंदगी बचाने वाले सैशे और उसे लोगों तक पहुंचाने वाले बंगाली डॉक्टर को न भूलें

1971 के युद्ध के 50 साल होने पर जिंदगी बचाने वाले सैशे और उसे लोगों तक पहुंचाने वाले बंगाली डॉक्टर को न भूलें

भले ही आज हर कोई ओआरएस जानता है, जिसे मेडिकल जर्नल लांसेट ने 20वीं शताब्दी में 'चिकित्सा क्षेत्र की संभवत: सबसे महत्वपूर्ण प्रगति' कहा है लेकिन डॉ. दिलीप महालनबिस को याद करने वाले कम ही लोग होंगे.

Text Size:

इस समय जब हर कोई बांग्लादेश मुक्ति युद्ध की 50वीं वर्षगांठ मना रहा है, तो 1971 के उस दौर की एक कम ज्ञात भारतीय उपलब्धि की भी चर्चा होनी चाहिए जो आज भी लोगों की ज़िंदगियां बचा रही है और केवल भारत में ही नहीं. भारत-बांग्लादेश सीमा पर शरणार्थी शिविरों में अथक काम करने वाले एक भद्र बंगाली डॉक्टर ने स्वास्थ्य क्षेत्र के सबसे अहम नवाचारों में से एक की शुरुआत की थी जिसके कारण मुख्यत: बच्चों समेत अब तक दुनिया भर में 7 करोड़ से अधिक ज़िंदगियां बचाई जा चुकी हैं.

प्रतिकूल परिस्थिति सभी आविष्कारों की जननी है और 1971 के युद्ध के दौरान शरणार्थी शिविरों में मुसीबत ये आ पड़ी थी कि हैजा की महामारी के कारण वहां सेलाइन ड्रिप का अभाव पैदा हो गया था. इसे देखते हुए बाल रोग विशेषज्ञ और क्लीनिकल वैज्ञानिक डॉ. दिलीप महालनबिस ने जुगाड़ पर भरोसा किया और जॉन्स हॉपकिन्स इंटरनेशनल सेंटर फॉर मेडिकल रिसर्च एंड ट्रेनिंग की मदद से ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्ट सैशे या ओआरएस बनाया.

वह आज 86 वर्ष के हैं और कोलकाता में रहते हैं और अभी भी केंद्र और राज्य सरकारों ने अतिसार या डायरिया संबंधी बीमारियों के खिलाफ ओआरएस के प्रभावी इस्तेमाल की शुरुआत करने के लिए उन्हें अपेक्षित सम्मान नहीं दिया है.

भले ही आज हर कोई ओआरएस जानता है, जिसे मेडिकल जर्नल लांसेट ने 20वीं शताब्दी में ‘चिकित्सा क्षेत्र की संभवत: सबसे महत्वपूर्ण प्रगति’ कहा है लेकिन डॉ. दिलीप महालनबिस को याद करने वाले कम ही लोग होंगे.


यह भी पढ़ें: महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे समृद्ध राज्यों के भीतर भी काफी असमानता, विकास का मॉडल एक जैसा नहीं: स्टडी


शरणार्थी शिविर में हुआ चमत्कार

1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के लाखों लोग बेघर हो गए थे और उन्हें भारत पलायन करना पड़ा था, और उन्हें भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थापित शरणार्थी शिविरों में ठौर मिला था. भोजन, स्वच्छ पेयजल और साफ-सफाई की सुविधा के अभाव में, अधिकांश शरणार्थी हैजा की चपेट में आ गए. जलजनित इस संक्रामक बीमारी से ग्रसित लोग डायरिया का शिकार बनते हैं, जो निर्जलीकरण (डिहाइड्रेशन) और यहां तक कि मौत का भी कारण बनता है.

दिलीप महालनबिस पश्चिम बंगाल के बनगांव के एक शरणार्थी शिविर में मेडिकल सुपरवाइजर थे, जहां स्थिति तब और गंभीर हो गई जहां नसों के ज़रिए दी जाने वाली (आईवी) सेलाइन ड्रिप (उस समय का मानक उपचार) का अभाव हो गया. जैसे-जैसे हैजे का प्रकोप महामारी में तब्दील होता गया, शिविरों में प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की भी कमी होने लगी.

Dr Dilip Mahalanabis | Facebook
डॉ दिलीप महालनबिस | फेसबुक

महालनबिस ने बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को बताया, ‘बनगांव के अस्पताल में दो कमरे थे जहां फर्श पर गंभीर रूप से बीमार हैजे के रोगियों की कतार लगी थी. इन लोगों को आईवी सेलाइन चढ़ाने के लिए आपको वास्तव में उनके उल्टी-दस्त में घुटने टेकने पड़ते थे. वहां पहुंचने के 48 घंटों के भीतर, मुझे लगा कि हम लड़ाई हार रहे हैं क्योंकि वहां पर्याप्त सेलाइन ड्रिप उपलब्ध नहीं था और मेरी टीम के केवल दो सदस्यों को ही आईवी ड्रिप चढ़ाने की ट्रेनिंग प्राप्त थी.’

संकट की उस स्थिति में, कलकत्ता में जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर मेडिकल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (जेएच-सीएमआरटी) के सहयोग से महालनबिस ने शिविर में बीमारों को ओरल रिहाइड्रेशन थेरेपी (ओआरटी) देने का जोखिम लिया. उनकी टीम ने तत्काल इस्तेमाल किया जा सकने वाला ओआरटी सैशे तैयार किया यानि नमक (चार चम्मच), खाने का सोडा (तीन चम्मच) और बाज़ार में उपलब्ध ग्लूकोज़ (20 चम्मच) का मिश्रण (ओआरएस). मरीजों को ओआरएस देने की ज़िम्मेदारी माताओं, रिश्तेदारों, दोस्तों और शिविर में काम कर सकने वाले हरेक व्यक्ति को सौंपी गई.

ज़िंदगियां बचाने की चिंता ने महालनबिस को एक ऐसे उपचार को अपनाने के लिए बाध्य किया जिसकी उस समय तक अनुशंसा भी नहीं की गई थी. तब तक ओआरएस की प्रभावकारिता का अध्ययन प्रयोगशालाओं तक ही सीमित था, उपचार के लिए मंज़ूरी मिलना अभी दूर की बात थी. इस सिलसिले में यहां एक अन्य डॉक्टर का उल्लेख करने की आवश्यकता है— हेमेन्द्रनाथ चटर्जी. वे पहले भारतीय डॉक्टर थे जिन्होंने 1950 के दशक की शुरुआत में कोलकाता में हैजे के 186 रोगियों के इलाज के लिए मुंह से दिए जाने वाले ग्लूकोज-सोडियम इलेक्ट्रोलाइट घोल का उपयोग किया था जोकि आधुनिक ग्लूकोज ओआरएस के जैसा ही था. हालांकि, पूरी परीक्षण प्रक्रिया नहीं अपनाए जाने के कारण, उनके निष्कर्षों का अन्य चिकित्सकों/वैज्ञानिकों ने अनुकरण नहीं किया.

शिविर में ओआरएस उपयोग के परिणाम बहुत आश्वस्तकारी थे. डॉ. महालनबिस की देखरेख में दो हफ्तों के भीतर अस्पतालों में मृत्यु दर 30 प्रतिशत से घटकर 3.6 प्रतिशत रह गई.

उन्होंने कहा, ‘हम बस खुश थे कि हमारा तरीका कारगर रहा और हम लोगों की मदद कर सकते हैं. हमने नमक और ग्लूकोज के मिश्रण को तैयार करने का तरीका बताने वाला एक पर्चा तैयार किया और उसे सीमावर्ती इलाकों में वितरित किया. इस जानकारी को गुपचुप चलाए जाने वाले एक बांग्लादेशी रेडियो स्टेशन से भी प्रसारित किया गया था.’


यह भी पढ़ें: एलएसी पर भारत का राजनीतिक मकसद तो कुछ हद तक पूरा हुआ, अब उसे सीमा विवाद के अंतिम समाधान की कोशिश करनी चाहिए


कारगर रहा ओआरएस

अन्य शरणार्थी शिविरों में भी इसे सफलतापूर्वक बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाने के बाद डब्ल्यूएचओ ने 1978 में ओआरएस को हैजा और बच्चों में डायरिया की बीमारी से लड़ने के लिए मुख्य उपचार के रूप में अपनाया और इसे 105 देशों में लागू किया.

आज यदि आप भूमध्यरेखीय इलाके के किसी भी देश में हैं, तो पूरी संभावना है कि आपने अपने जीवन में कभी न कभी ज़रूर ही 13.5 ग्राम ग्लूकोज़, 2.6 ग्राम सोडियम क्लोराइड, 2.9 ग्राम ट्राइसोडियम साइट्रेट और 1.5 ग्राम पोटेशियम क्लोराइड के मिश्रण का उपयोग किया होगा.

सैशे में उपलब्ध इस मिश्रण को 1 लीटर स्वच्छ पानी में मिलाकर बनाए गए घोल ने अनेकों लोगों को मौत से बचाने का काम किया है और यह डिहाइड्रेशन और तेज़ दस्त— जो अभी भी पांच साल से कम उम्र के लगभग 5,25,000 बच्चों की जान लेता है— के खिलाफ़ सर्वाधिक अनुशंसित दवा है.

इस समय दुनिया भर में हर वर्ष ओआरएस के लगभग 500 मिलियन सैशे का उत्पादन होता है. लगभग 20 रुपये प्रति पैक की किफायती कीमत के साथ, अकेले भारत में ही इसका सालाना 160 करोड़ रुपये का बाजार है, जोकि इस उपचार की लोकप्रियता को दर्शाता है. तभी तो हर साल 29 जुलाई को विश्व ओआरएस दिवस के रूप में मनाया जाता है.

1970 के दशक में डब्ल्यूएचओ की जीवाणुजनित रोग इकाई के प्रमुख और महालनबिस के संरक्षक रहे डॉ. धीमान बरुआ इस कम लागत वाली दवा की प्रभावशीलता के बारे में आश्वस्त थे. एक लेख में, महालनबिस ने लिखा था कि उन्होंने नहीं बल्कि डॉ. बरुआ ने ‘इसे डब्ल्यूएचओ के दायरे से निकालकर वैश्विक पहल बनाने का काम किया था’. यह सफर आसान नहीं था. उन्हें चिकित्सा बिरादरी को ये समझाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी कि निर्जलीकरण की प्रक्रिया को कहीं कम जोखिम के साथ ओरल रीहाइड्रेशन की मदद से संभाला जा सकता है, और चिकित्सकीय निगरानी के बिना भी.

बाद के अध्ययनों से पता चला कि ओआरएस का समय से उपयोग हैजा के 80 प्रतिशत रोगियों को सफलतापूर्वक ठीक कर सकता है जिनमें वयस्क और बच्चे दोनों शामिल हैं.


यह भी पढ़ें: राजद्रोह कानून के जरिए अब नागरिक चेतना को नहीं दबाया जा सकता, मोदी सरकार को यह समझना होगा


जनस्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार

जनस्वास्थ्य के क्षेत्र में इस उल्लेखनीय योगदान के लिए महालनबिस को 1994 में रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ का सदस्य चुना गया. उन्हें 2002 में अमेरिका का पॉलिन पुरस्कार और 2006 में थाईलैंड सरकार की ओर से प्रिंस माहिडोल पुरस्कार मिला.

कलकत्ता मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल से स्नातक महालनबिस ने 1966-70 के दौरान जॉन्स हॉपकिन्स सेंटर में हैजा और अतिसार से जुड़े अन्य रोगों का अध्ययन किया था और वे डब्ल्यूएचओ के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे. वह 1995 में इंटरनेशनल सेंटर फॉर डायरियल डिजीजेज एंड रिसर्च, ढाका के निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए.

ये हैरानी की बात है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतने सम्मानित व्यक्ति को खुद अपने देश में पर्याप्त पहचान नहीं मिल पाई.
डायरिया संबंधी रोगों से होने वाली मौत को रोकने में ओआरएस की सफलता के बावजूद, डायरिया आज भी बच्चों की बीमारी और मौत की वजह बनने वाले शीर्ष 10 रोगों में तीसरे नंबर पर है. इसका प्रमुख कारण है खासकर कम और मध्ययम आय वाले देशों में, जहां साफ पेयजल की उपलब्धता और स्वच्छता एक गंभीर चुनौती है, ओआरटी का अपर्याप्त कार्यान्वयन.

हाल ही में जारी नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी राज्य डायरिया के इलाज के लिए ओआरएस की क्षमताओं का पूर्ण इस्तेमाल नहीं कर रहा है. उदाहरण के लिए, बिहार में सर्वेक्षण से पहले के दो हफ्तों की अवधि में डायरिया का प्रभाव 14 प्रतिशत था, पर वहां केवल 58 प्रतिशत बच्चों को इस अवधि में ओआरएस दिया गया था, यहां तक कि ओआरएस के इस्तेमाल में सबसे आगे रहने वाले राज्य पश्चिम बंगाल में भी डायरिया प्रभावित बच्चों में से केवल 75 प्रतिशत को ओआरएस घोल दिया गया था.

डायरिया के इलाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाले व्यक्ति को अपेक्षित मान्यता देने और उनके लक्ष्यों के अनुपालन में अभी भी देर नहीं हुई है. डॉ. महालनबिस को सम्मानित करने का सबसे बढ़िया तरीका है एक मज़बूत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण जहां रोगियों को ओआरएस जैसे बुनियादी और सस्ते उपचार देने में कोई कोताही नहीं की जाती हो.

(लेखिका नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए) से संबद्ध हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: हैबियस पोर्कस: ‘जेल नहीं बेल’ के सिद्धांत का कैसे हमारी न्यायपालिका गला घोंट रही है


 

share & View comments