कभी-कभी, हमारी राजनीति में कुछ चीजें इतनी अजीब और बेतुकी होती हैं कि वह आपको जोर से हंसने पर मजबूर कर देती हैं. और कभी-कभी, यह सब इतना हास्यास्पद लगता है कि आप इस पर व्यंग्यपूर्ण तरीके से और दुःखी होकर हंसते हैं. क्योंकि यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो आप अपनी आंखों के सामने हमारी राजनीतिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ते हुए देखकर रोएंगे.
मंगलवार को हमने एक चुनाव के दौरान इसका उदाहरण देखा जिसका कोई बड़ा परिणाम नहीं होना चाहिए था. चंडीगढ़ के मेयर को चुनने के लिए मतदान सबसे पहले पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह ने इस आधार पर स्थगित कर दिया था कि उन्हें पीठ में दर्द है. जब उन्होंने मतदान होने देने की कृपा की, तो परिणाम की भविष्यवाणी करना आसान होना चाहिए था: कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) गठबंधन कर चुके थे, और साथ में उनके पास स्पष्ट बहुमत था.
लेकिन नहीं, भारतीय जनता पार्टी द्वारा नियुक्त पीठासीन अधिकारी और भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के पूर्व महासचिव ने घोषणा की कि भाजपा उम्मीदवार मनोज सोनकर जीत गए हैं. मसीह ने इसके लिए एक सरल उपाय अपनाया कि विपक्ष के 12 में से आठ वोटों को अवैध घोषित कर दिया.
इसके बाद वह नगर निगम सदन से चले गए क्योंकि हाथापाई होनी शुरू हो गई और कथित तौर पर कुछ मतपत्र नष्ट कर दिए गए.
मतपत्रों को अवैध क्यों घोषित किया गया? क्योंकि पीठासीन अधिकारी के दावे के मुताबिक उन पर निशान थे. यह सच हो भी सकता है और नहीं भी, सिवाय इसके कि टीवी फ़ीड में दिखाया गया है कि अधिकारी खुद कागज़ों पर छोटे-छोटे निशान बना रहे थे. क्या वह उन्हें खराब करने की कोशिश कर रहे थे?
हां, विपक्ष का ऐसा मानना है. लेकिन जब पीठासीन अधिकारी टीवी कैमरों के सामने आए तो कहा- अरे नहीं, विपक्षी नेताओं ने पेपर्स खराब कर दिए.
मामला अब पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष है, लेकिन सुर्खियां पहले ही लिखी जा चुकी हैं और समाचार चैनलों ने अपना काम कर दिया है: उन्होंने खुशी के साथ घोषणा की “इंडिया गठबंधन के लिए झटका.”
मेयर के चुनाव में इस तरह के शर्मनाक व्यवहार में शामिल होना न सिर्फ दिखाता है कि आज की भारतीय राजनीति कितनी बेतुकी हो चुकी है बल्कि भारतीय राजनीति में व्याप्त स्तरहीनता की भी ओर इशारा करता है: आप वही करते हैं जो आपको पसंद है क्योंकि आपको विश्वास है कि आप ऐसा करके बच सकते हैं.
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सबसे बड़ा दलबदल
आइए एक और अधिक गंभीर मामले पर विचार करें: प्रसिद्ध बिहारी एक्रोबेट, जनता दल (यूनाइटेड) के अध्यक्ष नीतीश कुमार की नवीनतम कलाबाजी का उदाहरण लेते हैं.
भारतीय गठबंधन में मुख्यमंत्री के पूर्व सहयोगियों के बीच वर्तमान आम सहमति यह है कि उन्होंने स्वेच्छा से पक्ष नहीं बदला है. वह ऐसा क्यों करेंगे? विधानसभा चुनाव, जिसमें राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ उनके गठबंधन के भले ही हार के चांसेज हो, अभी कई महीने दूर है. और बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उनकी स्थिति को कोई खतरा नहीं था.
उनके दलबदल से एकमात्र फर्क यह पड़ेगा कि इससे आगामी लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा का वोट शेयर बढ़ेगा. इससे कुमार या उनकी पार्टी जद (यू) पर बहुत फर्क पड़ने की संभावना नहीं है. ज्यादातर सीटें बीजेपी को मिलेंगी. और भले ही कुमार अगले विधानसभा चुनाव तक भाजपा के साथ गठबंधन में रहें, और वे एक साथ जीतें, कोई भी उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनाएगा. बीजेपी ने मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान को पद छोड़ने के लिए कह दिया तो वे कुमार के प्रति उदारता क्यों दिखाएंगे?
दूसरी ओर, सिद्धांतों वाले नेता के रूप में नीतीश कुमार की जो थोड़ी-बहुत प्रतिष्ठा बची थी, वह भी अब धूल में मिल गई है. बार-बार गठबंधन बदलना उनके छिछलेपन और सत्ता के लिए उनके लालच के रूप में देखा जा रहा है. अपने करियर के इस पड़ाव पर, जबकि उनके मुख्यमंत्री पद को कोई खतरा नहीं है, उन्हें अपने इस हालिया कूद-फांद से कोई ज्यादा फायदा नहीं होगा.
इसलिए यह सुझाव, गुप्त रूप से और अब उनके इंडिया गुट के पूर्व सहयोगियों द्वारा दिया जा रहा है, कि उन्होंने दबाव में भाजपा के साथ गठबंधन किया. कोई यह नहीं बताएगा कि आखिर उन पर क्या दबाव था, लेकिन वे ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि केवल यही स्पष्टीकरण तथ्यों पर फिट बैठता है.
शायद. लेकिन यह बात स्पष्ट है कि बीजेपी के साथ जुड़ने के पहले और बाद में, नीतीश कुमार खेमे और खुद उनके द्वारा आने वाले बयानों में पहले से ही एक निश्चित बेतुकापन था. उनके मंत्रियों द्वारा कहना है कि कांग्रेस और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नीतीश कुमार को इंडिया गठबंधन (संयोजक, शायद?) में शीर्ष पद का दावा करने से रोकने के लिए मिलकर काम किया है. भले ही यह सच है – लेकिन इसके आधार पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता – फिर भी यह नीतीश कुमार पर बहुत बुरा प्रभाव डालता है. वास्तव में, उनके आदमी जो कह रहे हैं, वह यह है: वह एक बिगड़ैल बच्चा है. यदि आप उन्हें नेता नहीं बनाते हैं, तो निश्चित रूप से वह कुछ महीने पहले भाजपा के बारे में कही गई हर भयानक बात को तुरंत भूल जाएंगे और तुरंत जाकर उससे हाथ मिला लेंगे.
नीतीश कुमार खेमे में किसी को भी इस बात का एहसास नहीं है कि यह कितना बेतुका लगता है.
गठबंधन को झटका
फिर इंडिया की बैठकों में कुमार के व्यवहार का मामला है, जिसके बारे में पूर्व सहयोगी अब बात करने लगे हैं. संभवतः वह चाहते थे कि गठबंधन को आईएमएफ कहा जाए. जब उन्हें यह बताया गया (संभवतः ममता द्वारा) कि ये शब्द पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के लिए प्रयोग किया जा रहा है, तब भी वे इस बात से सहमत नहीं हुए.
इसके बाद उन्होंने इस आधार पर इंडिया नाम पर कड़ी आपत्ति जताई कि इसमें ‘एनडीए’ अक्षर शामिल हैं और इसलिए उन्होंने भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (जिसका वह कभी-कभी हिस्सा रहे हैं) की यादें ताजा कर दीं. इससे इंडिया गठबंधन के अन्य नेताओं को कोई चिंता नहीं हुई, जिनका कहना था कि गठबंधन को इसके शुरुआती अक्षरों से नहीं, बल्कि पूरे एक शब्द ‘इंडिया’ के रूप में जाना जाएगा. “ठीक है,” नीतीश कुमार ने कहा, “पर क्या हम इंडिया में N की जगह M अक्षर रख सकते हैं?”
अब तक खतरे की घंटियां बजनी शुरू हो गई थीं. क्या नीतीश कुमार बिल्कुल सीधे तरीके से सोच रहे थे? क्या उनका वास्तव में गठबंधन के नाम पर फोकस करने और छोटी-छोटी आपत्तियां जताने का इरादा था? गठबंधन दलों के भीतर पहले से ही इस बात पर पर्याप्त राय थी कि नीतीश कुमार की चुनावी ताकत सीमित है. क्या सचमुच उन्हें उनकी हर इच्छा पूरी करने की ज़रूरत थी? (रिकॉर्ड के लिए, वे इस बारे में गलत हैं: कुमार और भाजपा मिलकर एक मजबूत चुनावी गठबंधन बनाते हैं और भाजपा लोकसभा चुनाव में बिहार की अधिकांश सीटें जीतेगी.)
जहां तक मुझे पता है, कुमार ने उन परिस्थितियों के बारे में विस्तार से बात नहीं की है जिसके कारण उन्हें अपने कथित सिद्धांतों को दरकिनार करके दूसरी तरफ कूदना पड़ा. इसलिए, शायद हमें उनके सहयोगियों द्वारा दिए गए कारणों को स्वीकार करने में सतर्क रहना चाहिए, खासकर जब से वे चोरी-चुपके दिए गए हैं.
लेकिन यह, एक बार फिर, आज की राजनीति के बेतुकेपन की ओर इशारा करता है: मतपत्रों को सार्वजनिक तौर पर खराब कर दिया जाता है; शुरुआती अक्षरों को लेकर मूर्खतापूर्ण झगड़े छिड़ जाते हैं; और वही लोग जो विपक्ष को एकजुट होने का आह्वान करते हैं, अचानक और जल्दी से अपना मन बदल लेते हैं और दूसरी तरफ भाग जाते हैं.
मैं कभी भी इंडिया गठबंधन का बहुत बड़ा प्रशंसक नहीं रहा, जो अनिवार्य रूप से पूर्व कांग्रेस सदस्यों और कांग्रेस से नफरत करने वालों का एक समूह है, जो भाजपा से लड़ने के लिए सुविधा के गठबंधन में एक साथ लाए गए हैं. जैसे ही कुछ भी गलत होता है, उनकी त्वरित प्रतिक्रिया कांग्रेस को दोष देने की होती है.
लेकिन पिछले हफ्ते की घटनाएं हमें याद दिलाती हैं कि किसी भी विपक्षी गठबंधन के लिए बीजेपी से लड़ना – हराना तो दूर की बात है – कितना कठिन होने वाला है. चुनावों में हेरफेर किया जाता है, मीडिया सरकार के पोमेरेनियन की तरह व्यवहार करता है, और तथाकथित विपक्षी नेताओं का कोई सिद्धांत नहीं है.
इसलिए, नरेंद्र मोदी को तीसरी बार जीतने से रोकना असंभव होगा. वैसे भी, मुझे नहीं लगता कि भाजपा की जीत को लेकर कभी कोई संदेह था. लेकिन मोदी का काम बहुत आसान हो गया.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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