नई दिल्ली: भारत और चीन के बीच सीमा पर बने गतिरोध पर आज जब देश और विदेशों में बहुतों की नज़र है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पुन: एक दृढ़ और मज़बूत चीन नीति पर ज़ोर देता है, जिसकी वह 1950 के दशक से ही लगातार मांग करता रहा है.
लेकिन अब इस नीति में सामरिक पहलू के अलावा आर्थिक पहलू को भी जोड़ा गया है- ताकि आरएसएस से जुड़े विभिन्न संगठनों द्वारा चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के आह्वान के अनुरूप ये अधिक प्रभावी बन सके.
हाल ही में आरएसएस समर्थित स्वदेशी जागरण मंच (एसएलएम) और कई अन्य संगठनों ने कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र स्वदेशी आंदोलन शुरू किया है, जोकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के आह्वान में भी प्रतिध्वनित हुआ है.
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एसजेएम के अभियान में जहां तक संभव हो सके विदेशी उत्पादों की जगह भारतीय उत्पादों के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया गया है. इस अभियान का भारतीय बाज़ार के हर सेक्टर में गहरी पैठ बना चुकी चीनी कंपनियों पर भारी असर पड़ने वाला है. एसजेएम और आरएसएस प्रेरित कई अन्य संगठनों द्वारा आत्मनिर्भर भारत के पक्ष में महीने भर का आंदोलन (जून की शुरुआत में आरंभ) चलाया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप चीनी वस्तुओं का बहिष्कार शुरू हो गया है.
‘विस्तारवाद साम्यवाद की प्रमुख विशेषता है’
आरएसएस हमेशा से चीन को लेकर सतर्कता बरते जाने का हामी रहा है और उसने निरंतर सरकारों से चीन के मामले में लापरवाही नहीं बरतने का आग्रह किया है. संघ 1962 में चीन के हाथों पराजय के लिए जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को दोषी मानता है.
आरएसएस के 2012 में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया था, ‘ये बात सर्वमान्य है कि 1962 की पराजय अनिवार्यत- देश के राजनीतिक और कूटनीतिक नेतृत्व की वजह से हुई थी. तत्कालीन नेतृत्व सरदार पटेल और श्री गुरुजी (आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर) समेत अनेक प्रमुख हस्तियों की बातों को अनसुना करते हुए अपनी रूमानी विश्वदृष्टि पर कायम रहा और उसने ज़मीनी हकीकत को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया. चीन ने पहले तिब्बत को हड़पा और फिर हमारे इलाक़े पर हमला किया.’
वास्तव में आरएसएस 1950 के दशक से ही चीन के खिलाफ़ मुखर रहा है और उसने चीन के विस्तारवादी रवैये के विरुद्ध हमेशा एक मज़बूत ‘चीन नीति’ पर ज़ोर दिया है.
दिल्ली के रामलीला मैदान में 23 दिसंबर 1962 को एक जनसभा को संबोधित करते हुए गोलवलकर ने कहा था, ‘चीन की विस्तारवादी प्रवृति का एक प्रमुख कारण है उसका कम्युनिस्ट शासन के अधीन होना और ‘विस्तारवाद साम्यवाद की एक प्रमुख विशेषता है.’
उल्लेखनीय है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की चीन नीति का विरोधी होने के बावजूद उन्होंने सभी पक्षों से अपने मतभेदों को भुलाते हुए चीन के खिलाफ़ नेहरू सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों के समर्थन का आह्वान किया था.
‘हमें इस वक्त सारे राजनीतिक मतभेदों को भुलाते हुए सिर्फ एक बात याद रखनी चाहिए कि हम शत्रु से युद्ध कर रहे हैं और हमें एक राष्ट्र के रूप में एकजुट रहना चहिए.’
चीन से युद्ध के दौरान ही गुरुजी ने 5 नवंबर 1962 को नागपुर से एक पत्र जारी किया था जो वर्तमान परिस्थितियों में और भी अधिक प्रासंगिक है. उन्होंने नेहरू सरकार को आगाह किया था कि चीन भारत के खिलाफ़ नेपाल का इस्तेमाल करने की कोशिश कर सकता है, इसलिए ‘हमें नेपाल के साथ करीबी और सौहार्दपूर्ण संबंधन बनाना चाहिए… यदि हम ऐसा नहीं कर पाए, तो हमारी मुश्किलें बढ़ जाएंगी.’
चीन पर आरएसएस का 2012 का प्रस्ताव
भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के 50 साल पूरे होने के अवसर पर आरएसएस ने 2012 में चेन्नई में एक प्रस्ताव पारित किया. प्रस्ताव अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल (एकेबीएम) की एक बैठक में पारित किया गया, जोकि नीति निर्माण और निर्णय से जुड़े आरएसएस के सर्वोच्च निकायों में एक है.
प्रस्ताव में चीन नीति पर आरएसएस के दृष्टिकोण का खुलासा किया गया था. चीन को लेकर गहरी चिंता के इजहार के साथ ही प्रस्ताव में चीन के विरुद्ध तत्काल ‘एक व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की आवश्यकता’ पर ज़ोर दिया गया था.
प्रस्ताव में कहा गया, ‘चीन ने अपने सामरिक उद्देश्यों के अनुरूप भारत-तिब्बत सीमा पर आधारभूत ढांचों के निर्माण और उन्हें समुन्नत बनाने का काम किया है, जिनमें एयरबेसों का नेटवर्क, मिसाइल लॉन्चिंग पैड, कैटोनमेंट और अन्य भौतिक निर्माण शामिल हैं. एबीकेएम सरकार से मांग करता है कि सीमा पर चीन के आक्रामक क्रियाकलापों से कारण बढ़े ख़तरों के मद्देनज़र, भारत को भी सीमा प्रबंधन और सुरक्षा तैयारियों पर पर्याप्त निवेश करना चाहिए.’
प्रस्ताव में आगे कहा गया, ‘आधुनिक युद्ध केवल सीमाओं पर ही नहीं लड़े जाते हैं. हमें तेजी से प्रगति कर रहे चीन को ध्यान में रखते हुए व्यापक सैन्य तकनीकी श्रेष्ठता विकसित करने की आवश्यकता है.’
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चीन द्वारा वर्तमान में पेश चुनौतियों से बहुत पहले प्रस्ताव में कहा गया था, ‘भारत में ऊर्जा, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी, उद्योग और वाणिज्य जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में चीन की गहरी पैठ, और हमारी नदियों के जल को मोड़ने का उसका मंसूबा गंभीर चिंता का कारण हैं.’
प्रस्ताव में कहा गया, ‘एबीकेएम साइबर प्रौद्योगिकी और संचार के क्षेत्र में चीनी ख़तरे को रेखांकित करता है. चीन ने मज़बूत साइबर युद्ध क्षमता विकसित करने में भारी निवेश किया है जिसके सहारे वह अमेरिका जैसे उन्नत देशों की तकनीकी क्षमताओं को भी पंगु बना सकता है. वे देश भी इस चीनी ख़तरे को लेकर चिंतित हैं और जवाबी क़दम उठा रहे हैं. वैसे तो उच्च तकनीक वाले क्षेत्रों में हमारी प्रगति उल्लेखनीय है, लेकिन एबीकेएम सरकार से आग्रह करता है कि वह हमारी साइबर सुरक्षा क्षमता बढ़ाने को भी आवश्यक महत्व दे.’
भारत की चीन नीति पर आरएसएस के रुख़ को और भी स्पष्ट करते हुए प्रस्ताव में कहा गया, ‘भारत ने विभिन्न देशों के साथ अच्छे संबंधों के लिए हमेशा प्रयास किया है. लगभग दो दशक पहले हमने नई ‘लुक ईस्ट नीति’ अपनाते हुए पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से घनिष्ट संबंध बनाना शुरू किया.’
‘हम सदैव दुनिया में शांति के हिमायती रहे हैं. इन उदात्त आदर्शों की प्राप्ति के लिए, एबीकेएम सरकार से 1962 के अनुभवों से सबक सीखने और चीन के संदर्भ में एक व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देने का आग्रह करता है.’
(इस लेख में प्रयुक्त एमएस गोलवलकर के सारे उद्धरण ‘श्री गुरुजी समग्र, खंड 10’ से लिए गए हैं.)
(लेखक आरएसएस से संबद्ध इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र के सीईओ हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं.)
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