किसी भी वित्त मंत्री को आम तौर पर पता होता है कि जूता पैर को कहां पर काट रहा है. कमाई कम हो रही है, घाटा बहुत ज्यादा है, न मुद्रास्फीति की दर वह है जो होनी चाहिए और न आर्थिक वृद्धि की दर वह है जो अपेक्षित है… मुश्किलों की फेहरिश्त जानी-पहचानी है. वित्त मंत्री को यह भी पता होता है अर्थव्यवस्था की गाड़ी का कौन-सा पहिये आवाज़ कर रहे हैं, और इस साल तो वे जरूरत से ज्यादा आवाज़ कर रहे हैं. समस्या यह है कि जो पहिये बिलकुल नाकाम हो चुके हैं उन्होंने आवाज़ करना भी बंद कर दिया है या दिल्ली के शोर में उनकी आवाज़ भी नहीं सुनाई दे रही है— उन लाखों लोगों की, जिन्हें कोरोना महामारी ने फिर से गरीबी में धकेल दिया है. उनकी संख्या दूसरे देशों के मुक़ाबले भारत में सबसे बड़ी बताई जा रही है और यह भारत गरीबों की गिनती में आ रही धीमी गिरावट की रफ्तार को उलट देगी. बजट के तमाम तरह के लक्ष्यों— चाहे वे व्यापक अर्थव्यवस्था से जुड़े हों या सेक्टर केन्द्रित हों, राजस्व से जुड़े हों या सुधारों से. इस वर्ग को कतई नहीं भूलना चाहिए.
सबसे ताजा आर्थिक संकेतक बताते हैं कई व्यवसाय वापस अपनी सामान्य जैसी स्थिति में आ रहे हैं इसलिए सुर्खियां उत्साहवर्द्धक हो रही हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश और आर्थिक सर्वेक्षण, दोनों ने इस साल के गारते से निकलकर अगले साल के लिए व्यापक, दहाई अंक वाली वृद्धि दर की भविष्यवाणी की है. उम्मीद की जानी ही चाहिए कि वे सही कह रहे हैं, क्योंकि इससे वित्त मंत्री को राजस्व में उछाल की उम्मीद इसलिए जागेगी और इसलिए वे इस साल के मुख्य भुक्तभोगियों की जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित करेंगी. उनमें कई लाख वे लोग हैं जिनका रोजगार छिन गया और अभी भी वे बेरोजगार हैं. कई लोग वेतनभोगी से अनौपचारिक रोजगार बाज़ार में या अंशकालिक रोजगार करने और आय में कमी झेलने के लिए मजबूर हुए हैं. सबसे बड़ा नुकसान महिलाओं का हुआ है. रोजगार बाज़ार में उनकी हिस्सेदारी पहले से ही कम थी, अब वह और घटकर आधी रह गई है.
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इस तरह के संकट सबसे खतरनाक हैं, क्योंकि नीति निर्माता आम तौर पर इन पर ध्यान नहीं देते. ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ में सौभिक चक्रवर्ती और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में मनीष तिवारी ने पिछले कुछ दिनों में लिखा है कि नये कृषि क़ानूनों के पहले से ही पंजाब की अर्थव्यवस्था बहुआयामी संकट में फंसती जा रही थी. इसने पंजाब के किसानों के विरोध को भड़काया. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को पता होगा कि कोरोना महामारी की कारण, ये दबी हुईं समस्याएं आज ज्यादा तीखी हो गईं हैं. वे इनका क्या उपाय करती हैं उसी के आलोक में उस बजट को परखा जाएगा, जिस बजट के बारे में दावा किया जा रहा है कि वह ‘अभूतपूर्व’ होगा.
गनीमत है कि रोजगार की हानि कुछ खास सेक्टरों में ही सीमित रही है, लेकिन उसका असर चौतरफा पड़ा है. मुफ्त अनाज वितरण, ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम के लिए ज्यादा बजट, लघु व्यवसायों के लिए नकदी के समर्थन जैसे कुछ राहत के उपाय किए गए हैं. लेकिन और ज्यादा कुछ, तथा ज्यादा समय तक करने की जरूरत है. इसका अर्थ यह है कि पिरामिड के सबसे नीचे पड़े लोगों को एक साल और भुगतान देकर उपभोग को बढ़ावा दिया जाए, और रोजगार गारंटी योजना के लिए और ज्यादा पैसे दिए जाएं. इसका अर्थ यह भी है कि नियोक्ताओं को प्रोत्साहित किया जाए कि वे कामगारों को उपयुक्त प्रोत्साहन देकर वापस काम पर बुलाएं, खासकर उन सेक्टरों में जो महामारी से प्रभावित हुए हों. इसके अलावा सरकार निर्माण जैसे सेक्टरों पर ज्यादा खर्च करे, जिनमें रोजगार की ज्यादा गुंजाइश है. जिन औद्योगिक क्षेत्रों से कामगारों का ज्यादा पलायन हुआ है उनके लिए विशेष योजनाएं लागू की जाएं. इसका अर्थ यह होगा कि छोटे व्यवसायों को ज्यादा नकदी समर्थन देने का प्रावधान बजट में किया जाए क्योंकि उसमें से ज्यादा पैसा वपास नहीं लौट सकता है. यह सब संकट निवारण के फौरी उपाय होंगे, न कि भारत के बहुआयामी दीर्घकालिक चुनौतियों से निबटने के कदम.
इन सबके लिए पैसा कहां से आएगा? जिस ‘एक प्रतिशत’ की बात की जाती है, जो अपना टैक्स ईमानदारी से भरते हैं उन पर भारत में कम टैक्स नहीं वसूला जाता. फिर भी आपको वहीं जाना पड़ेगा, जहां पैसा है, जिन्होंने शेयर बाजार में उछाल का लाभ उठाया है, या जिनके पास खर्च करने से कहीं ज्यादा पैसे जमा हैं. इसलिए इस तरह के असामान्य समय में ऐसे स्रोतों का दोहन करना होगा. यह टैक्स आय या संपत्ति पर लगाया जा सकता है या कंपनी के लाभ पर सरचार्ज के रूप में हो सकता है, जो बिक्री के लिहाज से एक सीमा के ऊपर लाभ पर लगाया जा सकता है. इनमें से किसी उपाय को लोग पसंद नहीं करेंगे लेकिन इनके असर को कम किया जा सकता है बशर्ते कर आदि समय पर वसूले जाएं और उस पैसे का इस्तेमाल केवल कोविड के कुपरिणामों को दूर करने के लिए किया जाए.
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