जीरो बजट खेती का मूल मंत्र यह है कि यदि किसान अपने ही खेत में मेहनत कर रहा है तो उसकी दैनिक मजदूरी का कोई मूल्य नहीं है. प्रत्यक्ष रूप से तो उसे वैसे भी कुछ नहीं मिलता लेकिन जीरो बजट में सरकार कागज पर भी इसे जीरो ही मानेगी.
नीति आयोग में बैठे नीति नियंता देश के किसान के बारे में उससे भी ज्यादा जानते हैं और यही तथ्य उन्हें भरोसा देता है कि कृषि कानूनों पर मुंह की खाने के बावजूद खेती की योजनाएं बिना किसानों से बात किए बनाई और लागू की जा सकती हैं.
जीरो बजट खेती का मतलब होता है ऐसी जैविक खेती जिसमें भरपूर फसल हो और जेब से एक कौड़ी भी खर्च न हो, साथ ही जमीन की सेहत भी अच्छी बनी रहे, पानी कम लगे वगैरह वगैरह.
वैसे केंद्र सरकार के पास ऐसा कोई प्रमाणिक अध्ययन नहीं है जो बताता हो कि प्राकृतिक रूप से जैविक खेती मुनाफा दे रही है और इसमें किसी तरह पूंजी की जरूरत नहीं होती. फिर भी जीरो बजट प्राकृतिक खेती को ट्राफी की तरह ही पेश किया जा रहा है.
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खेतों में झाड़ियां और आवारा पशु
बहरहाल, ठीक प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में गंगा के ऊपरी धारा पर प्रयागराज की ओर थोड़ा ही आगे बढ़िए तो प्राकृतिक खेती की अनमोल तस्वीरे देखने को मिलती है. वाराणसी से लेकर मिर्जापुर, भदोही और प्रयागराज के हजारों हेक्टेयर खेतों में कांस की खूबसूरत झाड़ियां नजर आती हैं. लहलहाती कांस बताती है कि किसानों ने खेतों में आना छोड़ दिया है.
वैसे यहां काली और दोमट मिट्टी की बेहतरीन उपजाऊ जमीने हैं और सिंचाई के लिए गंगा का पानी उपलब्ध है. बावजूद इसके खेती न होने का कारण सैकड़ों छुट्टे पशु और नील गाय हैं. किसानों को आवारा घूमती गायें यमराज के भैसें के समान दिखाई देती हैं.
इस इलाके में ज्यादातर छोटी जोत के किसान हैं. औसतन एक या दो बीघा वाले किसान. घर में दूध न देने वाली गाय के चारे का इंतजाम बेहद मुश्किल होता है. मजबूरन उसे घर से दूर छोड़ दिया जाता है. सिर्फ इलाहाबाद से वाराणसी के बीच यह संख्या लाखों में हैं. गौ प्रेमी सरकार ने गाय को कसाईखाने ले जाने पर रोक लगा दी है. नील गाय को भी मारने में पाबंदी है. बावजूद इसके गोवंश तेजी से घट रहा है.
जब एक किसान अपनी कुछ बिस्वा में बोई सब्जी को चरते हुए देखता है तब वह उस गौवंश के साथ बेहद हिंसक व्यवहार करता है. गाय पर एसिड फेंकना, करंट लगाना, या तार के कांटों से बंधे डंडे से गाय को मारना एक आम बात है. यह काम कोई हिंदू या मुसलमान नहीं करता, यह काम एक किसान करता है. ठंड से गाय का मरना भी बढ़ रहा है. किसान भी मर ही रहा है, प्रधानमंत्री ने उसके खाते में 2000 रुपए भेजे हैं जिससे परिवार का पेट पूरे सीजन नहीं भरा जा सकता. जीरो बजट खेती से पहले खेत की सुरक्षा जरूरी है, जिसके लिए कोई योजना नहीं है. एक एकड़ खेत में तार बांधना अच्छा खासा खर्चीला काम है और बिना बाउंड्री खेती करना अब लगातार मुश्किल होता जा रहा है.
जीरो बजट खेती को सफल होने में लगेंगे 3 साल
जीरो बजट खेती के प्रणेता सुभाष पालेकर खुद मानते हैं कि इस सिस्टम को सफल होने में तीन साल लगते हैं. वह भी तब जब मौसम लगातार अनुकूल हो. अब सवाल यह है कि तीन साल तक फसल में कमी का खामियाजा कौन भुगतेगा. साथ प्रधानमंत्री के पसंदीदा वादे – ‘2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी’ का क्या होगा. इस हिसाब से छोटी जोत के लाखों किसानों की रोजी रोटी की चिंता किए बिना उन्हें जीरो बजट का पहाड़ा रटने की सलाह दी जा रही है. जबकि जमीन की गुणवत्ता की जिम्मेदारी सिर्फ किसान की नहीं है, बड़ी मात्रा में कीटनाशकों का इस्तेमाल के पीछे सरकारी नीतियां हैं ना कि किसानों का लालच.
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दूनिया में कहीं भी जीरो बजट खेती को पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका है लेकिन यह सर्वविदित तथ्य है कि अमेरिका और यूरोप अपने किसानों को बचाने के लिए बड़ी मात्रा में सब्सिडी प्रदान करते हैं. हमारे यहां मौसम की मार से खराब फसल के बीमा दावे भी अंजाम तक नहीं पहुंच पाते.
हमारी सच्चाई यह है कि पूरे गंगापथ के किसान तेजी से खेती से मुंह मोड़ रहे हैं और मजबूरीवश शहरों में रिक्शा खींचने को मजबूर हैं. जीरो बजट खेती पर बात करने के लिए हमें काफी दूरी तय करनी होगी. भारत एक बड़े पर्यावरणीय विस्थापन का गवाह बन रहा है और हम उसे रोकने के लिए प्रयासरत भी नहीं हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनका निजी विचार हैं)
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