आर्टिकल 15 की शुरुआत एक लोकगीत से होती है और फिल्म के अगले सीन में अमेरिकी गायक बॉब डिलन का एक गाना है. लोकगीत और बॉब डिलन के बीच एक खाई है जो दोनों को सुनने वालों को अलग करके रखती है. ये भारत और इंडिया के बीच का अंतर है. एक तरफ लोकगीत सुनने वाला भारत है और दूसरी तरफ वैश्वीकरण के बाद तेज़ी से ‘विश्व शक्ति’ बनता बॉब डिलन सुनने वाला इंडिया. फिल्म में इंडिया तक ये संदेश पहुंचाने की कोशिश की गई है कि भारत की 70% आबादी के बीच जातिगत पहचान का अभी बाल भी बांका नहीं हुआ.
आज़ादी के लंबे अर्से बाद भी संविधान की नहीं चलती
इसी में फिल्म का संदेश छुपा है कि जिस संविधान की कसमें खाई जाती हैं उसी की नहीं चलती. संविधान के आर्टिकल 15 में दिए गए समानता के अधिकार के बावजूद पहचान और ख़ासकर जाति आधारित भेदभाव आज़ादी के लंबे अर्से बाद भी अपने सबसे अमानवीय रूप में जारी है और निकट समय में इसका कोई हल नज़र नहीं आता.
यह भी पढ़ेंः ‘आर्टिकल 15’ के लेखक ने क्यों कहा- हमारी फ़िल्म जितनी जल्दी अप्रासंगिक हो जाए, उतना अच्छा है
फिल्म के हीरो आयुषमान खुराना का किरदार अयान एक ब्राह्मण आईपीएस अधिकारी है. ब्राह्मण या ‘ऊंची जातियों’ में जन्म लेने वालों के पास कई तरह के ‘विशेष अधिकार’ होते हैं. संविधान समिति के अध्यक्ष भीमराव आंबेडकर ने जाति को एक ‘धारणा या मानसिक स्थिति’ कहा है. संविधान का आर्टिकल-15 इसी ‘धारणा’ और इन्हीं विशेष अधिकारों की वजह से होने वाले भेदभाव का हल है.
आर्टिकल-15 एक मौलिक अधिकार है और इसके मुताबिक पहचान के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जा सकता. जाति भारतीय समाज की सबसे बड़ी पहचान है और इसी वजह से भेदभाव का सबसे बड़ा कारण भी. फिल्म में खुराना का किरादर जाति से तो ब्राह्मण है, लेकिन ‘मानसिक स्थिति’ से नहीं और उसका विश्वास आंबेडकर द्वारा संविधान में दिए गए हल में है.
अगर फिल्म ब्राह्मण विरोधी होती तो इसका सबसे अहम किरदार ब्राह्मण नहीं होता. हां, फिल्म आंबेडकर द्वारा एक ‘मानसिक स्थिति’ बताए गई जाति का विरोध ज़रूर करती है. जाति का एक ‘मानसिक स्थिति’ होना बुद्धिजीवी बहस है जो एक ख़ास तबके तक सिमट कर रह जाती है. इसमें ये बताने की कोशिश की जाती है कि विरोध ब्राह्मणों/किसी एक जाति/किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि ब्राह्मणवाद/जातिवाद रूपी ‘मानसिक स्थिति’ का है.
यह भी पढ़ेंः आर्टिकल 15: जाति से मुक्त हो जाने पर भी औरतों को लड़ाई अलग से ही लड़नी पड़ेगी
इसे आप आसानी से ऐसे समझ सकते हैं कि जाति सिर्फ लोगों के दिमाग़ में है और इसे किसी और वैज्ञानिक तरीके से साबित नहीं किया जा सकता. दिमाग़ में मौजूद ये चीज़ हमारे उस रवैये को जन्म देती है जो लोगों से इंसान-इंसान में फर्क कराती है. ऐसी बातें लिखने या बहस के दौरान बहुत बोझिल हो जाती हैं. सिनेमा जटिल चीज़ें समझने का सबसे आसान जरिया होता है और आर्टिकल-15 लोगों को ये समझाने में सफल रही है कि समस्या की जड़ ब्राह्मणवाद नामक रवैया है.
भविष्य का नायक शहरी और सवर्ण नहीं होगा!
फिल्म के लेखक गौरव सोलंकी ने मेरे एक सवाल के जवाब में कहा था, ‘फ़िल्म में एक दलित नायक भी है. वो किरदार मेरे दिल के बहुत क़रीब है और उसके ज़रिए हमने दलित राजनीति और आंदोलन के आज को छूने की कोशिश की है. उतना, जितना एक फ़िल्म में सम्भव है.’ उनसे वो सवाल पूछा था जो अंबेडकरवादी अक्सर पूछते हैं कि सवर्णों को दलितों और पिछड़ों का नायक क्यों होना चाहिए? सवाल वाजिब है क्योंकि लेफ्ट पार्टियों से लेकर दलितों की राजीनित करने का दावा करने वालों में अपवाद को छोड़ दें तो नेतृत्व सवर्णों के हाथों में रहा है. इस फिल्म में जीशान आयूब ने निषाद का किरदार निभाया है. ये किरदार ख़ुद को ‘द ग्रेट चमार’ बताने वाली भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर रावण से मेल खाता है.
रावण अकेले नहीं है जिन्होंने वर्तमान समाज-राजनीति में दलितों युवाओं की राजनीति का प्रतिनिधित्व किया है. उनके अलावा गुजरात के दलित विधायक जिग्नेश मेवानी जैसे और चेहरे हैं जो इस सवाल का जवाब हैं कि जिसकी लड़ाई होगी अगुवाई उसी की होगी. जब आप फिल्म देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि दलित नेताओं संग ऐसा क्या-क्या होता है कि उनका नेतृत्व और उनकी कहानियां मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन पाती या शुरू होते-होते सिमट कर रह जाती हैं. हिंट के तौर पर इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैदरबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के छात्र नेता रहे रोहित वेमुला और उनकी कहानी को याद किया जा सकता है. ख़ूबसूरती के साथ फिल्म इस ओर इशारा करती है कि भविष्य का नेतृत्व संभवत: सवर्ण या ब्राह्मणवादी नहीं होगा.
यह भी पढ़ेंः आयुष्मान खुराना की फिल्म आर्टिकल 15 से जातिवाद को कोई खतरा नहीं है
ऐसे किरदारों के बहाने फिल्म में मायावती सरीखी दलित राजनीति करने वाले नेताओं पर भी हमला बोला गया है. फिल्म में एक प्रतीकात्मक डायलॉग है- ‘जब इनकी सरकार होती है तो अपनी ही मूर्तियां बनवाते रहते हैं और जब विपक्ष में जाते हैं तो दलित बन जाते हैं.’ हालांकि, ऐसे नेता का किरदार एक पुरुष ने निभाया है. वहीं, जीशान के किरदार ने संभवत: फिल्म का सबसे मज़बूत डायलॉग बोलते हुए कहा है- हम कभी हरिजन होते हैं, कभी बहुजन होते हैं…बस जन नहीं बन पाते! आज़ादी के इतने अर्से बाद ये सवाल हम सबके के लिए है कि ये जन क्यों नहीं बन पाते और आख़िरी कैसे बनेंगे?
बिना ड्रामबाजी के आपको सबकुछ दिखा जाती है फिल्म
फिल्म बहुत सपाट तरीके से बनाई गई है. कोई ड्रामा नहीं, कोई सिंघम नहीं जो रेप और जातिवादी भेदभाव करने वाले को संविधान से ऊपर उठकर सज़ा देता हो. शायद इसी वजह से आपका मनोरंजन करने की जगह ये फिल्म आपको विचलित करती है. इसकी वजह ये है कि इसमें वो सब दिखाया गया है जो हम अक्सर अख़बारों में पढ़ते हैं, लेकिन उसकी कल्पना नहीं कर पाते. उदाहरण के लिए हम अक्सर पढ़ते हैं कि गटर साफ करने उतरे सफाई कर्मचारी की मौत हो गई. ये मौतें दम घुट जाने की वजह से होती हैं. जब आप ये फिल्म देखेंगे तो आपको समझ आएगा कि आख़िर मरने वाले इन मज़दूरों का दम कैसे घुटता होगा और कुछ हद तक आपको वो घुटन महसूस भी होगी. इससे जुड़े एक सीन को तो अनुभव सिन्हा ने ऐसे फिल्माया है कि वो आपकी कई रातों की नींद छीन सकता है.
फिल्म बिना ऐसे लोगों का नाम या सरनेम बताए आपको ये बताती है कि आपके गटर साफ करने वालों की भी एक जाति होती है जो आपको पता नहीं होती या जिससे आपको फर्क नहीं पड़ता. आपको ये पता नहीं होने का प्रिविलेज यानी विशेषअधिकार आपकी जाति की वजह से मिला है और ये सविंधान के आर्टिकल-15 के ख़िलाफ़ हैं यानी आपकी अनभिज्ञता आपसे संविधान का उल्लंघन करवा रही है, जबकि फिल्म के हीरो की लड़ाई यही है कि देश तो संविधान से ही चलेगा.
यह भी पढ़ेंः कबीर सिंह: प्रेम नहीं, सामंती ‘मर्दाना कुंठा’ का बेशर्म मुज़ाहिरा है
अयुषमान का किरदार अयान फिल्म में जब अपनी प्रेमिका अदिती (इशा तलवार) से पूछता है कि दिल्ली में ‘निर्भया’ के साथ होने वाला गैंगरेप तो देश भर के अख़बारों की सुर्खियां बनता है, लेकिन बदयूं और मेरठ में होने वाला रेप मीडिया से ग़ायब क्यों हो जाता है? यहां फिर से वही बात आ जाती है जो गौरव ने दिप्रिंट से कही थी कि एक दलित या गांव की लड़की के बलात्कार पर सिस्टम और शहरी समाज अक्सर उतना विचलित नहीं होता. यह ऐसा अपराध है, जिसमें हम सब शामिल हैं.
इसी अपराध की कीमत के तौर पर सिन्हा ने इसी सिस्टम और शहरी समाज की एक रात की कीमती नींद छीनी है. हो सकता है कि फिल्म देखने के बाद की बेचैनी एक रात की नींद के बाद चली जाए. लेकिन इस समाज से एक रात की कीमती नींद छीनना सिन्हा की इस फिल्म को सफल बनाती है.