कोई भी निश्चित रूप से यह नहीं कह सकता कि पहलगाम में इतना बड़ा कांड क्यों किया गया—वह भी इस समय, खासकर 22 अप्रैल को. फिर भी, हम कुछ सोचे-समझे विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं, और कुछ सूत्रों को जोड़ने की कोशिश कर सकते हैं.
इस पहेली का पहला सूत्र है पाकिस्तानी सेना के अध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर का 16 अप्रैल का भाषण. उन्होंने दो कौम के सिद्धांत और इस्लाम के इतिहास के बारे में जो दावे किए उन्हें अगर छोड़ दें तो उस भाषण में गौर करने वाली बात कश्मीर का जिक्र किया जाना थी, और यह कहना कि कश्मीर “हमारी शाह रग है, हम इसे भूल नहीं सकते”.
कश्मीर को “शाह रग” (गले की नस) बताना पाकिस्तान में पढ़ाए जाने वाले पाठ का जरूरी विषय है. लेकिन वर्षों से किसी सेना अध्यक्ष ने कश्मीर को लेकर इतनी मुखर प्रतिबद्धता नहीं जाहिर की थी. मैं तो कहूंगा कि मुनीर ने कश्मीर को एजेंडा में फिर से शामिल कर दिया है. उनके लहजे में गुस्सा, हताशा, और मेरे ख्याल से चेतावनी भी शामिल थी.
चेतावनी क्यों? आप किसी और तारीख के बारे में सोचिए. भारत 19 अप्रैल को दिल्ली-श्रीनगर के बीच चलने वाली वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन का उद्घाटन करने वाला था, और उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समारोह में शामिल होते.
यह समारोह टाल दिया गया. खराब मौसम इसकी वजह थी, लेकिन यह और बात है. मुनीर ने जब वह भाषण दिया था तब उन्हें यह नहीं मालूम था. ‘नया कश्मीर’ का एक हिस्सा माने गए इस ट्रेन ने हड़बड़ी पैदा कर दी.
जम्मू-कश्मीर में पिछले तीन साल से हालात स्थिर हो रहे थे; शांतिपूर्ण चुनाव करवाया जा चुका था जिसमें मतदाताओं ने बड़ी संख्या में भाग लिया. 2024 में वहां गए सैलानियों की संख्या बढ़कर 29.5 लाख तक पहुंच गई थी, और 2025 में यह 32 लाख तक पहुंच जाने की उम्मीद थी. ये सब स्थिति सामान्य होते जाने के सबूत दे रहे थे.
हम जानते हैं कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए शांति कितनी जरूरी होती है. यह कश्मीर की अर्थव्यवस्था की भी रीढ़ है. यह पूरी घाटी में और खासकर पहलगाम के इर्द-गिर्द होटलों और रिज़ॉर्टों के निर्माण में आई तेजी से भी उजागर हो रहा था. पर्यटन वहां का एकमात्र और सबसे नुमाया पहलू है. इसके साथ अगर आप वहां शिक्षा के विस्तार, कश्मीरी युवाओं में शिक्षा और रोजगार के लिए देश की तमाम हिस्सों में जाने के प्रति झुकाव को भी जोड़कर देखें तो यही संकेत मिलेगा कि वहां दिलों के जख्म भरने लगे थे. करीब आठ दशकों से पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में भारतीय ‘औपनिवेशिक बसाहट’ या गैर-कश्मीरियों के आने से जनसंख्या के स्वरूप में बदलाव का हौवा खड़ा कर रखा था. लेकिन कश्मीर के लोग अब पूरे भारत में जाकर बसने लगे थे.
घाटी में स्थिति सामान्य होने का कोई भी लक्षण पाकिस्तानी निजाम के लिए बुरे सपने के समान है. लेकिन यह अब लक्षण से आगे बढ़कर दीवारों पर लिखी इबारत बन गई थी. उनकी यह उम्मीद गलत साबित हो चुकी थी कि कश्मीर के लोग 5 अगस्त 2019 के बाद स्थायी रूप से बगावत पर उतर आएंगे. रावलपिंडी के ‘जीएचक्व्यू’ में ‘कश्मीर हमारी तकदीर है’ के नारे पर इकट्ठा हुई जमात के लिए यह जरूर कष्टदायी रहा होगा.
कुछ तार्किकता और बुद्धिमानी के साथ यह कहा जाता रहा है कि मुनीर के पूर्ववर्ती जनरल क़मर जावेद बाजवा ने इस सबको कबूल कर लिया था. वे पाकिस्तानी फौज के ऐसे नेताओं में पहले नहीं थे. उनमें से कई ने हकीकत को कबूल करने का इसी तरह का समझदारी भरा नजरिया अपनाया था. वे सब देशभक्त पाकिस्तानी थे जिनका यह पक्का मानना था कि हकीकत का इकरार और भारत के साथ बेहतर रिश्ता ही उनके मुल्क के हित में है. इसलिए वे ‘बैक चैनल’ से भारत के साथ मिलकर इस कोशिश में लगे थे कि एलओसी पर मजबूत युद्धबंदी कायम हो जाए.
1989 में मैं जब रिपोर्टिंग के लिए पाकिस्तान गया था, 1974-78 के बीच पाकिस्तानी वायुसेना के अध्यक्ष रहे एअर चीफ मार्शल ज़ुल्फिकार अली ख़ान ने कहा था कि “मेरे मुल्क को जितनी जल्दी यह एहसास हो जाए कि वह फौजी, कूटनीतिक या सियासी तरीकों से कश्मीर को जीत नहीं सकता उतना बेहतर होगा.” ख़ान एक सम्मानित, पेशेवर सैनिक थे जिन्होंने ज़िया-उल-हक़ द्वारा ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का तख़्ता पलटे जाने के विरोध में इस्तीफा दे दिया था. बाद में वे अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत बनाकर भेजे गए थे. उनकी उपरोक्त टिप्पणी ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका के 31 जनवरी 1989 के अंक में प्रकाशित हुई. इसके बाद से हमने देखा कि कई आला फौजी कमांडरों ने भी इस तरह टिप्पणी की थी.
हम कह सकते हैं कि मुनीर इन ‘आत्म-समर्पणों’ पर, जिसे ‘पहले ही लिखी जा चुकी तकदीर’ वाली भावना के विपरीत माना जाता है, जरूर झल्लाए होंगे. ज़िया के उत्कर्ष के दौर में 1986 में सेना में शामिल किए गए मुनीर उस प्रक्रिया की जीती-जागती मिसाल माने जाते हैं जिसे पाकिस्तान में होने वाले विमर्शों में ‘ज़िया भर्ती’ के नाम से जाना जाता है.
यह मान लिया गया है कि ‘भर्ती’ वाले इन अफसरों में से अधिकतर इस्लाम परस्त हैं और पवित्र ग्रंथों में दर्ज भविष्य में विश्वास करते हैं. ज़िया भी गहरे इस्लाम परस्त थे और मौलाना मौदूदी के अनुयायी थे. वैसे, हम यह नहीं कह सकते कि वे पवित्र ग्रंथों में दर्ज भविष्य में विश्वास करते थे या नहीं, क्योंकि उन्होंने यह कल्पना नहीं ही की होगी कि उनकी तकदीर में क्या लिखा है. उनके दूसरे कोर कमांडरों के बारे में बताने के लिए फिलहाल मेरे पास बहुत कुछ नहीं है, सिवा इसके कि वे सब ‘ज़िया भर्ती’ वाले थे.
मुनीर ने खास भाग्यशाली परिस्थितियों में कमान संभाली थी (पाकिस्तानी फौज में उत्तराधिकार ग्रहण के लिए इसी शब्द का प्रयोग सुरक्षित माना जाता है). उन्हें बाजवा का कार्यकाल पूरा होने के महज दो दिन पहले रिटायर होना था. इसने उन्हें चीफ के पद की उम्मीदवारी से बाहर कर दिया था. लेकिन स्थितियों के अविश्वसनीय और रहस्यमय मोड़ (जिसकी कल्पना आप पाकिस्तान के मामले में ही कर सकते हैं) के फलस्वरूप उन्हें रिटायरमेंट के चंद दिनों पहले ही चीफ बना दिया गया, शायद इसलिए कि उन्होंने इमरान ख़ान को ठिकाने लगाने का वादा किया था. इसने पाकिस्तान को दो दिनों के लिए दो सेवारत सेनाध्यक्ष देने का ‘गौरव’ प्रदान कर दिया.
मुनीर इस लिहाज से भी अनूठे हैं कि वे ज्यादा सम्मानित मानी गई पाकिस्तान मिलिटरी अकादमी के नहीं बल्कि पाकिस्तान के अफसर्स ट्रेनिंग स्कूल (ओटीएस) के ग्रेजुएट हैं. इस उपमहादेश की सेनाओं में ओटीएस से शॉर्ट सर्विस कमीशंड अफसर निकलते हैं, जो कभी चीफ के ओहदे तक नहीं पहुंच पाते. लेकिन मुनीर इस ओहदे पर पहुंचने वाले ऐसे पहले अफसर हैं. कुछ और अप्रत्याशित घटनाओं ने भी उन्हें इस आला ओहदे के लिए तैयार कर दिया. जब पुलवामा हमला हुआ था तब वे आइएसआइ के चीफ थे. इस ओहदे पर उनके आठ महीने बीते थे कि बाजवा ने उन्हें वहां से हटाने का फैसला किया और उन्हें गुजरांवाला में कोर कमांडर के पद पर ‘किसी तरह’ तैनात कर दिया गया. यह उनके केरियर में नयी शुरुआत थी. पाकिस्तान में सेना अध्यक्ष बनने के लिए आपको कोर कमांडर के रूप में काम करना जरूरी है. आखिर, तकदीर ने यह ओहदा उनके नाम लिख दिया था.
अब वे सोच रहे होंगे कि जब तकदीर ने सारे नियम बदलकर मुझे इस कुर्सी पर बैठा दिया है तो वह मुझसे जरूर कोई बड़ा काम करवाना चाहती है. उन्होंने सभी सियासी चुनौतियों को ध्वस्त कर दिया. इमरान ख़ान और उनकी बीवी बुशरा को कई गंभीर आरोपों के तहत जेल भेज दिया, सबसे लोकप्रिय पार्टी (इमरान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी) को चुनाव लड़ने से रोक कर चुनाव को ही संस्थागत रूप से ‘फिक्स’ कर दिया, और एक ऐसी सरकार को ‘निर्वाचित’ कर दिया जिसके सामने कोई विपक्ष नहीं था.
इस तख्तापलट में, जो नुमाया तौर पर किया नहीं गया, मुनीर ने रातोंरात जबरन ऐसे संशोधन करवा कर सभी संभावित चुनौतियों को ध्वस्त कर दिया, जिन संशोधनों ने पूरे संविधान को ही लगभग बदल दिया. इनमें से एक अहम बदलाव यह है कि सेना अध्यक्ष का कार्यकाल तीन से बढ़ाकर पांच साल का कर दिया गया.
मनुष्य के दिमाग को समझ पाना पेशेवर मनोविश्लेषकों के लिए भी काफी चुनौतीपूर्ण होता है. यह एक अविकसित विज्ञान है. एक पत्रकार के लिए तो यह और भी गैर-जिम्मेदाराना कोशिश होगी. वैसे, अगर आप इन सभी तथ्यों के साथ इस मानसिकता को भी जोड़कर देखें कि ‘तकदीर मुझसे कोई बड़ा काम करवाना चाहती है’, तब आप मुनीर के 16 अप्रैल के भाषण को अच्छी तरह समझ सकते हैं.
कश्मीर में जो सामान्य स्थिति बहाल हुई है उसे, उनके मुताबिक, उलटना जरूरी था. पहलगाम कांड की तैयारी उनके उस भाषण और इस हमले के बीच के एक सप्ताह में तो नहीं ही की गई. इसकी साजिश बनाने में कई महीने नहीं, तो कई सप्ताह जरूर लगे होंगे. हमले को अंजाम देने वालों, उसका स्थान, अधिकतम असर डालने वाले तरीके, पलायन के रास्ते, आदि तमाम चीजों के बारे में फैसला करने में समय लगा होगा.
हमें विज्ञान से जुड़ी खबरें देने वाली सौम्या पिल्लै ने यह दिलचस्प खोज की कि ‘मक्सर टेक्नोलॉजीज’ को पहलगाम क्षेत्र की हाई रिजोल्यूशन वाली उपग्रह तसवीरों के लिए निजी ऑर्डर्स की संख्या में इस साल फरवरी में काफी इजाफा हो गया. हम इससे कोई सूत्र नहीं जोड़ सकते लेकिन यह गौरतलब है कि एक छोटी-सी प्राइवेट पाकिस्तानी कंपनी इस ‘मक्सर टेक्नोलॉजीज’ की पार्टनर बन गई. इसकी स्थापना एक धूर्त व्यवसायी ने की थी, जिसे पाकिस्तान की परमाणु एजेंसी के लिए संवेदनशील टेक्नोलॉजी हासिल करने के लिए निर्यात नियमों का उल्लंघन करने पर सजा दी जा चुकी थी. क्या ऐसे संयोग मुमकिन हैं? ‘मक्सर टेक्नोलॉजीज’ को पहलगाम क्षेत्र की तसवीरों के लिए महज एक महीने में 12 ऑर्डर क्यों मिले, जबकि इससे पिछले 12 महीनों में औसतन दो से भी कम ऑर्डर मिले थे और मार्च में एक भी नहीं मिला?
इसे इस तरह देखिए. अगर साजिश तैयार थी, जो जरूर रही होगी, तो उसे अंजाम देने के लिए सही दिन का इंतजार हो रहा था. मुनीर के बारे में हमारा आकलन सही है. दिल्ली (मुनीर के नजर में भारत) से कश्मीर के लिए पहली सीधी ट्रेन का उदघाटन घाटी के मिजाज में और भारत के साथ उसके एकीकरण में बड़ा बदलाव ला सकता है, जिसे उन्हें किसी भी कीमत पर रोकना ही था, चाहे इसके लिए जंग का जोखिम भी क्यों उठाना पड़े.
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