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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतआयुष सिन्हा का क्या दोष है? इसकी जड़ें नेताओं और नौकरशाहों के बीच सांठगांठ में है

आयुष सिन्हा का क्या दोष है? इसकी जड़ें नेताओं और नौकरशाहों के बीच सांठगांठ में है

शब्द तो खैर निंदा के योग्य थे ही, इससे भी ज्यादा चुभने वाली बल्कि कह लें अश्लीलता की हद को पहुंचती बात थी- एसडीएम की भाव-भंगिमा. इससे पता चलता है कि राजनेताओं और उनके चहेते नौकरशाहों के बीच गजब की सांठगांठ चलती है.

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बेचारा आयुष ‘सर फोड़ ’ सिन्हा! आखिर उसका दोष क्या है? यही ना कि उसके कद और पद के ज्यादातर अधिकारी जो कुछ रोजाना करते हैं वह कारगुजारी कर दिखाने में उसने कुछ ज्यादा ही जोश दिखाया. ‘समझदार’ कहलाने वाले अधिकारी जो कुछ अपने जूनियर से करवाते वह सब आयुष ‘सरफोड़’ सिन्हा ने अपने हाथो अंजाम दिया.

जो बात स्मार्ट अधिकारी इशारों-इशारों में बताते-जताते वह सबकुछ उसने ढेर सारे शब्दों में अपनी जुबान से सीधे-सीधे कह दिया. इससे बुरी बात तो ये हुई कि उसने अपनी कारगुजारी को अंजाम देते हुए उसे फिल्माने की छूट दी जबकि कोई और होता तो सबसे पहले कैमरापर्सन को अलग करता या फिर वहीं का वहीं कैमरा ही फोड़ देता. इस साहेब बहादुर का दुर्भाग्य कहा जायेगा जो वह अपनी कारगुजारी अंजाम देते हुए कैमरे में कैद हो गया और कारगुजारी की तस्वीरें वायरल हो गईं, कोई और होता तो ऐसा कारनामा अंजाम देने के बाद भी छुट्टा घूमता.

इस मसले पर देश अगर रोष से उबल रहा है तो इसे निरा पाखंड समझिए. बेशक जो कुछ इस नौकरशाह ने किया वह माफी के काबिल नहीं. उसे ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि एक नजीर बने. लेकिन क्या इतना ही करना पर्याप्त होगा? ना, इतने भर से काम नहीं चलने वाला.

मुझे लगता है कि वायरल वीडियो को लेकर हो रही निंदा पाप-मोचन का एक अनुष्ठान है जिसके सहारे पूरी व्यवस्था अपने अपराध-बोध से जैसे मुक्त होना चाह रही हो. सोचना होगा कि जो कुछ इस नौकरशाह ने किया उस बर्ताव का रिश्ता उसके वरिष्ठ अधिकारियों से भी है और इस रिश्ते से नज़र चुरानी हो तो क्या ही आसान तरीका है कि आप दोषारोपण का सारा ठीकरा आयुष ‘सर फोड़’ सिन्हा के मत्थे फोड़ दें.

अभी जितना जोर इस कांड पर लगाया जा रहा है वह इस बात को भुलाने की सबसे अच्छी कवायद है कि ऐसी कोई निराली बात नहीं हो गई बल्कि ये सब तो अफसरशाही की रोजमर्रा का हिस्सा बन चला है. गौर कीजिए कि अभी पूरी दुनिया कैसे खुद को मानवता का पक्षधर साबित करने के लिए तालिबान की बर्बरता पर आंसू बहा रही है. ठीक वैसे ही हमलोग आयुष ‘सर फोड़’ सिन्हा प्रकरण का इस्तेमाल इस सत्याभास के प्रचार में कर रहे हैं कि नौकरशाही मतलब शाही सेवकों के तंत्र का रिश्ता नागरिकों के प्रति सेवा-धर्म निभाने से भी हुआ करता है.


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उल्लंघन- एक नहीं कई बार

बीते शनिवार को करनाल में विधि-व्यवस्था के ताबड़तोड़ उल्लंघन का जो वाकया पेश आया उसका एकलौता (खल)नायक यह कमसिन ऑफिसर नहीं- हमें ये बात याद रखनी चाहिए. ‘सर फोड़ो’ का आदेश क्रियाविधि और वस्तुत: दोनों ही लिहाज से अवैधानिक था और अपने हिस्से की बदनामी बटोर रहा है.

ड्यूटी मैजिस्ट्रेट से ये अपेक्षा नहीं की जाती कि वह सीधे-सीधे पुलिस को आदेश देगा. और, वैधानिक अधिकार की तराजू पर कोई सक्षम पुलिस अधिकारी हो तो भी वह सिर्फ लाठी-चार्ज के आदेश दे सकता है ना कि सर फोड़ने के. जाहिर है, फिर आदेश जिन शब्दों में दिया गया उन शब्दों का इस्तेमाल कर इस ‘सर फोड़’ सिन्हा ने भारी बेवकूफी की. लेकिन जरा सोचें, क्या आदेश सचमुच ‘सर फोड़’ सिन्हा का था? क्या हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के निर्वाचन क्षेत्र में पदास्थापित कोई कमसिन ऑफिसर बगैर मुख्यमंत्री की सरपरस्ती के ऐसा आदेश दे सकता है?

जरा उन घटनाओं पर गौर करें जिनकी परिणति ‘सर फोड़ो’ के आदेश के रूप में हुई. अपने संगठन के लोगों की आंखोंदेखी के आधार पर मैं कह सकता हूं कि सरकार ने किसानों को विरोध-प्रदर्शन दर्ज कराने के लिए जगह देने से मना कर दिया. इसके पहले की सांझ किसानों ने स्थानीय पुलिस के इस प्रस्ताव को मान लिया था कि वे घंटाघर चौक तक ही काला झंडा लहरायेंगे यानि मुख्यमंत्री के सभा-स्थल से एक सुरक्षित दूरी बनाते हुए ही काला झंडा दिखाया जायेगा. लेकिन शनिवार की सुबह पुलिस अपनी बात से पलट गई और उसने पूरे शहर की बाड़बंदी कर दी. जाहिर है फिर जो टकराव टाला जा सकता है वह आखिर को होकर रहा. क्या मुख्यमंत्री के शहर में ये सारा कुछ बगैर उनके दफ्तर से हरी झंडी मिले हो सकता था?

या फिर इस वाकये पर विचार कीजिए कि घरोंदा के नजदीक बस्तारा टोल प्लाजा पर पुलिस ने बगैर किसी उकसावे के बेरहमी से लाठीचार्ज किया. पुलिस ने किसानों पर तीन दफे लाठीचार्ज किया, इसमें लाठीचार्ज के वक्त पालन की जाने वाली तमाम मर्यादाओं का उल्लंघन हुआ और सोशल मीडिया पर जारी वीडियो से साफ पता चल रहा है कि विरोध-प्रदर्शन करने पहुंचे किसानों के वाहनों को भी पुलिस ने नुकसान पहुंचाया.

अपने बचाव में प्रशासन ने तर्क दिया है कि ‘सर फोड़’ सिन्हा का वीडियो जहां शूट हुआ उससे कोई 15 किलोमीटर की दूरी पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया. अब प्रशासन को इस बात की खबर ही नहीं कि अगर ऐसा हुआ है तो फिर ये बात तो उसे और भी ज्यादा सवालों के घेरे में खड़ा करती है. अगर टोल प्लाजा पर खड़ी पुलिस ठीक-ठीक वही करती है जो पुलिस से कई कोस दूर खड़ा ड्यूटी मैजिस्ट्रेट वीडियो में करने को कहता दिखता है, तो फिर इससे एक ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि: सर फोड़ने का आदेश कहीं और से दिया गया था. समस्या ड्यूटी मैजिस्ट्रेट के आदेश से नहीं बल्कि समस्या उससे है जो इसके बाबत आदेश दे रहा था.

अगर किसी सबूत की जरूरत हो तो फिर मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया (या कह लें मसले पर उनकी चुप्पी) पर गौर करें जिससे साफ जाहिर होता है कि खट्टर सरकार इस सर फोड़ो कांड में लिप्त है.

मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा है कि ऑफिसर ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया वह ठीक नहीं था लेकिन उसने जो कड़ाई बरती वह ठीक थी. बस मुख्यमंत्री इतना भर बताने से चूक गये कि दरअसल आदेश के रूप में जो कुछ कहा गया उसे सही तरीके से कहने के लिए क्या शब्द उचित होते. शायद ऑफिसर को कुछ ऐसे कहना चाहिए थाः नम्र निवेदन है कि निहत्थे किसानों का स्वागत उनके माथे पर डंडे की थपकी देकर करें?’

असल घपला वो नहीं जो अनुमंडलीय दंडाधिकारी (सब-डिवीजनल मैजिस्ट्रेट) ने आदेश के रूप में कहा बल्कि असल घपला तो वो है जो मुख्यमंत्री ने इस अधिकारी के बर्ताव के बारे में कहा. ऐसे मामलों में रुटीनी तौर पर निलंबन होता है और जांच के आदेश दिये जाते हैं लेकिन मुख्यमंत्री को इतने से भी इनकार है जो किसी गहरी बात की तरफ इशारा करता है. आप यहां मानकर चल सकते हैं कि मुख्यमंत्री एसडीएम को दंड नहीं दे सकते क्योंकि आदेश एसडीएम के नहीं बल्कि खुद उनके थे.


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व्यवस्था की झलक

आप उस कमसिन ऑफिसर के (कु)कृत्य पर जितना ही सोचेंगे उतना ही आपके आगे स्पष्ट होता जायेगा कि इसके पीछे पूरी व्यवस्था है जिसके भीतर ऐसे बर्ताव शक्ल अख्तियार करते हैं. आखिर वो क्या चीज है जो एक मैजिस्ट्रेट प्रशासनिक क्रियाविधि की बुनियादी बातों तक की परवाह नहीं करता और उसके उल्लंघन पर उतारू हो जाता है?

इस सवाल पर पहुंचकर आप ये भी सोच पायेंगे कि क्या अब कोई इस बात की परवाह करता भी है कि शासन-प्रशासन में कोई चीज होनी है तो विधि-विधान के हिसाब से हो, किसी प्रशासनिक बर्ताव के साथ औचित्य-अनौचित्य का प्रश्न क्या अब भी मायने रखता है. जहां भारत के प्रधान न्यायाधीश अपने ऊपर लगे यौन-दुर्व्यवहार के आरोपों की सुनवाई के लिए खुद ही बेंच गठित करते हैं और फिर उसी बेंच में बैठकर देश के सामने सदाचरण के सदोपदेश करते हैं वहां किसी कमसिन आईएएस ऑफिसर के बर्ताव के वैधानिक औनौचित्य पर बात करना किसी मजाक से कम नहीं है. असल सवाल तो ये है कि हम अपनी संस्थाओं के भीतर क्रियाविधि के पालन की संस्कृति कैसे बहाल करें?

शब्द तो खैर निंदा के योग्य थे ही, इससे भी ज्यादा चुभने वाली बल्कि कह लें अश्लीलता की हद को पहुंचती बात थी- एसडीएम की भाव-भंगिमा.

फिल्मी डॉयलॉग मारने के बाद ऑफिसर जिस मदमत्त अंदाज में पीछे पलटता है उससे सत्ता में होने का अंहकार बोल रहा है. इससे मुझे एक भूतपूर्व आईएएस का कहा हुआ याद आया कि: ‘जब हम किसी जिले में होते हैं जो हम जैसे उस जगह के ‘भगवान’ होते हैं. सत्ता के मद में चूर ऐसे नौकरशाहों के दर्शन करने के लिए आपको हरियाणा आने की जरूरत नहीं. शहर दिल्ली में नौकरी बजा रहे या नौकरी से रिटायर हो चुके ऐसे नौकरशाहों की भरमार है. सत्ता का यह अहंकार बताता है कि राजनेताओं और उनके चहेते नौकरशाहों के बीच गजब की सांठगांठ चलती है. अपनी पवित्रताई का सर्टिफिकेट लेकर पैदा हुए ये नौकरशाह मानो कुछ गलत कर ही नहीं सकते या कह लें उनके तो सौ खून पहले से ही माफ हैं.

आपको अक्सर ये भी देखने को मिलेगा कि इन नौकरशाहों में से कुछ राजनीति की तरफ मुड़ जाते हैं. क्या हम परम-प्रभु बनने की तरफ ले जाने वाली इस सांठगांठ को तोड़ने और नौकरशाही को पेशेवर मानदंडों पर चलने के काबिल बनाने की दिशा में कुछ कर सकते हैं?

‘कलेक्टर’ नाम की अर्ध-सामंती और अर्ध-औपनिवेशिक संस्था के बारे में कुछ करने की जरूरत है. अभी पूरे देश में इस संस्था को डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर या डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट के नाम से जाना जाता है. इस पद पर बैठा कोई कमसिन आईएएस (या फिर प्रोन्नति प्राप्त कोई अधिकारी) पूरे जिले को संभालता है.

बड़ा विचित्र है कि कायदे से जिस अधिकारी ने अभी तीस साल की भी उम्र पार नहीं की वह अपनी अनुभव की कच्चाई के बावजूद किसी जिले में रहने वाले लाखों लोगों के जीने-रहने के बारे में फैसला करे.

कई बार ऐसा भी होता है कि इन्हीं कम उम्र ऑफिसरों में कोई बहुत संवेदनशील, रचनाधर्मी और ऊर्जावान ऑफिसर चला आता है. लेकिन ऐसा तो कोई सामंत या फिर राजा भी हो सकता है. बात संस्था की होनी चाहिए और हम जानते हैं कि सामंत या फिर राजा की संस्था लोकतांत्रिक नहीं है. जाहिर है, एक आधार बनता है कि हम कलेक्टर नाम की संस्था को खत्म करें और इसकी जगह एक निर्वाचित तथा अधिकार-संपन्न जिला-सरकार की स्थापना के बारे में सोचें. अभी जो कलेक्टर के पद पर हैं उन्हें इस जिला सरकार में मुख्य सचिव का पद दिया जा सकता है.

क्या कोई ऐसे सुधारों का भी जिम्मा उठाएगा? या फिर हम सारे दोष का ठीकरा आयुष ‘सर फोड़’ सिन्हा पर ही फोड़ते रहेंगे?

(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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