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Tuesday, 7 May, 2024
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बहुजनों को शासक बनाने के बीएसपी के सपने का क्या हुआ

भारत में निम्न वर्गों के राजनीतिक उभार को साइलेंट रिवोल्यूशन या मूक क्रांति कहा गया है. इस क्रांति की अग्रणी ताकत बसपा थी, जिसने कभी बहुजनों को शासक बनने का सपना दिखाया था.

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समस्त संवैधानिक संस्थाओं और सत्ता केंद्रों को अपने कब्जे या असर में ले चुकी भाजपा अब राजनीति को ऐसी जगह ले जा रही है, जहां कई दलों को अपना अस्तित्व बचाए रखने की चुनौती मिलने लगी है. ये चुनौती कई दलों के सामने है. वामपंथी दलों का पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा का किला गिर चुका है. आरजेडी बिहार में पस्तहाल है. देवीलाल की विरासत वाली पार्टी आईएनएलडी अपने सबसे बुरे दौर में है. कई क्षेत्रीय दल दम तोड़ रहे हैं. लेकिन, जिस एक पार्टी को लेकर सबसे ज्यादा चिंता जताई जा रही है, वह बीएसपी है, क्योंकि वोट प्रतिशत के हिसाब से ये लंबे समय तक देश की तीसरे नंबर की पार्टी रही है और एक समय इसकी तरक्की की रफ्तार को देखकर ये संभावना जताई जा रही थी कि ये आगे चलकर देश पर राज कर सकती है. साथ ही बीएसपी को एक सामाजिक आंदोलन की प्रतिनिधि पार्टी भी माना जाता रहा है.

हाल में यूपी के हमीरपुर के उपचुनाव में जिस तरह से बसपा, बीजेपी और सपा के बाद तीसरे नंबर पर खिसक गयी, उससे ये संदेश गया है कि बसपा अपना जनाधार खो रही है. इससे पहले भी जब वह अकेले चुनाव लड़ रही थी, तब उसका प्रदर्शन लगातार नीचे जा रहा था. बीएसपी अध्यक्ष मायावती को बाकायदा ट्विट करके अपने समर्थकों से ये कहना पड़ा कि हमीरपुर के नतीजों के पीछे फर्जीवाड़ा है और वे आत्मविश्वास न खोएं. उन्होंने बीएसपी कार्यकर्ताओं से ये भी कहा कि वे उपचुनावों की तैयारियों में जुटें. बीएसपी प्रमुख इस बात से ज्यादा चिंतित हैं कि सपा ने बसपा की तुलना में अच्छा प्रदर्शन किया है और इस तरह यूपी में प्रमुख विपक्षी दल होने का दावा पेश कर दिया है.

ये सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या बीएसपी का देश पर राज करने के सपने का अब भी कोई मतलब रह गया है. साथ ही कि मान्यवर कांशीराम के समय में बीएसपी जिस तेजी से आगे बढ़ रही थी, वह पार्टी अब कमजोर क्यों पड़ती जा रही है. इस लेख में इन्हीं सवालों का उत्तर देने की कोशिश की जाएगी और साथ ही ये बताया जाएगा कि बीएसपी यहां से आगे बढ़ना चाहती है तो उसके सामने क्या संभावित रास्ते हो सकते हैं.

बीएसपी अपनी प्रासंगिकता क्यों खो रही है?

बीएसपी जिस उद्देश्य से बनी थी, उससे विचलन ही इसकी प्रासंगिकता के नष्ट होने की प्रमुख वजह है. मान्यवर ने बसपा का गठन एक राजनैतिक-सामाजिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए किया था. इस अर्थ में बीएसपी एक पार्टी के साथ एक आंदोलन भी हुआ करती थी. इस पार्टी की एक स्पष्ट वैचारिकी थी और इस वजह से यह बाकी पार्टियों से अलग नजर आती थी. यह सिर्फ एक राजनैतिक पार्टी नहीं बल्कि दबे-कुचलों, शोषित-दमितों के अधिकारों एवं आत्मसम्मान के संघर्ष का प्रतीक थीं. मान्यवर साहब के साथ साइकिलों पर प्रचार टीम चला करती थी. गरीबों, दलितों, पिछड़ों के मोहल्लों में बीएसपी के कैडर कैंप लगा करते थे और पार्टी की विचारधारा का प्रचार किया जाता था.

बीएसपी का अब कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं

इन कार्यों के लिए संगठनात्मक ढांचा डीएस-4 और बामसेफ के रूप में खड़ा किया गया था. डीएस-4 जनजागरण अभियान चलाती थी, वहीं बामसेफ सरकारी नौकरीपेशा बहुजनों को संगठित करने का प्रयास करता था. आज की बसपा उस दौर से आगे बढ़ चुकी है. पार्टी और पार्टी में आने वालों का लक्ष्य किसी तरह से राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना है. चूंकि इन नेताओं की वैचारिक ट्रेनिंग नहीं है, इसलिए वे आसानी से पाला बदलने के लिए प्रस्तुत रहते हैं. इस वजह से देखा गया है कि बीएसपी के विधायकों को तोड़ने में कांग्रेस या बीजेपी को अक्सर कामयाबी मिल जाती है.

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बीएसपी में आ रही कमजोरी की दूसरी वजह यह है कि बीएसपी ने अपना आंदोलनात्मक चरित्र बदल लिया है. बहुजनों पर हो रहे अत्याचार और उनके संवैधानिक अधिकारों की कटौती पर भी बीएसपी कोई आंदोलन नहीं चलाती. मिसाल के तौर पर, एससी-एसटी एक्ट को जब न्यायालय द्वारा कमजोर किया गया तो भारत बंद का आह्वान बीएसपी ने नहीं किया. इसी तरह आरक्षण विरोधी रोस्टर के खिलाफ आंदोलन से भी बीएसपी दूर ही रही.

बीएसपी के सामने तीसरी समस्या यह है कि पार्टी के पास अपना मीडिया नहीं है. कांशीराम के समय में बीएसपी ने अपना मीडिया बनाने की कोशिश की थी. उन कोशिशों पर अब धूल चढ़ चुकी है. सोशल मीडिया से दूरी भी इस पार्टी के पिछड़ने की प्रमुख वजह रही है. वर्तमान युग डिजिटल युग है, अधिकांश जनता मोबाइल-इंटरनेट-सोशल मीडिया से जुड़ी है. इसका लाभ लेकर जहां अन्य पार्टियों के आईटी सेल संबंधित पार्टी के विचार, एजेंडा, वक्तव्य, मुद्दों पर पढ़े-लिखे लोगों तक पहुंच बना रहे हैं वहीं बसपा का अपना कोई कारगर आईटी सेल नहीं है. यदा-कदा मायावती के ट्वीटर हैंडल से कुछ स्टेटस आ जाते हैं. लेकिन, आईटी सेल की कमी की भरपाई इनसे मुमकिन नहीं है.

बामसेफ के साथ बीएसपी के बिगड़े संबंध

बसपा के शुरुआती शानदार प्रदर्शन का कारण उसका कैडर कैंप रहा. यह प्रदर्शन 2007 में अपने शिखर पर पहुंचा जब यूपी में बीएसपी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी. लोकसभा चुनावों में भी बीएसपी के 20 से ज्यादा सांसद जीते. कैडर से प्रशिक्षित हजारों और उनके असर में लाखों लोग बीएसपी का लगातार प्रचार करते थे. लेकिन, बीएसपी ने कैडर कैंप लगाना बंद कर दिया. बामसेफ से बीएसपी ने अरसा पहले ही नाता तोड़ लिया था. बामसेफ के कई धड़े इसी बीच सक्रिय हो गए और वे सभी बीएसपी को बहुजन राजनीति का विरोधी साबित करने में जुट गए. बामसेफ के तमाम ग्रुप सोशल मीडिया में सक्रिय हैं. बीएसपी ने सोशल मीडिया में जो खाली जगह छोड़ी, उसे बामसेफ न भरा. इनकी बातें बीएसपी के समर्थकों तक भी पहुंच रही हैं. इनके निशाने पर खास तौर पर बीएसपी नेता सतीश मिश्रा होते हैं. जिसकी काट करने के लिए सोशल मीडिया पर बीएसपी की ओर से अक्सर कोई नहीं होता.


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बसपा सुप्रीमो का नेताओं और कार्यकर्ताओं से संपर्क काफी कम है. कोऑर्डिनेटर को विश्वास में लिए बगैर बड़े से बड़ा कार्यकर्ता भी मायावती से नहीं मिल सकता. इस वजह से कार्यकर्ताओं का उत्साह तो कमजोर पड़ता ही है, शीर्ष नेतृत्व को भी जमीनी हालात की जानकारी नहीं होती. यह दूरी किसी भी राजनीतिक पार्टी को कमजोर बनाने के लिए काफी है.

ओबीसी और कई दलित जातियों का बीएसपी से दूर हो जाना

बीएसपी के आंदोलन का एक असर ये हुआ है कि जातियां अब जग गई हैं. जातियों में श्रेष्ठता का बोध और महत्त्वाकांक्षा इस कदर घर कर गयी है कि अब लगभग समस्त जातियों को अपनी जाति का नेता चाहिए. जिस पार्टी ने संबंधित जाति को टिकट दिया, उस जाति के लोग विचारधारा, या अन्य मुद्दों को छोड़कर उस नेता को वोट दे देते हैं. किसी असंतुष्ट नेता को टिकट ना मिले तो वह ढाई लोगों के समर्थन से अपनी नयी पार्टी बना लेता है. यहां मायावती की जाति और दलित महिला होना भी एक बाधा बनता है. सवर्ण नेतृत्व वाली पार्टियों में ये समस्या कम है.

धार्मिक ध्रुवीकरण का नुकसान

जहां बीजेपी संस्कृति, धर्म एवं त्योहारों के नाम पर नागरिकों को बरगलाकर उन्हें अपना वोटर बनाने में कामयाब रहती है, वहीं बहुजन दलों या सेकुलरिज्म पर चलने वाली पार्टियों को ये लाभ नहीं मिल पाता. धार्मिक त्योहारों में होने वाले झिटपुट झगड़े एवं दंगे-फसाद भी भाजपा के विचारधारा के पक्ष में रूढ़िवादी वोटरों का ध्रुवीकरण कर देती है. वहीं बसपा के पक्ष में इस तरह के ध्रुवीकरण का कोई स्कोप नहीं है. एक समस्या ये भी है कि बसपा सिर्फ चुनावी सीज़न में एक्टिव होती है और चुनाव खत्म होते ही पुनः निष्क्रिय हो जाती है.

यदि बसपा को अपना अस्तित्व बचाना है तो उसे फिर से कैडर बेस्ड पार्टी बनना होगा. सुप्रीमो-कार्यकर्ता-आम जनता के बीच संवाद स्थापित करना होगा. जनता के मुद्दों पर आंदोलन चलाना होगा. विभिन्न जातियों के बीच नेतृत्व पैदा करना होगा. और सबसे बड़ी बात, अपना वैचारिक लक्ष्य स्पष्ट करना होगा. ये रास्ता कठिन है. लेकिन इसके अलावा कोई और तरीका भी नहीं है.

(लेखिका कंप्यूटर इंजीनियिंरग में ग्रेजुएट हैं. सामाजिक मुद्दों पर लिखती हैं .यह लेख उनका निजी विचार है.)

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