पिछले बुधवार को, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को दुनिया की “पहली तीन अर्थव्यवस्थाओं” में से एक बनाने की “गारंटी” दी, तो इस पर बहुत प्रतिक्रियाएं मिलीं. पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने बताया कि भारत सकल घरेलू उत्पाद के मामले में पांचवें स्थान पर है लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में 128वें स्थान पर है. उन्होंने ट्वीट किया, “चलो प्रति व्यक्ति आय के बारे में बात करते हैं. जो सफलता और समृद्धि का असली पैमाना है.”
मोदी की पार्टी के सहयोगी और हार्वर्ड विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी, सुब्रमण्यम स्वामी ने ट्वीट किया, “भारत पिछले 20 वर्षों से, कम से कम कार्य शक्ति क्षमता के मामले में, तीसरी सबसे बड़ी जीडीपी वाला देश रहा है और फिर भी मोदी कहते हैं कि भविष्य में ‘तीसरा सबसे बड़ा’ देश होगा. अर्थशास्त्र को लेकर पीएमओ में अज्ञानता बहुत अधिक है.”
उनके तर्कों में जो भी आधार रहा हो, सच तो यह है कि मोदी ने जो कहा उसका मूल हिस्सा अर्थव्यवस्था के बारे में कम और राजनीति के बारे में अधिक था. वह सामान्य तौर पर आम जनता और विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी के अपने सहयोगियों के लिए एक घोषणा कर रहे थे. वह उन्हें स्पष्ट रूप से 2029 तक पद पर बने रहने के अपने इरादे से अवगत करा रहे थे.
आइए बारीकी से देखें कि मोदी ने बुधवार को क्या कहा: “तीसरा कार्यकाल- शीर्ष तीन अर्थव्यवस्था में पहुंच कर रहेगा भारत और ये मोदी की गारंटी है. मैं देशवासियों को ये भी विश्वास दिलाऊंगा कि 2024 के बाद हमारे तीसरे कार्यकाल में देश की विकास यात्रा और तेजी से बढ़ेगी. और मेरे तीसरे कार्यकाल में आप अपने सपने को अपनी आंखों के सामने पूरा होते देखेंगे.”
मोदी ने लोगों के सपनों को पूरा करने के लिए ‘मोदी की गारंटी’ और ‘मेरा तीसरा कार्यकाल’ जैसे शब्दों के साथ अपनी पार्टी के सहयोगियों द्वारा अस्पष्टता या गलत व्याख्या के लिए कुछ भी नहीं छोड़ा . और इसके साथ ही उन्होंने एक नया लक्ष्य निर्धारित किया है – लोग प्रधानमंत्री के रूप में अपने तीसरे कार्यकाल में, यानी 2029 तक अपने सपनों को साकार करेंगे. 2017 में, भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ पर, पीएम मोदी ने एक जातिवाद, संप्रदायवाद और भ्रष्टाचार से 2022 तक मुक्ति दिलाने और नया भारत बनाने की बात कही थी.
यही वह वर्ष था जब किसानों की आय दोगुनी हो जानी थी. हालांकि, 2022 तक, कई लक्ष्य बड़े पैमाने पर बदल गए, प्रधानमंत्री ने “अमृत काल” के दौरान या स्वतंत्रता के 75वें से शताब्दी वर्ष तक 25 वर्षों के दौरान देश के लिए नई ऊंचाइयों और समृद्धि के नए स्तर का वादा किया.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में अपने 83 मिनट लंबे स्वतंत्रता दिवस संबोधन में उन्होंने 32 बार अमृत काल का इस्तेमाल किया.
भाजपा को शायद ये एहसास हो गया कि मतदाताओं का सुझान बरकरार रखने के लिए अमृत काल बहुत लंबी अवधि है, और मतदाता शीघ्र लाभ देखते हैं जैसा कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की ‘गारंटियों’ की सफलता से साफ साफ दिख रहा है. इसलिए, पीएम मोदी ने उनके सपनों को साकार करने के लिए सीमा कम कर केवल उनका तीसरा कार्यकाल का निर्धारण किया है.
लेकिन बुधवार को उनका संदेश समान रूप से उनके सहयोगियों पर लक्षित था. असल में, मोदी उनसे कह रहे थे कि वे उनकी उम्र या 75 साल की अलिखित सेवानिवृत्ति की उम्र के बारे में ज्यादा न सोचें – एक ऐसा मानदंड जिसका इस्तेमाल उन्होंने कई वरिष्ठ नेताओं को बाहर करने के लिए किया था जो उनकी योजना में फिट नहीं बैठते थे.
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मोदी ने क्यों दिया संदेश?
जैसे-जैसे अगला लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहा है, सत्तारूढ़ दल में लगातार चर्चा और अटकलें तेज हो गई हैं कि पीएम मोदी कब संन्यास लेने का फैसला करेंगे. वह 17 सितंबर 2025 को 75 वर्ष के हो जाएंगे. क्या वह 75 वर्ष की अलिखित अधिकतम आयु सीमा का पालन करेंगे? या, क्या वह 2027 में अगले राष्ट्रपति चुनाव तक इंतजार करेंगे? किसी भी स्थिति में, उनका उत्तराधिकारी कौन होगा? भाजपा में कोई भी उनसे ये सवाल पूछने की हिम्मत नहीं करेगा, लेकिन पार्टी नेताओं के बीच निजी बातचीत में ये सवाल उठते रहे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी भी इससे अनभिज्ञ और अनजान तो बिलकुल नहीं होंगे. उनके संभावित उत्तराधिकारियों के बारे में अटकलें लंबे समय से सार्वजनिक क्षेत्र में हैं. जब हर कोई यह सोचने लगता है कि पार्टी का सबसे लोकप्रिय चेहरा और सबसे बड़ा वोट-कैचर कब तक पद पर बना रहेगा, तो यह अलग-अलग रूपों में प्रकट होने लगता है. महत्वाकांक्षी नेता वर्तमान के लिए काम करने के बजाय भविष्य की तैयारी शुरू कर देते हैं. अपनी समझ और आकलन के आधार पर किसी न किसी भावी संभावित प्रधानमंत्री के आस पास मंडराने लगते हैं. गुटबाजी शुरू हो जाती है. राज्य के राजनीतिक मठाधीश जो सर्वोच्च नेता के क्रोध के डर से वर्षों तक शांत बैठे रहते हैं मुखर होना शुरू कर देते हैं. नेताओं का ध्यान राजनीतिक विरोधियों से हटकर आंतरिक प्रतिद्वंद्वियों पर केंद्रित हो जाता है. शासन और राजनीति में नीतिगत पंगुता देखी जाने लगती है और निर्णय लेने में भ्रम की स्थिति यू-टर्न से चिह्नित होती है.
कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा ने इनमें से अधिकांश नहीं तो कुछ कुछ मेनिसफेस्टेशन दिखानी शुरू कर दी हैं. प्रधानमंत्री मोदी एक शानदार राजनीतिज्ञ और प्रशासक हैं, उनके ध्यान में यह आ चुका होगा. और, इसलिए, उन्होंने एक स्पष्ट संदेश भेजने की ज़रूरत समझी- ‘आराम से रहो. मैं इतनी जल्दी अभी कहीं नहीं जा रहा हूं.’
अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के लिए इसका क्या मतलब है
अब जब मोदी ने यह साफ कर दिया है कि यदि भाजपा 2024 में फिर से जीतती है, तो 2029 तक पीएम के लिए वैकेंसी नहीं रहेगी. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि दो कथित उत्तराधिकारियों-केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए चीजें कैसे आगे बढ़ती हैं. शाह के लिए, गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दिनों से ही, उनकी मोदी के प्रति वफादारी रही है. योगी के लिए उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि एक जन नेता के रूप में उनका उदय है जो न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि पूरे देश में भीड़ खींचता है. यूपी के सीएम एक सख्त और विकासोन्मुख प्रशासक के रूप में भी उभरे हैं. मोदी की तरह उनकी छवि साफ-सुथरी है और उन्होंने सार्वजनिक सेवा के लिए पारिवारिक जीवन का त्याग कर दिया है. यही नहीं मोदी की तरह, तथाकथित ‘हिंदू मतदाता’ योगी के पीछे लामबंद हो गए.
तो, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के लिए भारत में सबसे बड़े पद पाने के लिए छह साल और इंतजार करने का क्या मतलब है? दोनों में से किसी के लिए भी उम्र कोई मुद्दा नहीं है. शाह 58 साल के हैं. योगी उनसे सात साल छोटे हैं. वे इंतजार कर सकते हैं. मोदी के प्रति वफादारी के अलावा केंद्रीय गृह मंत्री का सबसे मजबूत पक्ष भाजपा संगठन पर उनकी पकड़ है. भाजपा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा से सहानुभूति रखने वाले अक्सर शिकायत करते हैं कि पार्टी की विफलताओं के लिए उनकी अनुचित आलोचना की जाती है क्योंकि शाह ही वास्तविक प्रमुख हैं. नड्डा अपनी टीम भी नहीं चुन सकते.
देखिए कि शनिवार को जब उन्होंने अपनी टीम का पुनर्गठन किया तो उन्हें किस तरह कैलाश विजयवर्गीय को राष्ट्रीय महासचिव बनाए रखना पड़ा. पश्चिम बंगाल प्रभारी के रूप में उनकी विफलता और बंगाली नेताओं द्वारा उनकी कार्यशैली की आलोचना के बाद, विजयवर्गीय महासचिव से राज्य का प्रभार छीन लिया गया. पिछले एक साल से उनके पास किसी भी राज्य का प्रभार नहीं है – जो इतिहास में किसी भी पार्टी महासचिव के लिए एक अभूतपूर्व रिकॉर्ड है. फिर भी, जब नड्डा ने अपनी टीम का पुनर्गठन किया, तो उन्होंने विजयवर्गीय को जाहिर तौर पर बरकरार रखा क्योंकि विजयवर्गीय अमित शाह के नज़दीक हैं. अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद तीन साल तक पार्टी संगठन पर अमित शाह की इसी तरह की पकड़ रही है.
केंद्रीय गृह मंत्री के रूप में शाह की पारी थोड़ी कठिन लग सकती है – जैसे की मणिपुर संकट से ठीक से नहीं निपटना और 2020 के दिल्ली दंगे – लेकिन उन्हें एक सख्त प्रशासक के रूप में देखा जाता है. यद्यपि गृह मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह के कार्यकाल के दौरान सरकार ने अनुच्छेद 370 को अमान्य करने के लिए आधार तैयार किया था, लेकिन शाह को संसद के माध्यम से इसे आगे बढ़ाने और कश्मीर में सापेक्ष शांति बनाए रखने के लिए जाना जाता है. हालांकि शाह को एक जन नेता के रूप में नहीं देखा जाता है, लेकिन वह उस धारणा को बदलने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं. पिछले कुछ महीनों में वह देश भर में सार्वजनिक बैठकों और रैलियों को संबोधित कर रहे हैं.
जैसा कि एक भाजपा सांसद ने इस लेखक से कहा, “यह सच है कि अमित शाह जी बेहतरीन चुनाव रणनीतिकारों में से एक हैं. लेकिन हमारे जैसे सांसदों और विधायकों के लिए, यह मायने रखता है कि मोदी जी की तरह हमें वोट कौन दिला सकता है. जब योगी जी आते हैं तो बहुत सारे लोग उन्हें सुनने आते हैं. लेकिन जब हमें अन्य नेताओं की रैलियां आयोजित करने के लिए कहा जाता है, तो हमें लोगों को लाने के लिए बहुत समय और पैसा खर्च करना पड़ता है. जब भी मैं उनसे इस विषय पर बात करता हूं तो देश भर के कई अन्य सांसद और विधायक भी इसी तरह के विचार व्यक्त करते हैं. ऐसा लगता है कि जिन नेताओं को वोट चाहिए, उनके बीच योगी आदित्यनाथ की जबरदस्त फैन फॉलोइंग है.”
यह वह धारणा है जिसे अमित शाह अगले छह वर्षों में बदलना चाहेंगे. मोदी के अगले छह वर्षों तक सत्ता में बने रहने की संभावनाएं योगी के लिए आशाजनक हैं. उन्होंने 2027 तक यूपी को विकास के मामले में बदलने का बीड़ा उठाया है. अब तक वह सही राह पर नजर आ रहे हैं. यदि वह उस परिवर्तन को लाने में सफल होते हैं और 2027 में यूपी के सीएम के रूप में तीसरा कार्यकाल प्राप्त करते हैं, तो दिल्ली की राह बहुत आसान और तेज हो जाएगी. आख़िरकार, यह भाजपा संगठन या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं था जिसने 2013-14 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को दिल्ली तक पहुंचाया. जैसा कि हुआ, वह मोदी ही थे जिन्होंने सबसे पहले शीर्ष पद के लिए दावा पेश किया और भाजपा और आरएसएस उनके पीछे खड़े होने से खुद को रोक नहीं सके.
इस बिंदु पर, अगर कोई यह कहे कि मैं 2029 में शाह और योगी के दांव के बारे में बात कर रहा हूं जैसे कि 2024 का चुनाव परिणाम पहले ही आ चुका है, तो मैं दोषी’ हूं. नहीं, मैं 2024 में किसी भी संभावना से इनकार नहीं कर रहा हूं. मैं केवल बुधवार को पीएम मोदी के भाषण और उनके अनुमानित उत्तराधिकारियों के लिए इसके निहितार्थ का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहा हूं. कोई यह भी पूछ सकता है कि जब प्रधानमंत्री पद की दौड़ अब छह साल बाद शुरू होगी तो मुझे केवल दो दावेदारों पर ध्यान क्यों केंद्रित करना चाहिए. खैर, मैं वाइल्ड कार्ड प्रविष्टियों से इनकार नहीं कर सकता – मान लीजिए, हिमंत बिस्वा सरमा और देवेंद्र फडणवीस – लेकिन ऐसे कारण हैं कि उन्हें 2029 की दौड़ दर्शक दीर्घा से देखनी पड़ सकती है. हालांकि यह एक और दिन की कहानी है.
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(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
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