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Thursday, 17 October, 2024
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RSS-BJP के संबंधों में हरियाणा चुनाव परिणाम से क्या बदलाव आया है

आरएसएस के फिर से कमान संभालने के बाद बीजेपी में बड़े बदलाव की उम्मीद है. मोहन भागवत का दशहरा भाषण और पीएम मोदी के पोस्ट एक नई शुरुआत का संकेत देते हैं.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत के विजयादशमी भाषण ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आलोचकों को निराश किया होगा. उदार बुद्धिजीवियों और विपक्षी खेमे में से पिछले कुछ महीनों में भागवत के मुरीद हो गए थे क्योंकि उन्होंने ‘सच्चे सेवकों’ को ‘अहंकार’ के खिलाफ चेतावनी दी थी और ‘मनुष्य’ को ‘सुपरमैन’ और ‘भगवान’ बनने की कोशिश के बारे में कटाक्ष किया था. मोदी के आलोचकों को उन्हें ऐसे वर्णनों में पीएम मोदी के प्रति संघ की बढ़ती अधीरता देखी.

आरएसएस ने कभी भी आधिकारिक तौर पर उन व्याख्याओं का खंडन नहीं किया. इसलिए मोदी के आलोचक शनिवार को भागवत के भाषण का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, लेकिन भागवत का भाषण निराशाजनक रहा. आरएसएस प्रमुख ने आरजी कर अस्पताल में ट्रेनी डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के मामले में ‘कवर-अप’ के प्रयास के लिए ममता बनर्जी सरकार पर निशाना साधा, झारखंड में मोदी के जनसंख्या असंतुलन सिद्धांत का वस्तुतः समर्थन किया और हमेशा की तरह हिंदुओं को खतरे वाली बात कही. भारतीय जनता पार्टी को इस चुनावी मौसम में इससे ज्यादा क्या चाहिए था.

कुछ घंटों बाद, पीएम मोदी ने एक्स पर आरएसएस के 100वें वर्ष में प्रवेश करने पर सभी स्वयंसेवकों को बधाई दी और राष्ट्र के प्रति उनकी सेवा के लिए प्रशंसा की. पीएम मोदी की एक्स टाइमलाइन देखें. आखिरी बार उन्होंने संघ के स्थापना दिवस के बारे में 2017 में एक्स पर पोस्ट किया था.

शनिवार को, पीएम ने सरसंघचालक भागवत के विजयादशमी भाषण का यूट्यूब लिंक भी ट्वीट किया और इसे अवश्य सुनने योग्य बताया. ऐसा दस साल के बाद हुआ. आखिरी बार उन्होंने 2014 में भागवत के भाषण का ज़िक्र किया था, जब उन्होंने संघ प्रमुख के एक भाषण के सारांश का लिंक एम्बेड किया था.

आखिरी बार उन्होंने 2016 में भागवत के बारे में ट्वीट किया था उनके जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने के लिए और आखिरी बार पीएम मोदी ने आरएसएस को ट्वीट करके संबोधित किया था, मार्च 2019 में, जब उन्होंने संघ, एनसीसी, एनएसएस, नेहरू युवा केंद्र और ब्रह्मा कुमारियों से “मतदाता जागरूकता बढ़ाने में मदद करने” की अपील की थी.

स्पष्ट रूप से हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद कुछ बदल गया है. यह हरियाणा में भाजपा की अप्रत्याशित जीत में आरएसएस की भूमिका को स्वीकार करने का मोदी का तरीका था. पार्टी को अपने अहंकार की लोकसभा में भारी कीमत चुकानी पड़ी, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने चुनाव के पहले बयान दिया था कि भाजपा अब मजबूत हो गई है और उसे संघ की अब ज़रूरत नहीं है. लोकसभा चुनाव के बाद, बीजेपी की स्थिति हरियाणा के विधानसभा चुनाव के पहले बहुत खराब लग रही थी. हताशा में भाजपा ने आरएसएस को मदद के लिए गुहार लगाई. संघ के सह-कार्यवाह अरुण कुमार ने फिर चुनाव की कमान संभाली. उन्होंने दिल्ली और हरियाणा दोनों जगहों के वरिष्ठ भाजपा पदाधिकारियों के साथ कई बैठकें कीं और भाजपा की किस्मत बदलने की योजना बनाई. उम्मीदवारों के चयन से लेकर ज़मीन पर भाजपा के कथानक और कांग्रेस के खिलाफ जवाबी रणनीति तक, आरएसएस पूरी तरह नियंत्रण में था. आरएसएस के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा था. अगर संघ हरियाणा में विफल रहता, तो नड्डा जैसे नेता पलटकर कुछ ऐसा कहते — ‘क्या हमने आपको नहीं बताया? चुनाव भाजपा ही जीतती है या हारती है. हमें आरएसएस से यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि हमें क्या करना है.’ बेशक, ये मेरे शब्द हैं, लेकिन आरएसएस ने दिखा दिया कि बॉस कौन है और कैसे भाजपा बहुत हद तक आरएसएस पर निर्भर है.


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आरएसएस का नियंत्रण

यह अलग बात है कि हरियाणा की जीत को मोदी की लोकप्रियता के एक और सबूत के रूप में दिखाने के लिए भाजपा नेतृत्व ने हद पार कर दी. पार्टी ने पहले पीएम मोदी को किसी भी प्रतिकूल परिणाम से बचाने की कोशिश की थी. पोस्टर और अभियान सामग्री में उनकी बहुत छोटी तस्वीरें लगाईं. उन्होंने केवल चार रैलियों को संबोधित किया — 2014 में 10 और 2019 में छह की तुलना में.

जैसे ही नतीजे सामने आए, पार्टी ने फिर से सब कुछ के लिए मोदी की सराहना शुरू की. पार्टी मुख्यालय में जीत के जश्न में, नड्डा ने कहा कि कैसे परिणामों से पता चलता है कि देश का मूड “मोदीमय” है और “मोदी है तो मुमकिन है”. बेशक, किसी ने उनसे यह नहीं पूछा कि हरियाणा वासियों ने कैसे पांच महीने पहले ही भाजपा की लोकसभा सीटों को 10 से पांच पर ला दिया था या फिर भाजपा का वोट शेयर 2019 में 58 प्रतिशत से घटकर 2024 में 46 प्रतिशत कैसे हुआ और फिर हालिया विधानसभा चुनाव में 40 प्रतिशत पर क्यों आ गया? एक के बाद एक नेता हरियाणा में पीएम मोदी के पुराने मित्र मनोहर लाल खट्टर के कुशल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन की बात करते रहे. किसी ने यह नहीं बताया कि फिर पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से क्यों हटाया या फिर नायब सैनी के नेतृत्व वाली सरकार के 10 में से आठ मंत्री चुनाव क्यों हार गए?

भाजपा ने साढ़े नौ साल तक मुख्यमंत्री रहे खट्टर को पूरे राज्य में स्टार प्रचारक के तौर पर इस्तेमाल करने के बजाय उनके करनाल संसदीय क्षेत्र तक ही सीमित क्यों रखा? ये सवाल अब अप्रासंगिक हो गए हैं.

बेशक, भाजपा में जश्न मनाना जायज़ था. लगातार तीसरा चुनाव जीतना, वह भी अब तक के सबसे बेहतरीन प्रदर्शन के साथ और पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले वोट शेयर में तीन प्रतिशत की बढ़ोतरी, काफी बड़ी उपलब्धि थी.

भागवत के भाषण और शनिवार को प्रधानमंत्री मोदी के ट्वीट ने आरएसएस-बीजेपी संबंधों में सामान्यता की वापसी को चिह्नित किया. संघ ने एक बार फिर साबित कर दिया कि BJP उसे यूं ही नहीं छोड़ सकता, चाहे कोई व्यक्तिगत नेता कितना भी लोकप्रिय क्यों न हो जाए. आरएसएस अपने राजनीतिक शिष्य पर फिर से दबदबा बना चुका है और ऐसा ही रहेगा, चाहे भविष्य में चुनाव में कुछ भी हो और मोदी की लोकप्रियता कितने भी लंबे समय तक बनी रहे.


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उत्तराधिकार की समस्या

आरएसएस के फिर से कमान संभालने से भाजपा और सरकार पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की संभावना है. संघ जल्द ही अपनी नई वीटो शक्ति का प्रयोग करना शुरू कर सकता है, जिसकी शुरुआत अगले भाजपा अध्यक्ष के चुनाव या चयन से होगी. मोदी जैसे जन नेता और अमित शाह जैसे रणनीतिकार के नेतृत्व में, भाजपा किसी कारण से प्रमुख पदों पर बहुत से अयोग्य नेताओं को बढ़ावा दे रही है. मुख्यमंत्री या केंद्रीय मंत्री, राज्य भाजपा अध्यक्ष या राष्ट्रीय महासचिव के लिए मानदंड अस्पष्ट हैं. संघ और भाजपा में दशकों तक काम करने वाले नेता पार्टी टिकट के मामले में दूसरी पार्टी से आए दलबदलुओं से पिछड़ जाते हैं. फिर आम पार्टी कार्यकर्ताओं का क्या? किसी भाजपा सांसद से पार्टी के राष्ट्रीय महासचिवों के नाम और उनके काम के बारे में पूछिए और आपको जवाब पता चल जाएगा. मुझे पता है क्योंकि मैंने कुछ महीने पहले एक हाई-प्रोफाइल भाजपा सांसद से यही सवाल पूछा था और उन्होंने मुझे केवल तीन नाम बताए थे, जिनमें से एक उपाध्यक्ष का था. जैसा कि मैंने अपने पिछले कॉलम में उल्लेख किया था, मोदी-शाह राज्यों में जन नेताओं को विकसित करने में विफल रहे हैं, जैसा कि वाजपेयी-आडवाणी ने किया था.

अब जब आरएसएस ने कमान संभाल ली है, तो मनमाने चयन और पदोन्नति के मानदंड बदलने वाले हैं. बड़े संगठनात्मक बदलाव की उम्मीद कीजिए और कई बड़े लोगों की जगह नए चेहरे या हाशिये पर छोड़े गए लोगों को मौका मिलने की उम्मीद है.

आरएसएस के पदाधिकारियों का कहना है कि मोहन भागवत किसी भी कुर्सी को संभालने के लिए 75 वर्ष की ऊपरी आयु सीमा के बारे में अपनी प्राथमिकता के बारे में स्पष्ट हैं. कोई नहीं जानता कि यह मानदंड पीएम मोदी पर लागू होगा या नहीं, लेकिन अब भाजपा के लिए अच्छी बात यह है कि आरएसएस BJP MEIN उत्तराधिकार की लड़ाई में प्रभावी रूप से हस्तक्षेप कर सकता है. इस लड़ाई ने भाजपा को कई राज्यों में लोकसभा चुनाव में नुकसान पहुंचाया — जैसे यूपी. जहां तक भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की बात है, आरएसएस ने बहुत (पहले भी) इसे कुशलता से किया है.

शनिवार को भागवत के भाषण और मोदी के ट्वीट में इस बात की स्वीकृति भी थी कि उन्हें एक-दूसरे की ज़रूरत है.

आरएसएस के शासन में हस्तक्षेप करने की संभावना नहीं है. जैसा कि है, अधिकांश मंत्रालय, संस्थान और प्रमुख पद या तो स्वयंसेवकों या हाल ही में हिंदुत्व राष्ट्रवाद में परिवर्तित लोगों द्वारा संचालित हैं. हालांकि, जो होने की संभावना है वह है आरएसएस का एक वैकल्पिक और प्रभावी शक्ति केंद्र के रूप में फिर से उभरना. ऐसे में मोदी के इर्द-गिर्द के कई लोग अपनी वफादारी के बारे में फिर से सोचने पर मजबूर बो सकते हैं, खासकर तब जब मोदी अब अपने तीसरे और संभवतः अंतिम कार्यकाल में हैं. यह कैसे होगा, अभी से कहना मुश्किल है. आने वाली चीज़ों का पहला संकेत तब मिला जब पूर्व केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, जो सत्ता के गलियारों में एक दशक के लंबे कार्यकाल के बाद खुद को ठंडे बस्ते में पाती हैं, ने सोशल मीडिया पोस्ट के रूप में आरएसएस को एक संवाद भेजा. इसमें खाकी पैंट पहने एक साइकिल चालक को ‘विनर’ (विजेता) कैप्शन के साथ दिखाया गया था, ठीक उसी समय जब भाजपा हरियाणा के नतीजों को पीएम मोदी की लोकप्रियता के सबूत के रूप में प्रदर्शित कर रही थी. यह तो केवल शुरुआत थी. आगे, आगे देखिए होता है क्या.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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