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शुक्रवार, 18 अप्रैल, 2025
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पश्चिम बंगाल में वक्फ पर जंग कोई नहीं जीत सकेगा, ऐसी आग न लगाएं जिसमें आप खुद जल जाएं

इस्लामी मौलवियों के साथ अपने रिश्ते को मजबूत बनाने के टीएमसी सरकार के प्रयासों ने धर्म को अंततः राजनीति की भाषा में दाखिल करा दिया.

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गर्मी वाले दिन के सन्नाटे को चीरते हुए ढोलक की थाप जैसे ही गूंजी, मारकाट शुरू हो गई थी. उस शुक्रवार की दोपहर नमाज के लिए हैरिसन रोड पर स्थित दीनू चर्मवल्ला मस्जिद में लोग इकट्ठा हो रहे थे और उधर आर्य समाज के 500 सदस्यों का जुलूस उस मस्जिद के बगल से गुज़र रहा था. इतिहासकार जी.आर. थर्सबी ने लिखा है कि “पुलिस इंस्पेक्टर के कहने पर और जुलूस के नेताओं के सहयोग से ढोलक वाले की थाप को छोड़ बाकी सब शांत हो गए थे”. ढोलक वाले की उंगलियां ढोलक पर थाप दे रही थीं और उन थापों के कारण 110 लोगों ने जान गंवा दी थी, करीब 1000 लोग घायल हो गए थे.

दो अप्रैल 1926 को हुए इस दंगे के 99 साल बाद, पिछले हफ्ते हुई हिंसा ने फिर स्पष्ट कर दिया कि पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक विवाद गहराता जा रहा है. मुर्शिदाबाद में तीन लोगों की हत्या के बाद सैकड़ों लोगों ने गंगा पार जाकर सुरक्षित बस्तियों में शरण ले ली है.

राजनीतिशास्त्री सुमन नाथ और शुभाशीष राय का कहना है कि 2008 के बाद से पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा बढ़ती गई है और इसके पीछे तृणमूल काँग्रेस (टीएमसी) और भाजपा के बीच राजनीतिक रस्साकशी का हाथ रहा है. 1926 की तरह, आज भी यह स्पष्ट नहीं है कि हिंसा कैसे शुरू हुई, लेकिन प्रेक्षकों का कहना है कि हिंसा नए वक्फ कानून (जिसका टीएमसी ने समर्थन किया है) के विरोध में हुए प्रदर्शनों और पूरे राज्य में भाजपा समर्थित रामनवमी जुलूसों के बाद शुरू हुई.

पिछले साल बेलडांगा में एक नियोन साइनबोर्ड पर लिखे आपत्तिजनक नारे के कारण सांप्रदायिक हिंसा हुई थी. 2023 में, औद्योगिक उपनगर रिशरा में रामनवमी जुलूसों के कारण सांप्रदायिक झगड़े हुए जिनमें प्रतिद्वंद्वी गुटों ने सोडा बोतलों, ईंटों और देसी बमों का इस्तेमाल किया था.

हालांकि, आज सांप्रदायिक हत्याएं पहले वाले स्तर की नहीं होतीं, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह के झगड़े पूरे देश में बढ़ रहे हैं. ऐसा लगता है कि नेता लोग अपने समर्थक मतदाताओं को लामबंद करने के लिए हिंसा को एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करना पसंद करते हैं, जो बेशक खतरनाक रूप न ले. बंगाल का इतिहास बताता है कि यह एक खतरनाक धारणा है.

नफरत का उफान

पश्चिम बंगाल की माकपा सरकार के खिलाफ मुसलमानों के बढ़ते असंतोष का लाभ उठाकर सत्ता में आई टीएमसी का इस समुदाय पर प्रभाव जमीयत-ए-उलेमा हिंद जैसे मजहबी समूहों के समर्थन से बढ़ा. अपने कार्यकाल के शुरू में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस समर्थन का बदला चुकाने के लिए इमामों और मुअज्जिनों को भत्ते देने की घोषणा की. अदालतों ने इसे असंवैधानिक बता दिया लेकिन राज्य सरकार ने ये भत्ते वक्फ बोर्ड के जरिए देने का रास्ता निकाला.

इस्लामी मौलवियों के साथ अपने रिश्ते को मजबूत बनाने के टीएमसी सरकार के प्रयासों ने धर्म को अंततः राजनीति की भाषा में दाखिल करा दिया. भाजपा जबकि ममता के मुस्लिम समर्थक रुझान की निंदा कर रही थी, ममता ने रामनवमी के जुलूसों और हिंदुओं के धार्मिक जमावड़ों को भी समर्थन देना शुरू कर दिया. 2020 में, उन्होंने हिंदू पुरोहितों को भी भत्ते देने की व्यवस्था कर दी.

नाथ और राय ने बताया है कि धार्मिकता की इस होड़ के नतीजे 2008 के बाद से सामने आने लगे. राज्य में सांप्रदायिक दंगों की संख्या में करीब दस गुना वृद्धि हो गई. 2008 में केवल 10 दंगे हुए थे, तो 2017 में 56 दंगे हुए.

नैहाटी-हाजीनगर इलाके में 2016 में चश्म शाह बाबा के मजार पर धार्मिक अनुष्ठानों के पुराने समझौते को लेकर विवाद के चलते भारी हिंसा हुई. इसके बाद रामनवमी और मुहर्रम पर उग्र प्रदर्शन करते हुए जुलूस निकाले गए, जिनके दौरान कई घरों और दुकानों को जलाया गया. 2016-17 में, टीएमसी कार्यकर्ताओं के दो गुट जमीन के एक सौदे में जबरन वसूली के मुद्दे पर भिड़ गए थे, जिसके बाद भड़की सांप्रदायिक हिंसा कई सप्ताह तक चली. 2018 में, आसनसोल-रानीगंज में रामनवमी जुलूस को लेकर ही दंगे हुए.

राजनीतिक विश्लेषक अंबर घोष और निरंजन साहू ने लिखा है कि इस तरह की बड़े पैमाने पर हुई हिंसा राजनीतिक दलों के संरक्षण में सक्रिय अपराधियों की सामान्य हरकतों से जुड़ी होती है, जिसे वे ‘रोज की हिंसा’ कहते हैं. उनका कहना है कि अपराधीकरण की शुरुआत 1970 से मानी जा सकती है, जब वाममोर्चा सरकार ने आज़ादी के बाद से सत्ता पर कांग्रेस के एकाधिकार को चुनौती देना शुरू किया. इसके बाद हुए सत्ता-संघर्ष में अंततः माकपा जीत गई.

घोष और साहू का कहना है कि माकपा और उसकी सहयोगियों ने मिलकर ऐसी व्यवस्था खड़ी की जिसमें “राज्य के ग्रामीण जीवन में परिवार या रिश्तेदारी या जाति, या धर्म, या बाजार नहीं बल्कि ‘पार्टी’ प्रारंभिक संस्था के रूप में स्थापित हो गई. यह संस्था सामाजिक गतिविधियों के हर दायरे में मध्यस्थता करने लगी.”

2008 के बाद से, उभरते माओवादी आंदोलन ने हिंसा पर माकपा के एकाधिकार को चुनौती देना शुरू कर दिया, जिसका टीएमसी ने अपने लाभ के लिए बड़ी कुशलता से इस्तेमाल किया. इसके नेताओं ने बाद में माओवादी सहयोगियों को परास्त करने के लिए केंद्र सरकार के साथ भी मिलकर काम किया, लेकिन उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी सिस्टम को जिस तरह निष्प्रभावी किया उसके कारण आदिम किस्म के धार्मिक संघर्ष फिर से सिर उठाने लगे.


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गिरोहबाज और देवता

1926 के दंगों में जिन लोगों ने भाग लिया था उन्हें पता होगा कि सांप्रदायिक और अपराधी तत्व किस तरह आपस में जुड़े हैं. इतिहासकर पी.के. दत्त ने लिखा है कि हैरिसन रोड पर ढोलक की थाप गूंजने के बाद 48 घंटे से भी कम समय में दंगा शुरू हो गया था और क्रांतिकारी आतंकवादी पुलिन दास को कालिटोला के मंदिर की रक्षा के लिए सक्रिय कर दिया गया था. अफीम तस्कर नंद घोष की अगुआई में एक दूसरा गुट रक्षा की दूसरी पंक्ति के रूप में खड़ा हो गया था. मुस्लिम लीग नेता हुसेन सुहरावर्दी ने अपनी तरफ से गिरोहबाज मीना पेशावरी को तैयार कर लिया था.

इतिहासकर दिलीप चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि 19वीं सदी के शुरू में, बंगाल के छोटे किसानों की शिकायतों ने सांप्रदायिक पहचानों को जन्म दिया. निसार अली और मुहम्मद मोहसीन अल्दीन अहमद के इस्लामी आंदोलनों ने कुरान के मुताबिक, काल्पनिक संसार को साकार करने की घोषणा की, जिसमें न कोई निजी जायदाद होगी और न कोई टैक्स लगेगा.

बाद में, अतीस दासगुप्त ने लिखा कि इस्लाम ने हिंदू जमींदारों और महाजनों के खिलाफ गरीब, मुख्यतः मुस्लिम किसानों के असंतोष को आवाज देने में अहम भूमिका निभाई.

पूर्वी बंगाल का मध्यवर्ग किसानों के इस उभार और अंग्रेजों के उपनिवेशवाद के दबावों से लड़ने वाले धार्मिक तथा सांस्कृतिक संगठनों के रूप में एकजुट हो गया. बंटवारे तक ये भावनाएं मुस्लिम लीग के समर्थन में मजबूती से उभर आईं.

इतिहासकर सुमंत बनर्जी ने लिखा है कि कलकत्ता के आपराधिक गिरोहों को इस उग्र धार्मिक लहर ने वैधता प्रदान की. उदाहरण के लिए, 1897 में मस्जिद की जमीन के कब्जे के खिलाफ मौलवियों के विरोध प्रदर्शन को इन गिरोहों ने ताकत दी. छोटे-छोटे आपराधिक गिरोहों के स्थानीय सरगना, सरदार और दादा ने समुदाय को संगठित करने, उन्हें जगह देने और विवादों में मध्यस्थता करने में अहम भूमिका निभाई और कभी-कभी तो उपनिवेशवादी शासन का भी विरोध किया.

बनर्जी बताते हैं कि 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद अपराधी गिरोह राजनीतिक संगठनों के करीब होते गए, और कभी-कभी अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी आतंकवाद का साथ भी दिया लेकिन वे सांप्रदायिक हितों की रक्षा करने में भी जुटे रहे. पश्चिम बंगाल की राजनीति में अपवाद किस्म की हिंसा की नींव आजादी के काफी पहले ही डाल दी गई थी.

पड़ोस में दरार

पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिम बंगाल जिन दिशाओं की ओर बढ़ रहे हैं वे स्पष्ट करते हैं कि दांव पर क्या कुछ लगा है. आजादी से पहले जो सांप्रदायिक युद्ध चला वह 1946 में बर्बर कत्लेआम में बदल गया, जिसमें करीब 4,000 लोग मारे गए. पश्चिम बंगाल एक नागरिक समाज बनाने में तो सफल रहा, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में ऐसी हिंसा हुई जिसने 1950 में 15 लाख; 1951-52 में छह लाख और 1953 से 1956 के बीच अतिरिक्त 16 लाख शरणार्थियों को भारत जाने पर मजबूर कर दिया. 1962 और 1963 में हिंदुओं के खिलाफ हिंसा में 35,000 शरणार्थी पश्चिम बंगाल और असम में आ गए.

लेकिन यह नरसंहार और हिंसा एक राष्ट्र या एक पहचान के निर्माण की समस्या का कोई समाधान नहीं कर सका. पूर्वी पाकिस्तान के जिन नेताओं ने बांग्लादेश नामक गणतंत्र के निर्माण में मदद की थी वे ही उससे बगावत कर बैठे. अपनी तमाम विफलताओं के बावजूद यह नया देश धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर बना था लेकिन उसे अहसास हुआ कि गृहयुद्ध ही एकमात्र विकल्प है.

पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा का फिर से उभार ऐसे समय में हुआ है जिससे बुरा समय कोई नहीं हो सकता था. इस्लामवाद बांग्लादेश में उभार पर है, और ‘इस्लामिक स्टेट’, अल-कायदा’ जैसे गुट भारत में सांप्रदायिक दरार का फायदा उठाने की उम्मीद पाले होंगे. भारत में भी सांप्रदायिक हिंसा नये सिरे से शुरू हो गई है, जो देश के नागरिक जीवन को तार-तार कर रही है. पश्चिम बंगाल में राजनीतिक नेता जिस सांप्रदायिक युद्ध को भड़का रहे हैं उसमें कोई विजेता बनकर नहीं उभरने वाला है. बंगाल में सांप्रदायिक आग को हवा दे रहे नेताओं को समझ लेना चाहिए कि खुद वे भी इसकी लपटों में खाक हो सकते हैं.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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