राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उनके पूंजीपति आकाओं की रणनीति के फलस्वरूप आजकल समकालीन राजनीति की सारी बहसें इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने और उसके आधार पर समाज में धार्मिक वैमनस्य फैलाकर राजनीतिक लाभ उठाने के लिए चलाई जा रही हैं.
आरएसएस और बीजेपी अपनी सामाजिक वर्चस्ववादी जातिगत मानसिकता के तहत इतिहास की मनमनानी व्याख्या करके यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उन पर इतिहास में उत्पीड़न हुआ है और उनको अधिकार है कि वह शताब्दियों बाद भी उसका बदला लें, लेकिन क्या ऐतिहासिक परिस्थितिजन्य साक्ष्य इसकी पुष्टि करते हैं कि इतिहास में कभी उनके साथ अन्याय और उत्पीड़न हुए हैं?
सबूत तो यही बताते हैं कि उत्पीड़न तो दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों का हुआ है जिन्हें हम सामूहिक रूप से बहुजन कहते हैं. मनुस्मृति ने व्यवस्था दी कि शूद्र को ज्ञान और धन अर्जित नहीं करना चाहिए. ज्ञान और धन के मामले में बहुजनों में जो विपन्नता आज कायम है वह इतिहास में उनके साथ हुए अन्याय उत्पीड़न शोषण भेदभाव अपमान का परिणाम है जो आज भी जारी है.
बताने की ज़रूरत नहीं है कि बहुजनों को सदियों तक शिक्षा और संपत्ति से वंचित रखा गया. उन्होंने जी-जान लगाकर मेहनत की, लेकिन उन्हें उसका फल नहीं मिला. एक तरह सदियों तक उनसे बेगार कराया गया, जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया गया. उनको छूने तक से परहेज़ किया गया, कमर में झाड़ू लटकाए गए जिससे उनके चलने से अपवित्र हो गया रास्ता साफ हो सके. उनके थूकने से धरती अपवित्र हो जाती थी इसलिए उनके गले में थूकने के लिए हाड़ी लटकाई गई. उनकी स्त्रियों को भोग की वस्तु बनाया गया, स्तन ढकने पर टैक्स लगाया गया आदि अत्याचार और अनाचार के असंख्य किस्से इतिहास में बिखरे पड़े हैं.
कोई मस्जिदों के नीचे मंदिरों के होने का दावा कर रहा है तो कोई मुगल बादशाह औरंगज़ेब की कब्र पर शौचालय बनवाने की सलाह दे रहा है. पूरा मीडिया तंत्र इस सनक के आवेग में हांफ रहा है, जबकि आज की ज़िंदगी की हज़ारों समस्याओं पर कोई चर्चा नहीं हो रही है, कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्र का ध्यान ज़रूरी चीज़ों से हटाने के लिए ही इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं.
इनकी याद मात्र से बहुजन समाज के लोगों का मन तिक्त हो जाता है. प्रभुत्वशाली वर्ग कथित ऐतिहासिक अन्याय उत्पीड़न का बदला लेने के जिस ढोंग का प्रदर्शन कर रहे हैं अगर, उससे प्रभावित होकर बहुजन अपने साथ सही में हुए ऐतिहासिक अन्याय उत्पीड़न और ज्ञान धन से बेदखली का बदला लेने पर उतारू हो जाए तो फिर क्या होगा?
गड़े मुर्दे
संविधान, इतिहास, कानून व्यवस्था, कॉमन सेंस को धता बताकर भाजपा इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़कर उससे झूठ और दुर्व्याख्या का आख्यान रच रही है. बहुजन जातियों को तो केवल सच दिखाना है. कड़वा सच बर्दाश्त करके भी वह शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक ढंग से लड़ रहे हैं. यह शुक्र मनाने की बात है, वरना किसी भी तरह से भारत को गृह युद्ध से नहीं बचाया जा सकता था.
आरएसएस- भाजपा के असीमित ढोंग को देखते हुए मुझे दशरथ मांझी जी की कहानी याद आती है. गड़े मुर्दे उखाड़ने के बरक्स मांझी जी ने पहाड़ खोदकर रास्ता बनाया. उन्हें बहुजन प्रतीक के रूप में देख सकते हैं और गड़े मुर्दे उखाड़ने वालों को वर्चस्ववादी जातियों का प्रतिनिधि मान सकते हैं.
प्रतिशोध का स्वाभाविक भाव बहुजनों में भी पैदा होता है, लेकिन उसे क्रियान्वित करने के बारे में कोई कदम नहीं उठता है. जिस पर इतने अमानवीय अत्याचार हुए उस बहुजन समाज से आने वाले दशरथ मांझी जी अतीत के बोझ से मुक्त होकर पहाड़ काटते थे, जिनका कोई सामाजिक उत्पीड़न नहीं हुआ वह कब्र खोद कर बदला लेने का ढोंग रच रहे हैं.
बहुजनों ने हमेशा विवेकसम्मत लोकतांत्रिक संघर्ष का सहारा लिया है. याद कीजिए जब ओबीसी आरक्षण लागू होने पर आरएसएस बीजेपी द्वय के सामाजिक आधार वर्ग से आने वाले युवा देह में आग लगा रहे थे, लेकिन बहुजन युवा संवैधानिक तरीके से अपने को व्यक्त कर रहे थे. वहीं जब गरीब सवर्णों के लिए 10% आरक्षण दिया जा रहा था तब बहुजन जातियों ने कहीं कोई हिंसा और विरोध का रास्ता नहीं अपनाया, जबकि गरीबी के नाम पर यह आरक्षण, आरक्षण के मूल आशय के साथ खिलवाड़ ही था.
किसी उत्पीड़ित समुदाय का अपने ऊपर हुए अन्याय और अत्याचार को भूलना कठिन होता है. इस संबंध में क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स ने टिप्पणी की थी जिसका आशय था कि उनकी आक्रामक खेल शैली औपनिवेशिक दमन के खिलाफ उनके नस्ल के गौरव और आत्मसम्मान को पुनः प्राप्त करने का तरीका थी. उनके शब्द कुछ इस तरह थे कि उनकी टीम के सदस्यों के मन में यह बात प्रेत की तरह मंडराती है कि गोरे उपनिवेशवादियों द्वारा उनके पूर्वजों पर सैकड़ों सालों तक अत्याचार किए गए और जब वे घातक तेज गेंदबाज़ी और विस्फोटक बल्लेबाजी करते हैं तो लगता है उन अत्याचारों का बदला ले रहे हैं और अपने लोगों के लिए प्रतिष्ठा अर्जित कर रहे हैं.
अमरीका में ‘ग्रेट डिबेट’ की ऐतिहासिक बहस में एक अश्वेत वक्ता ने कहा था कि ‘हमारे पास हिंसा का रास्ता चुनने का नैतिक अधिकार है. शुक्र मनाओ कि हम शांतिपूर्ण ढंग से लड़ रहे हैं.’ इसी तरह भारतीय उत्पीड़ितों ने जातिवादी वर्चस्व के विरुद्ध हिंसक रास्ता और प्रतिशोध का भाव नहीं आने दिया, यह हमारे राष्ट्र के लिए ‘शुक्र’ की बात है.
लेकिन जिस तरह भाजपा मुस्लिम शासकों के इतिहास को तोड़-मरोड़कर आज के मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैला रही है और इतिहास को हिंसक प्रतिशोध के रूप में देखकर एक राजनैतिक वातावरण बना रही है उसी तरह से उत्पीड़ित जातियों के लोग भी सवर्णों के खिलाफ करने लगें तो भारतीय समाज को गृहयुद्ध में झुलस जाने से कोई नहीं रोक सकता है. इसलिए राजनीति को हिंसक प्रतिशोध की परियोजना के रूप में नहीं बल्कि समतावादी प्रगति के रूप में संगठित करने की ज़रूरत है.
ज़ाहिर है, उत्पीड़ित जातियों ने आधुनिक लोकतंत्र में सामान्य तौर पर शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक संघर्ष के माध्यम से अपने हक और प्रतिनिधित्व की लड़ाई लड़ी है, जबकि सैकड़ों सालों के उत्पीड़न, शोषण और अपमान की स्मृतियों और अनुभवों जो आज भी जारी है से उत्पीड़ितों में हिंसात्मक प्रतिरोध का रास्ता पकड़ लेने का नैतिक अधिकार था.
(लेखक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं. उनका एक्स हैंडल @chandanjnu है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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