ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा पर फैली आग के बीच, अजीब अफवाहें फैलने लगीं कि एक ऐसे फकीर का उदय हुआ है जिसके पास अलौकिक शक्तियां हैं, जिन्हें बंदूकें और तोपें भी नहीं मिटा सकतीं. 1937 में एक सैन्य खुफिया अधिकारी ने लिखा कि “आग्नेयास्त्र उसके अनुयायियों को नुकसान नहीं पहुंचा सकते.” उसके अनुयायी दावा करते थे कि इपी के फकीर सूखी टहनियों को बंदूक में बदल सकते हैं, टोकरियों में रखी कुछ रोटियों को अपनी सेना के लिए पर्याप्त भोजन में बदल सकते हैं. यहां तक कि वह अपने दिव्य प्रभाव से हवाई जहाज़ से गिराए गए बमों को कागज़ के टुकड़ों में बदल सकते हैं—और ऐसा ही हुआ, जब उच्च-विस्फोटक बमों की जगह आसमान से पर्चे गिरे.
पिछले सप्ताह, पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने चेतावनी दी कि उनकी सेना “अफगानिस्तान के अंदर गहराई तक” हमला करने के लिए तैयार है. यह उन हमलों से उपजे दर्द का संकेत है जो तहरीक-ए-तालिबान के जिहादियों द्वारा सीमा पार से किए जा रहे हैं और जिनमें दर्जनों सैनिक और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं.
हालांकि पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस ने उन जिहादियों के साथ मिलकर सोवियत संघ को हराया था—और बाद में अमेरिका को कमजोर करने के लिए भी साथ काम किया—लेकिन इपी के फकीर की कहानी याद दिलाती है कि यह रिश्ता भाईचारे से नहीं, बल्कि हिंसक संघर्षों से आकार लिया गया है.
14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान की आज़ादी के कुछ ही दिनों बाद, अफगानिस्तान के राजा ज़हीर शाह ने औपनिवेशिक सीमा दुर्रंद रेखा के दक्षिण में रहने वाले पश्तून समुदायों पर पाकिस्तान के अधिकार को चुनौती दी. अगले महीने, काबुल ने पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश का विरोध किया. व्यापार वार्ताओं में कुछ प्रगति होने के बावजूद, दोनों देश पश्तून क्षेत्रों को स्वायत्तता देने के मुद्दे पर अटक गए.
फिर, 1949 में, अनिवार्य रूप से टकराव हुआ. पाकिस्तान एयर फ़ोर्स के 14 स्क्वाड्रन के दो हाकर टाइफून लड़ाकू बमवर्षकों ने मुगलगई गांव पर हमला किया और कथित तौर पर कई नागरिक मारे गए. इपी के फकीर द्वारा दशक पहले जलाई गई आग फिर भड़कने लगी. 1949, 1955, 1960 और 1976 में दोनों देश युद्ध के मुहाने पर पहुंच गए.
सीमा से बहुत दूर
पचासी वर्ष के नवाब शाहजहां ख़ान कई दर्जन महिलाओं वाले हरम के मुखिया थे, जिनमें वे अपनी इच्छा से नई महिलाएं जोड़ लेते थे. उनके पास तीन सौ खूंखार कुत्ते थे, जिन्हें दूध और कच्चा मांस खिलाकर पाला जाता था. वहां कोई स्कूल या अस्पताल नहीं था. कानून वही था जो हथियारबंद डकैतों के गिरोह तय करते थे, जो सड़कों पर गश्त लगाते थे. 1959 में इस इलाके की यात्रा करने वाले इतालवी मानवविज्ञानी फोस्को मारीआनी को एक युवा निवासी ने बताया, “यह जगह सचमुच एक जेल है.” 1957 में एक विद्रोह हुआ था, लेकिन उसे बेरहमी से कुचल दिया गया.
ब्रिटिश अफसरों की नाराजगी के बावजूद, तत्कालीन विदेश मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तर्क दिया कि स्थानीय शासकों को दी जाने वाली सब्सिडी ने उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में पिछड़ेपन को कायम रखा है, और यह धन विकास में लगाया जाना चाहिए. दिर, स्वात और चितरल जैसे छोटे रियासतों सहित स्थानीय शासक साम्राज्य के चरम दौर में भी काफी हद तक स्वायत्त रहे थे, लेकिन उन्होंने अपने नागरिकों के लिए कुछ नहीं किया.
उत्तरी वज़ीरिस्तान के तोरीखेले वज़ीर, मिर्ज़ा अली ख़ान वज़ीर, साम्राज्य के हटने की तैयारी के बीच पहाड़ों में उठते तूफान में खिंचते चले गए. प्रभावशाली धार्मिक नेता नक़ीब-ए-चहारबाग़ के शिष्य के रूप में शिक्षित होने के बाद, वे इपी में बस गए. उन्होंने अफगानिस्तान में राजा नादिर शाह की राजशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ी, जिसे वे अवैध और इस्लाम-विरोधी मानते थे, और ब्रिटिशों के खिलाफ भी.
फिर, 1936 में, फकीर खुद को एक ऐसे विवाद के केंद्र में पाया, जिसमें स्थानीय परंपरा और औपनिवेशिक शासन टकरा रहे थे. 1936 में, राम कौर नाम की एक सिख किशोरी के बारे में आरोप लगा कि वह स्कूल शिक्षक सैयद अमीर नूर अली शाह के साथ भाग गई है—जबकि उसके माता-पिता ने कहा कि उसे अगवा किया गया. एक स्थानीय अदालत ने आदेश दिया कि राम कौर नाबालिग है, इसलिए उसे परिवार को लौटाया जाए.
शांति बनाए रखने के लिए भेजी गई ब्रिटिश सेना की दो टुकड़ियां ख़ैसोरी नदी के पास से पीछे हट गईं, जबकि फकीर के समर्थकों ने दावा फैलाया कि सेना उसके आध्यात्मिक प्रभाव से डरकर पीछे गई है. इस मामले ने खेले वज़ीर, महसू़द और भिट्टनी जैसे क़बीलों को भी एक कर दिया.
जातीयता, आस्था और राजनीति
1937 की शरद ऋतु में नेहरू की मेज पर एक पत्र पहुंचा.
“स्वतंत्रता-प्रेमी लोगों के नेता और भारतीय राष्ट्र के प्रतिष्ठित मुखिया के नाम,” फकीर ने लिखा, जो मैदानों में उठ रहे नए राजनीतिक आंदोलन को उस समय की घटनाओं की व्याख्या करना चाहता था. उसने लिखा कि इस्लाम “हर व्यक्ति को धर्म चुनने की स्वतंत्रता देता है.”
उसने आगे कहा, “हम और जालिम सरकार के बीच युद्ध केवल इसलिए है क्योंकि उन्होंने हमारी स्वतंत्रताओं पर बेवजह हमला किया है, न कि इसलिए कि हमें धर्मांतरण का कोई जुनून है.” यह पत्र खास इसलिए था क्योंकि इसमें न आर्थिक मदद मांगी गई थी, न समर्थन और न ही हथियार. नेहरू ने इस पत्र का कभी जवाब नहीं दिया.
ग्यारह वर्षों की शांति वज़ीरिस्तान में टूटती दिखाई दे रही थी. 1930-1931 में खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान की अगुवाई वाली ख़ुदाई ख़िदमतगार रेड शर्ट मिलिशिया ब्रिटिशों को पेशावर से बाहर करने के करीब पहुँच गई थी.
1937 से, फकीर ने ब्रिटिश किलों और चौकियों पर कई सफल हमले शुरू कर दिए—ख़ैसोरा घाटी में गश्त कर रहे सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, बिशी कश्कई में एक शिविर की घेराबंदी कर दी. जल्द ही इस संघर्ष में रिकॉर्ड 61,000 ब्रिटिश और ब्रिटिश-भारतीय सैनिकों को शामिल होना पड़ा, और सरकारी खज़ाने से रोज़ाना एक लाख रुपए से ज़्यादा खर्च होने लगा.
सैनिक-लेखक जॉन मास्टर्स ने अपनी यादों में लिखा कि समस्या यह थी “कि जब वह इधर-उधर घूमकर गोलियां चलाता, झपटकर हमला करता और गायब हो जाता, तो हमें लगता था जैसे हम डंडे से भिनभिनाती ततैयों को मारने की कोशिश कर रहे हों.”
पूरे गाँवों पर जानबूझकर बमबारी और मशीन-गन से गोलियां चलाई गईं, ताकि जनजातीय लश्करों के परिवारों को सामूहिक रूप से दंडित किया जा सके. इसके जवाब में लश्करों ने मारे गए सैनिकों के शवों को क्षत-विक्षत करना शुरू कर दिया. रॉयल इंडियन एयर फ़ोर्स के पायलटों पर छोटे हथियारों की गोलीबारी बढ़ती गई, तो वे ‘गोली चिट्स’ रखने लगे, जिनमें यह वादा लिखा होता था कि अगर उन्हें बंधक बनाया गया तो फिरौती दी जाएगी—बस उन्हें नपुंसक न बनाया जाए.
कोल्ड वॉर का गतिरोध
आज़ादी के बाद, अफ़ग़ान राष्ट्रवादियों को लगा कि एक स्वतंत्र पश्तून राज्य का गठन सिर्फ़ समय की बात है. ब्रिटिश सेना के हटते ही फकीर ने दत्ता खैल पर कब्ज़ा कर लिया और उसे स्वतंत्र पश्तूनिस्तान का हिस्सा घोषित किया. मार्च 1947 में अफ़ग़ान सरकार ने तिराह में अधिकारियों को भेजा और स्थानीय क़बीलों को सलाह दी कि पाकिस्तान से किसी भी तरह का रिश्ता बनाने से पहले वे काबुल से मार्गदर्शन लें. दिर के नवाब शाहजहां खान तक, जिन्होंने एक साल पहले ही कश्मीर में पाकिस्तानी सैनिकों के साथ लड़ाई में अपनी सेना भेजी थी, संशय में पड़ गए.
विभाजन की आग ने पश्तून राष्ट्रवादी परियोजना को भी घेर लिया. कर्राल क्षेत्र में स्थानीय मुसलमानों ने अपने सिख पड़ोसियों का जबरन धर्मांतरण शुरू कर दिया और कुछ मामलों में हत्या तक हुई. हालात और खराब तब हुए जब हज़ारा के पास क़बीलों ने कई गैर-मुसलमानों का अपहरण कर लिया. ब्रिटिश अधिकारियों ने जब बंधकों को छुड़ाकर दोषियों पर जुर्माना लगाया, तो मुस्लिम लीग ने तीव्र विरोध किया.
इसके बावजूद बाजौर और स्वात में बड़े पैमाने पर घुसपैठ जारी रही और अफ़ग़ान अधिकारी पश्तूनिस्तान की परियोजना के लिए समर्थन जुटाते रहे. एक समय तो अफ़ग़ानिस्तान ने पाकिस्तान, पश्तूनिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच एक संघीय व्यवस्था का प्रस्ताव भी दिया, जिसे इस्लामाबाद ने सिरे से खारिज कर दिया.
हिंसा बढ़ने पर पाकिस्तान सेना ने एक बड़ा अभियान चलाया, जिसमें तोची स्काउट्स जैसे मिलिशियाओं को 7 डिविजन का साथ मिला, जिसका नेतृत्व मेजर-जनरल एम अतीक-उर-रहमान कर रहे थे. कार बम, छिपे हुए विस्फोटक, स्नाइपर घात और लगातार हवाई हमलों से भरा यह युद्ध कई वर्षों तक चला.
1955 में संकट फिर भड़का, जब सैन्य शासक जनरल याह्या ख़ान ने ‘वन-यूनिट’ योजना लागू की, जिससे पश्तून क्षेत्रों की स्वायत्तता काफी कम हो जाती. गुस्साए अफ़ग़ानों ने काबुल में पाकिस्तान दूतावास पर पाकिस्तानी झंडा जला दिया, जबकि पेशावर के लोगों ने अफ़ग़ान वाणिज्य दूतावास को नुकसान पहुँचाया.
1961 में फिर लड़ाई छिड़ गई, जब अफ़ग़ान राष्ट्रपति दाऊद खान ने मुल्ला दीनदार खान और मुल्ला मलिक नियाज अली खान जैसे सरदारों को समर्थन देने के लिए अनियमित लड़ाकों को भेजा. पाकिस्तान एयर फ़ोर्स को बाग़ानंदैल और बाजौर, डिऱ और खैबर पास के पास एकत्र हो रहे लश्करों पर बमबारी करनी पड़ी. इसके बाद दोनों देशों ने 18 महीने से अधिक समय के लिए राजनयिक संबंध तोड़ लिए, जिससे व्यापार और सामुदायिक रिश्ते टूट गए.
इस बीच, प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने सरदार गुलबुद्दीन हिकमतयार की तरह, काबुल के ख़िलाफ़ इस्लामवादियों को उकसाकर पश्तूनिस्तान आंदोलन का बदला लेने की कोशिश की. अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत आक्रमण ने पाकिस्तान को इस्लामवादियों के लिए बड़े पैमाने पर धन जुटाने का ज़रिया दिया—जिससे उसे उम्मीद थी कि जातीय राष्ट्रवाद को दबा दिया जाएगा.
अब यह रणनीति बुरी तरह से उलट गई है. इस्लामाबाद अब उन आतंकियों का सामना कर रहा है जो पहले से कहीं बेहतर हथियारों और उपकरणों से लैस हैं, और सीमाओं के प्रति वही उपेक्षा दिखाते हैं जो उनके पूर्वजों ने दिखाई थी. पिछले शांति-वार्ताओं में इस्लामाबाद ने जिहादी समूहों को कुछ स्वायत्तता देने की इच्छा दिखाई है—लेकिन जिहादियों को पता है कि वे और भी अधिक मांग सकते हैं. रिश्वत और दबाव की प्रवृत्ति—राजनीतिक नेताओं के साथ मिलकर ऐसी संघीय व्यवस्था बनाने के बजाय, जिसमें जातीय पहचान और अधिकार दोनों समा सकें—ने पाकिस्तान को उसका पूर्वी हिस्सा खोया दिया. अब वही परिणाम पाकिस्तान सेना के उत्तर-पश्चिमी इलाके में सामने ख़ड़ा है—लेकिन और अव्यवस्थित, और ज्यादा खूनखराबे वाला, और अंत होने की उम्मीद बहुत कम.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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