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Saturday, 21 December, 2024
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विवेकानंद संघ-परिवार के वैचारिक पूर्वज नहीं हैं, न ही हिन्दू वर्चस्व के हिमायती: बस उन्हें हथिया लिया गया

एक भगवाधारी सन्यासी की फोटो से परे जाकर स्वामी विवेकानंद के विचार और कर्म को समझने के जरूरत है. दरअसल वेदांत का दर्शन हिन्दू साम्प्रदायिकता की राजनीति की काट है, समता और बंधुत्व पर आधारित भारत के लिए खाद और पानी है.

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क्या स्वामी विवेकानंद हिन्दू श्रेष्ठताबोध के विचारक हैं? क्या वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरखे और उस विचार के पुरातन प्रतिनिधि हैं जिसे आजकल `हिन्दुत्व` के नाम पर पेश किया  जाता है? या कि  वे संघ परिवार के हमले से देश को बचाने वाली शक्तियों के संगी-साथी हैं?

हाल में छपी एक किताब से यह बहस उठ खड़ी हुई है. गोविन्द कृष्णन वी की  `विवेकानंद– द फिलॉस्फर ऑफ फ्रीडम` शीर्षक किताब के आवरण-पृष्ण पर ही यह बड़ा दावा लिखा मिल जाता है: “संघ परिवार का महानतम प्रतीक (आइकॉन) ही उसका सबसे बड़ा अभिशाप (नेमेसिस) है” ! और, 485 पृष्ठों तक फैली किताब भरपूर साक्ष्यों के सहारे साबित करती है कि “विवेकानंद के विचार `हिन्दुत्व` के सभी बुनियादी सिद्धांतों के विरूद्ध हैं चाहे वह हिन्दू-धर्म की इसकी संकीर्ण धारणा हो या इसका तंगदिल राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक रूढ़िवाद या फिर इसका अधिनायकवादी बहुसंख्यकवाद और बुद्धिवादिता का विरोध”.   

यह वैसी कोई अकादमिक गुत्थी नहीं जिसमें सिर्फ विचारों के इतिहासकारों की रूचि हो. विवेकानंद के विचारों के प्रतिस्पर्धी पाठ के सहारे व्याख्याओं में जो धींगामुश्ती चलती है वह अपने स्वभाव में राजनीतिक है और विवेकानंद को लेकर होने वाले ऐसे परस्पर प्रतिस्पर्धी पाठ का रिश्ता भारत के वर्तमान तथा भविष्य से जुड़ा है. इसी नाते विवेकानंद को लेकर उठ खड़ी हुई बहस में मेरी दिलचस्पी है, यों मैं विवेकानंद के विचारों का विशेषज्ञ नहीं. गोविन्द कृष्णन ने विवेकानंद के धार्मिक और सामाजिक दर्शन की खूब गहरी पड़ताल करते हुए और इस दर्शन को भारत में राष्ट्रवाद के उभार के पहले के वक्त तथा विक्टोरियाई दौर के युरोप में प्रचलित विचारों के संदर्भ में रखते हुए विवेकानंद संबंधी अपनी समझ और सिद्धांत की पुष्टी में तर्क दिये हैं.

इस नाते गोविन्द कृष्णन की किताब बिल्कुल सही समय पर आयी है क्योंकि यह किताब विवेकानंद की वैचारिक विरासत को अभी के समय के सबसे जरूरी और सबसे कठिन राजनीतिक कर्तव्य के हित में बचाने का काम करती है. यह कर्तव्य है भारत के स्वधर्म पर हो रहे सबसे घातक हमले से उस विचार को बचाना जिसकी बुनियाद पर भारत नाम का गणतंत्र टिका है.

संस्कृति की जड़ों से दूर होती सेक्युलर राजनीति

अफसोस की बात है कि सेक्युलर राजनीति आज के समय के सबसे जरूरी और सबसे कठिन चुनौती के सामने कमजोर पड़ रही है. जरूरत नये विचारों को खोजने, जीवनदायी नई धाराओं को सहेजने और नये दोस्त बनाने की है लेकिन ऐसा करने की जगह उदारवादियों-प्रगतिशीलों का खेमा संस्कृति के उस पूरे दायरे को ही सिकोड़ता जा रहा है जिससे नवाचार के लिए ताकत मिला करती है. जरा तुलना करें इस स्थिति की संघ परिवार से जिसने अपने दायरे का विस्तार करते हुए उसमें उन ऐतिहासिक हस्तियों जैसे सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और यहां तक कि शहीद भगत सिंह को भी समेट लिया है जिनसे अपनापा गांठने के लिए उसके पास एक भी जायज तर्क नहीं हैं.

स्वामी विवेकानंद की वैचारिक विरासत पर दावा जताना संघ परिवार के लिए कहीं ज्यादा आसान था. साधारण, पढ़ा-लिखा आधुनिक भारतीय विवेकानंद के बारे में जानता ही कितना है सिवाय इसके कि वे बड़े ओजस्वी वक्ता थे और उन्होंने शिकागो में हुई धर्मसभा में अपनी वक्तृत्व कला से पूरी दुनिया का मन मोह लिया था. आम हिन्दुस्तानी के मन में मुख्य रूप से स्वामी विवेकानंद की भगवा-वस्त्रधारी हिन्दू-संन्यासी की प्रेरणादायी छवि बसी है जो उसके मन में अपने हिन्दू और भारतीय होने को लेकर एक गहरा मगर अस्पष्ट सा गौरव-बोध जगाया करती है. और, आरएसएस चाहती भी यही है कि लोग स्वामी विवेकानंद के बारे में इतना ही भर जानें.

ऐसे लोगों को ये जानकर शायद धक्का लगे कि स्वामी जी संन्यासियों की तरह कामिनी-कांचन के त्याग का व्रत-पालन तो करते थे लेकिन वे ध्रूम्रपान के शौकीन थे और सिगरेट खुलेआम पीते थे. मांसाहार में उन्हें रस आता था और बड़ी रूचि के साथ वे मांस से बने व्यंजन पकाते थे, योग के नाम पर प्रचलित तरह-तरह के शारीरिक आसनों का वे उपहास करते थे. संघ-परिवार ने जिसे अपना नायक बना रखा है उस स्वामी को नये-नये मंदिर बनवाने में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं थी. जहां तक गौ-रक्षा अभियान का सवाल है तो स्वामीजी गरीबी और भुखमरी की मुश्किलों से घिरे मनुष्य से पीठ फेरे रखने वाले ऐसे अभियान के कटु आलोचक थे. जाहिर है, फिर ऐसा संन्यासी संघ-परिवार के लिए मुफीद तो हो नहीं सकता.

फिर भी, अगर आरएसएस ने स्वामी विवेकानंद की विरासत पर कब्ज़ा जमा लिया है तो इसके पीछे वजह है उदारवादियों-प्रगतिशीलों का वह रवैया जो कभी तो विवेकानंद के प्रति तटस्थता के रूप में सामने आता है और कभी उनकी वैचारिक विरासत के प्रति प्रखर शंका के रूप में. अक्सर तो यह खेमा विवेकानंद के बारे में होने वाली चर्चाओं पर चुप्पी साधे रखता है या फिर बहुत हुआ तो उनकी प्रशंसा में कुछ चलताऊ किस्म की बातें कहकर अपने कर्तव्य की इति-श्री समझ लेता है. कभी-कभी तो ऐसा मंजर भी सामने आता है कि इधर संघ परिवार विवेकानंद को अपना बताने के लिए जी-जान से लगा हुआ है और दूसरी तरफ सेकुलर खेमा विवेकानंद से जी-जान छुड़ाने में. ऐसे रवैये की शुरूआत का एक बिन्दु वह है जब प्रभा दीक्षित ने 1975 में छपे अपने एक लेख में विवेकानंद को हिन्दू सांप्रदायिक आंदोलन की राजनीति को वैचारिक आधार देने का जिम्मेवार ठहराया था. इस रवैये की परिणति होती है ज्योतिर्मय शर्मा की 2013 में प्रकाशित पुस्तक `ए रिस्टेटमेंट ऑफ रेलिजनः स्वामी विवेकानंद एंड द मेकिंग ऑफ हिन्दू नेशनलिज्म`(धर्म का पुनर्आख्यान- स्वामी विवेकानंद और हिन्दू भारत की निर्मिति) में. विवेकानंद को व्याख्यायित करने के इन दो प्रयासों के बीच की अवधि में ऐसी कई कोशिशें हुईं जिनमें विवेकानंद का चित्रण एक हिन्दू-श्रेष्ठतावादी और सामाजिक रूढ़िवादी के रूप में हुआ. जाहिर है, ऐसी व्याख्याओं को पहले भी चुनौती दी गई है जिसमें मुख्य नाम तपन रायचौधुरी (1998), जी. बेकरलेग (2003) और स्वामी महानंद (उर्फ अयन महाराज) की साल 2020 में आयी पुस्तक का है. इसी सिलसिले को आगे गोविन्द कृष्णन की किताब विवेकानंद को लेकर हुए ऐसे कुपाठ पर पानी डालने में मददगार है.

विवेकानंद हिन्दू थे, हिन्दू-श्रेष्ठतावादी नहीं

स्वामी विवेकानंद हिन्दू थे, सिर्फ जन्म से ही नहीं विचार और आस्था से भी हिन्दू थे, सगर्व हिन्दू थे.  उनका विशवास था कि हिन्दू धर्म में कुछ विशिष्ठ है मानवता को देने लायक. स्वामीजी के समय में औपनिवेशिक आकाओं और पढ़े-लिखे भारतीयों के बीच हिन्दू-धर्म का मजाक उड़ाने का चलन था और स्वामीजी इसके खिलाफ उठ खड़े हुए. लेकिन, इससे स्वामीजी हिन्दू-श्रेष्ठतावादी नहीं हो जाते.

अपवादस्वरूप सिर्फ एक अवसर को छोड़ दें (जब स्वामीजी ने प्रतिक्रिया के आवेग में एक ईसाई धर्म परिवर्तन के लिए तीखे शब्दों का व्यवहार किया था) तो उनके लिखे में कहीं भी ऐसा नहीं मिलता जहां उन्होंने किसी दूसरे धर्म की बुराई की हो. दरअसल स्वामीजी तो द इमिटेशन ऑफ क्राइस्ट (ईसा की राह पर) नाम की किताब अपने साथ रखा करते थे और ईसा से उनके जुड़ाव को सिर्फ भक्ति का नाम दिया जा सकता है. जहां तक इस्लाम का सवाल है, स्वामीजी ये बात जोर देकर कहते थे कि भारतीय समाज का पतन गैर-बराबरी और कूपमंडूकता के कारण हुआ है और इसके लिए मुस्लिम आक्रान्ताओं को दोष देना व्यर्थ है. उन्होंने समानता और भाईचारे के आचरण के पालन के लिए इस्लाम की प्रशंसा करते हुए कहा है कि यही एकमात्र धर्म है जिसने अपने आचरण में अद्वैतवाद को उतारा है.

बेशक स्वामी विवेकानंद ये भी मानते थे कि वेदान्त का दर्शन बाकी तमाम धर्मों से श्रेष्ठ है.  स्वामीजी ने कहा था की दुनिया के सभी धर्मों में द्वैतवाद सबसे नीचे है, इसके ऊपर की सीढ़ी विशिष्टाद्वैत है और सबसे शीर्ष पर है अद्वैत का दर्शन जिसे वे हिन्दू-धर्म का सार कहा करते थे. मेधानंद सरीखे विद्वानों का तर्क है कि विवेकानंद के चिन्तन-जगत के विकास में ऐसी मान्यता का दौर एक खास अवधि तक ही रहा और विवेकानंद के चिन्तन ने जब प्रौढ़ता प्राप्त की तो वे ये मानने लगे थे कि सभी धर्म सत्य की ओर ले जाने वाले विभिन्न रास्ते हैं, दरअसल तो वे ज्ञान-कर्म-भक्ति और राजयोग नाम से प्रचलित चतुर्योगों के ही रूप हैं.

अगर हम मेधानंद सरीखे विद्वानों की इस व्याख्या को नहीं मानते तो भी क्या कोई आस्थावान हिन्दू या मुसलमान या फिर ईसाई अपने धर्म को विशिष्ठ  मानकर चल रहा है तो उसका ऐसा करना गलत कहलायेगा? औपनिवेशिक सांस्कृतिक आक्रमण के उस दौर में किसी हिन्दू का ऐसा बरताव तो आत्म-सम्मान का बोधक ही माना जायेगा. और सबसे बड़ी बात तो ये कि अगर स्वामी जी हिन्दू धर्म में कुछ विशिष्टता देखते थे तो वह यह कि हिन्दू-धर्म में सभी धर्मों को सच्चा मानने का सामर्थ्य है. ऐसे विश्वास को धार्मिक श्रेष्ठतावाद कहना ठीक नहीं.

सो, जैसे महात्मा गांधी हिन्दू धर्म के और मौलाना आजाद इस्लाम के अनुयायी होने और सेक्युलर होने में कोई कठिनाई नहीं थी,  उसी तरह स्वामी विवेकानंद का हिन्दू-धर्म का प्रचार-प्रसार इस सेकुलर मान्यता के बिल्कुल मेल में है कि किसी भी धर्म को किसी दूसरे धर्म पर बरतरी हासिल नहीं है और राज्यसत्ता को चाहिए कि वह  सभी संगठित धर्मों से अपने को समान दूरी पर रखे. स्वामी विवेकानंद का सार्वभौम धर्म का सिद्धांत विभिन्न धर्मों के प्रति सहिष्णु रहने का ही दार्शनिक आधार प्रदान नहीं करता बल्कि धार्मिक विविधता की जरूरत समझाता है.

जाति-व्यवस्था के आलोचक

स्वामी विवेकानंद के बारे में ऐसा ही एक कुपाठ (भले ही ऐसा सचेत रूप से ना किया जाता हो) ये प्रचलित है कि वे जाति-व्यवस्था और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के समर्थक थे. गोविन्द कृष्णन ने अपनी किताब में एक लंबा अध्याय ऐसे आक्षेपों की प्रस्तुति और उनके खंडन में लिखा है. विवेकानंद की टिप्पणियों का साधारण पाठ भी करें तो ये दिख जायेगा कि वे `जाति` शब्द का दो अर्थों में व्यवहार करते हैं और दोनों अर्थों के बीच स्पष्ट भेद करते हैं. इसमें एक है जाति का व्युत्पतिमूलक अर्थ और दूसरे अर्थ में `जाति` पदानुक्रमिक सामाजिक-संरचना का बोधक है. वे `जाति` के पहले अर्थ की हिमायत करते हैं क्योंकि स्वामीजी के अनुसार जाति अपने व्युत्पतिमूलक अर्थ में मनुष्य की प्रजातिगत विभिन्नता की अभिव्यक्ति है. वे जाति के दूसरे अर्थ को नकारते हैं क्योंकि एक पदानुक्रमिक सामाजिक-व्यवस्था के रूप में जाति अन्यायपूर्ण है और ऐसी व्यवस्था के समर्थन में कोई उचित तर्क नहीं दिया जा सकता, सो ऐसी व्यवस्था से जितनी जल्दी छुटकारा मिले उतना ही अच्छा. स्वामीजी ने लिखा है : आधुनिक जाति-भेद भारत की प्रगति में बाधक है. यह(भेद) छांटता, बांटता और अलगाता है. विचारों की प्रगति के आगे ये (भेद) धूल-धूसरित हो जायेगा.

इसी तरह, स्वामीजी ने ब्राह्मण शब्द का भी दो विशेष अर्थों में प्रयोग किया है और भारतीय ज्ञान-परंपरा में ये दोनों ही अर्थ प्रचलित हैं. ब्राह्मण का एक अर्थ होता है ऐसा कोई भी व्यक्ति जो सद्गुणी हो और दूसरा अर्थ जन्म पर आधारित विशिष्ट सामाजिक समूह का सदस्य होने से जुड़ा है. ब्राह्मण शब्द के पहले अर्थ को स्वामीजी ने स्वीकार किया है और दूसरे अर्थ को नकारा है क्योंकि जन्म-आधारित एक सामाजिक समूह के सदस्य के रूप में ब्राह्मण उन्हें सद्गुण का आचरण करते नहीं जान पड़ते. स्वामीजी ने तो यह तक कहा है है कि “ ब्राह्मण जाति अपने हाथों से अपनी चिता तैयार कर रही है; और ऐसा होना भी चाहिए. अच्छा और उचित यही है कि उच्च-कुलोत्पन्न और विशेषाधिकार प्राप्त हर जाति अपने हाथों से अपनी चिता तैयार करने को अपना प्रमुख कर्तव्य स्वीकार करे.”

विवेकानंद समाजशास्त्री नहीं थे. सो, जाति-व्यवस्था के विषय पर उनके विचारों में अस्पष्टता, टाल-मटोल और असंगति जान पड़ सकती है लेकिन ऐसे में विवेकानंद की नीयत पर संदेह करना धृष्टता होगी. विवेकानंद अगर पहले नहीं तो भी उन शुरूआती हस्तियों में एक थे जिन्होंने समाजवाद की बात कही. वे ब्रिटेन के समाजवादी कवि एडवर्ड कारपेन्टर से लंदन में संपर्क में आये और पेरिस में अराजकतावादी चिन्तक पीटर क्रोपोटकिन से भी. विवेकानंद-साहित्य को पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि उनके लेखन में समतावादी समझ की एक प्रबल धारा दिखायी देती है. वे उन शुरूआती हस्तियों में एक थे जिन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ लैंगिक समानता, स्त्रियों की शिक्षा और मताधिकार की हिमायत की और धर्म तथा परंपरा के नाम पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव की कटु आलोचना की.

शब्दार्थ को लेकर चाहे जितनी बाल की खाल उखड़ी जाय, लेकिन यहां मुद्दे की बात ये है कि विवेकानंद जन्म पर आधारित जाति को आधार मानकर चलने वाली गैर-बराबरी और अन्याय के पुरजोर मुखालिफ थे. वे जाति को सामाजिक-संस्था मानते थे ना कि धार्मिक-संस्था और इसी नाते वे जाति-व्यवस्था को हिन्दू-धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं मानते थे. बेशक, यह समझ डॉ. आंबेडकर की जाति विषयक समझ के विपरीत है(हालांकि नारायण गुरू की जाति विषयक समझ के बहुत करीब भी है) लेकिन इसके आधार पर ये तो नहीं कहा जा सकता कि स्वामी विवेकानंद जातिगत अन्याय के पक्षधर थे. और फिर, विवेकानंद से यह अपेक्षा क्यों करना कि डॉ. आंबेडकर के बाद के समय में जाति-व्यवस्था की हमलोग जिस तरह विवेचना करते हैं ठीक वैसी ही विवेचना डॉ. आंबेडकर के पहले के समय में उत्पन्न स्वामी विवेकानंद भी करें.


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विचारधाराई हथियार और मार्गदर्शक

स्वामी विवेकानंद सरीखे व्यक्तित्व को समझने के लिए ऐतिहासिक दंभ और पुरातनपंथी सोच से उबरना हमारे आगे वास्तविक चुनौती है. राजनीतिक उदारवाद, सामाजिक न्याय तथा आधुनिकतावाद के अपने समकालीन मूल्य-मानकों के सहारे विवेकानंद की पैमाइश करना और उनपर फैसले देना आसान है. यहां तक कि जब हम विवेकानंद की सराहना करते हैं तो भी हम यही कहते प्रतीत होते हैं कि `यों तो वे धार्मिक व्यक्ति थे तब भी बड़े युक्तिसंगत प्रतीत होते हैं … थे तो वे कट्टर हिन्दू फिर भी सेक्युलर मिजाज के जान पड़ते हैं… यों तो वे हमारी पुरातन विरासत के रखवाले हैं लेकिन आधुनिक जान पड़ते हैं..`. अब यहां जरा गौर कीजिए कि ऐसे विवेचन में बुनियादी रूप से कुछ गलत है. बात सिर्फ इतनी ही नहीं कि हम जिन मानकों से विवेकानंद को तौल रहे हैं वे उनके समय में प्रचलित ही नहीं थे या यह कि विवेकानंद सरीखे चिन्तकों के कारण ही आज हमारे लिए अपने सूत्रों-सिद्धांतों तक पहुंच पाना संभव हो पाया है बल्कि यहां बड़ी बात तो ये है कि हम मानकर चल रहे हैं कि जिन मूल्यों पर आज हमारा विश्वास है वे पूरे जहान को समझने के शाश्वत प्रस्थान बिन्दु हैं, उनमें कभी बदलाव ही नहीं होने वाला,

विवेकानंद हमें अपनी मान्यताओं पर मूलगामी ढंग से पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करते हैं. विवेकानंद की वाणी में एक आमंत्रण है कि रहनी-जीयनी के सेकुलर दायरों में जो अध्यात्मिक खालीपन मिलता है, हम उस खालीपन से जूझें, धर्म को लेकर प्रचलित युक्तिसंगत जान पड़ते अंधविश्वासों से उबरें, सोचें कि हमारी आधुनिकता युरोप की आधुनिकता से कैसे भिन्न हो सकती है, हिन्दू-धर्म(अन्य धर्मों) से अपने रिश्ते को पुनर्परिभाषित करें और जानने की जुगत लगायें कि धार्मिक-चित्त का होकर गहरे अर्थों में सेकुलर होने के क्या मायने होते हैं.

निस्संदेह, संघ-परिवार पर हमला बोलने के लिए विवेकानंद एक ताकतवर विचारधाराई हथियार हैं. यह हमारी कमजोरी  होगी अगर हम समय जी का केवल  हथियार के  रूप  प्रयोग करते हैं, विवेकानंद से कुछ सीखते नहीं, उनको बतौर विरासत ऐसे प्रकाश-स्रोत की तरह नहीं बरतते जिससे अपने अंदर और बाहर दोनों तरफ उजाला हो सकता है. अपने गणतंत्र पर फिर से दावा जताने में विवेकानंद हमारे मददगार हो सकते हैं बशर्ते हम अपने गणतंत्र के सांस्कृतिक और अध्यात्मिक अर्थों की पुनर्कल्पना करने की ठान लें. क्या भारत नाम के गणतंत्र की नव-कल्पना की ऐसी एक वेदांतिक दृष्टि हो सकती है?

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. उनका ट्विटर हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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