कर्नल सोफिया कुरैशी पर मध्य प्रदेश के मंत्री कुंवर विजय शाह की टिप्पणी सिर्फ आपत्तिजनक नहीं थी — इसने बहुत कुछ उजागर किया था — एक ऐसी मानसिकता जो पहचान के बारे में पूछे बिना गरिमा को नहीं देख सकती. एक ऐसी मानसिकता जो किसी व्यक्ति की धार्मिक पहचान से परे देखने में विफल रहती है.
मंत्री ने कर्नल कुरैशी को “आतंकवादियों की बहन” तक कह दिया. एक सेवारत भारतीय सेना अधिकारी — जो देश के सामने ताकत, व्यावसायिकता और एकता का प्रतिनिधित्व करती थी — को एक वाक्य में उनके सरनेम तक सीमित कर दिया गया. इसकी गंभीरता खोई नहीं थी. मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने बयान का स्वतः संज्ञान लिया और पुलिस को एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया. सुप्रीम कोर्ट ने भी मंत्री को जिम्मेदार ठहराए जाने की सलाह दी और उनसे “जाकर हाई कोर्ट से माफी मांगने” को कहा.
जबकि देश के ज़्यादातर लोगों ने इस बयान की निंदा की है, लेकिन एक सवाल पूछना ज़रूरी है: सत्ता में बैठे किसी व्यक्ति को ऐसा कुछ कहने में सहजता कैसे महसूस होती है? शाह इस तरह की अपमानजनक टिप्पणी करने वाले पहले राजनेता नहीं हैं. दिक्कत और भी गहरी है.
अब ऐसी कोई उम्मीद नहीं रह गई है कि राजनेता जिम्मेदारी से बोलें. न तो समाज बेहतर की मांग करता है, न ही राजनीतिक दल कोई सीमाएं लागू करते हैं. यह ध्यान खींचने, सुर्खियां बटोरने और यह गणना करने के बारे में है कि उन्हें किससे वोट मिलेंगे — न कि क्या सही है. हम उस बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां बुनियादी शालीनता भी वैकल्पिक लगती है. अगर राजनीतिक दल सार्वजनिक चर्चा की रक्षा के बारे में गंभीर हैं, तो उन्हें कुछ स्पष्ट सीमाएं तय करनी होंगी — क्या स्वीकार्य है और क्या सीमा का उल्लंघन करता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा होने पर क्या परिणाम होंगे.
हां, मंत्री ने माफी मांगी — और भाजपा के मध्य प्रदेश प्रमुख वीडी शर्मा ने कहा कि उन्हें “तुरंत चेतावनी दी गई थी”, लेकिन इसके अलावा, चुप्पी है. शाह के निलंबन का कोई उल्लेख नहीं, कोई जवाबदेही नहीं — बस डैमेज कंट्रोल की सामान्य रणनीति. यह जिम्मेदारी लेने जैसा कम और आगे बढ़ने जैसा ज़्यादा लगता है और यह अपने आप में बहुत कुछ कहता है.
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एक रिमाइंडर
लेकिन एक और बात है जिसने मुझे चौंकाया: मंत्री अनुसूचित जनजाति से आते हैं — ऐसा समुदाय जो पीढ़ियों से भेदभाव का सामना कर रहा है फिर भी, उन्होंने किसी और के खिलाफ कट्टरता और संदेह की वही भाषा इस्तेमाल की, जो पूरी तरह से उनकी पहचान पर आधारित थी. यह याद दिलाता है कि नैरेटिव कितना शक्तिशाली हो सकता है. यहां तक कि जो लोग खुद हाशिये पर धकेल दिए गए हैं, वह कभी-कभी उन्हीं विभाजनों को अपने अंदर समाहित कर लेते हैं जो कभी उनके खिलाफ काम करते थे और यह सिर्फ दुखद ही नहीं है — यह खतरनाक भी है क्योंकि जब बहिष्कार महसूस करने वाले लोग इसे दोहराना शुरू करते हैं, तो हम हाशिये पर पड़ी आवाज़ों के बीच किसी भी एकजुटता की उम्मीद खो देते हैं.
इस तरह की टिप्पणियां कुछ और भी परेशान करने वाली बात को उजागर करती हैं — जिस तरह की मानसिकता लोगों के प्रतिनिधि भी रख सकते हैं. किसी को पूरी तरह से उसकी पहचान तक सीमित कर देना, उसे उसकी मुस्लिम पहचान के कारण आतंक से जोड़ देना, दिखाता है कि यह सोच कितनी गहराई तक समाई है और सच तो यह है कि हमें हैरान नहीं होना चाहिए. मुसलमानों के बारे में अपमानजनक सामान्यीकरण, समय के साथ, न केवल आम हो गए हैं — वह फैशन बन गए हैं. हम इसे प्राइम टाइम बहसों के दौरान देखते हैं और सोशल मीडिया के प्रभावशाली लोगों और शिक्षित और मंच वाले लोगों से सुनते हैं. यह विचार कि इस्लाम का पालन करने वाला हर मुसलमान किसी न किसी तरह से हिंसक विचारधारा का हिस्सा है, इतनी बार, इतनी लापरवाही से फैलाया जाता है कि अब यह किसी को भी चौंकाता नहीं है.
इसलिए जब कर्नल कुरैशी के बारे में कही गई बातों पर आक्रोश फूट पड़ा, तो हमें पूछना पड़ा — हम सच में किस बात पर नाराज़ हैं? टिप्पणी आपत्तिजनक थी, हां, लेकिन इसके पीछे की मानसिकता? इसे वर्षों से बिना रोक-टोक के बढ़ने दिया गया है और जब तक हम यह नहीं सीख लेते कि किसी भी मुद्दे पर बात कैसे की जाए — पूरे समुदाय को निशाना बनाए बिना, ऐसे प्रकरण होते रहेंगे.
लेकिन एक बात और है जिस पर हमें, मुसलमानों के रूप में, चिंतन करने की ज़रूरत है. हम अक्सर बातचीत की पर्याप्त जिम्मेदारी नहीं लेते हैं — अपने समुदायों के भीतर मुश्किल मुद्दों पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त जगह नहीं बनाते हैं और उस चुप्पी में, दूसरे लोग आगे आते हैं और हमें सबसे बुरे संभव तरीकों से परिभाषित करते हैं. न बोलने का खतरा यह है कि यह सामान्यीकरण के बढ़ने के लिए ज़मीन खोल देता है.
इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरों के नफरत करने के तरीके की जिम्मेदारी लेना, लेकिन इसका मतलब यह है कि अगर हम बातचीत का नेतृत्व नहीं करते हैं, तो हम हमेशा उस पर प्रतिक्रिया करने वाले होंगे और कहीं न कहीं, इसकी कीमत कर्नल कुरैशी जैसे लोगों के बारे में बात करने के तरीके से चुकाई जाती है — व्यक्तियों के रूप में नहीं, उनकी सेवा के लिए नहीं, बल्कि किसी और के पूर्वाग्रह के लेंस के माध्यम से.
प्रयास से समावेशी
इस विवाद ने जहां गहरी कट्टरता को उजागर किया, वहीं इस पर प्रतिक्रिया ने हमें यह भी याद दिलाया कि निराशा से कहीं अधिक आशा है. आक्रोश किसी एक पक्ष तक सीमित नहीं था. यहां तक कि भाजपा के भीतर भी इस टिप्पणी से खुद को दूर रखने वाली आवाज़ें थीं.
यह अभी भी एक ऐसा देश है जहां कर्नल कुरैशी सम्मान के साथ नेतृत्व करती हैं, जहां राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, एक आदिवासी महिला, सर्वोच्च संवैधानिक पद पर हैं, जहां न्यायमूर्ति बीआर गवई भारत के पहले बौद्ध और दूसरे दलित मुख्य न्यायाधीश बने हैं और जहां हमारी वायु सेना का नेतृत्व एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह, एक गौरवशाली सिख अधिकारी कर रहे हैं. यह भारत है. अव्यवस्थित, विविधतापूर्ण, कभी परिपूर्ण नहीं — लेकिन सभी को शामिल करने के लिए काफी विशाल.
और इस तरह का भारत सिर्फ खुद को बनाए नहीं रखता. इसे बचाया जाना चाहिए. इसके लिए लगातार काम करना होगा. न केवल आतंक की हिंसा के खिलाफ, बल्कि पूर्वाग्रह, सामान्यीकरण और आकस्मिक घृणा से होने वाले शांत नुकसान के खिलाफ भी क्योंकि भारत का विचार समावेशी है — डिफॉल्ट रूप से नहीं, बल्कि कोशिश से.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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