इस जन्माष्टमी विश्व हिंदू परिषद की स्थापना को लगभग 57 वर्ष हो जाएंगे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से स्थापित यह संगठन 1980 के दशक में तब मीडिया की नज़र में आया जब उसने रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन की बागडोर संभाली और उसे देशव्यापी बनाने का काम किया जिसकी परिणति अंतत: 5 अगस्त, 2020 को मंदिर के भूमिपूजन और निर्माण कार्य आरंभ होने के साथ हुई.
रामजन्मभूमि का आंदोलन और विहिप की उसमें ठोस भूमिका इतिहास हमेशा याद रखेगा.
लेकिन, विहिप की स्थापना की पृष्ठभूमि और 1980 के दशक तक के उसके कामकाज को देखें तो पता चलता है कि भारतीय राजनीति में जिस सोशल इंजीनियरिंग की बात मंडल आयोग लागू होने के उपरांत 1990 के दशक में आरंभ हुई, उस दिशा में विहिप दशकों से सफलतापूर्वक काम कर रहा था.
धार्मिक गतिविधियां विहिप के कामकाज का केवल एक छोटा हिस्सा
यह काम राम मंदिर निर्माण के आंदोलन के साथ ही जारी था और आज भी जारी है. लेकिन, मीडिया के माध्यम से विहिप की एकआयामी छवि बनी जो एक आक्रामक हिंदू धार्मिक संगठन के रूप में थी. जबकि तथ्य यह है कि धार्मिक गतिविधियां विहिप के कामकाज का केवल एक छोटा हिस्सा है, उसके काम का मूल आधार सेवा व सामाजिक समरसता है.
वास्तव में 1964 में मुंबई के संदीपनी आश्रम में जब लगभग 40 गणमान्य व्यक्तियों की उपस्थिति में जन्माष्टमी के दिन परिषद की स्थापना हुई तो वह संघ की ओर से स्वतंत्रता के बाद सामाजिक समरसता का एक बड़ा प्रयास था, इससे पूर्व 1950 के दशक में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना कर संघ ने जनजातीय क्षेत्र में सामाजिक समरसता अभियान की शुरूआत बिना किसी शोर शराबे के कर दी थी. विहिप की स्थापना को आप संघ की इस पहल का दूसरा चरण कह सकते हैं. संघ के वरिष्ठ प्रचारक दादा साहेब आप्टे ने विहिप के गठन से पहले देश भर का भ्रमण किया और सभी पंथों व संप्रदायों के लोगों को एक साथ एक मंच पर लेकर आए. इस अभियान का सबसे बड़ा लक्ष्य था हिंदू समाज में जाति प्रथा पर आधारित भेद भाव को समाप्त करना.
उस समय, यानी 1960 के दशक में यह आसान नहीं था. यह सच है कि कई हिंदू धार्मिक नेता, संत आदि ऐसे थे जो धर्मग्रंथों की रूढ़िवादी व्याख्या कर जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए चुनौतियां पैदा कर रहे थे. इन सभी को एक मंच पर ला कर उन्हीं के मुहं से यह बुलवाना आवश्यक था कि जाति के आधार पर किसी से भी भेदभाव करना गलत है, किसी भी हिंदू को किसी जाति के आधार पर मंदिर में आने जाने से रोकना गलत है, सभी हिंदू एक हैं.
किसी भी हिंदू से कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए
संघ के द्धितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी, जो स्वयं दीक्षा प्राप्त सन्यांसी थे, को इस बात का अहसास था कि हिंदू समाज में जो दरारें हैं उन्हें चौड़ा करने के बजाए संत समाज को उसे भरने में लगाना जरूरी है, पर यह काम आसान नहीं था. 1955-56 में मध्यप्रदेश में नियोगी समिति की एक रिपोर्ट आई जिसमें हिंदू जनजातीय लोगों के तेजी से ईसाई मत में धर्मांतरण का खुलासा हुआ था. हिंदू समाज की दरारों का लाभ कैसे हिंदू विरोधी ताकतें उठा रही थीं, इसने गुरूजी को और चिंतित कर दिया. उधर विदेशों में बसे हिंदू भी अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिए लगातार संघ के संपर्क में थे. ऐसे में गुरूजी ने दादा साहेब आप्टे को एक ऐसा संगठन खड़ा करने का जिम्मा सौंपा जिसमें हिंदू धर्म के सभी अग्रणी धार्मिक नेता एक साथ जुड़ें और समाज में विभाजनकारी शक्तियों और प्रवृत्तियों के निवारण में मदद करें तथा विदेशों में बसे हिंदुओं को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने में मदद करें.
आपटे ने लगभग सात-आठ वर्ष तक इस योजना पर काम किया और पूरे देश में भ्रमण कर हर क्षेत्र के लोगों से मिले. इसमें उन्हें मुंबई स्थित संदीपनी आश्रम के स्वामी चिन्मयानंद का भी विशेष सहयोग मिला. इस प्रकार 1964 में विहिप की स्थापना हुई. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर पहला बड़ा कदम विहिप ने कुंभ के अवसर पर प्रयागराज में प्रथम विश्व हिंदू सम्मेलन आयोजित कर किया. इसमें 11 प्रस्ताव पारित हुए और एकमत से संत समाज ने एक स्वर में घोषण भी कि कि हिंदू समाज में किसी भी प्रकार की छुआछूत पाप है और सभी हिंदू बराबर हैं, किसी भी हिंदू से कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए. यह एक बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इससे पहले सभी हिंदू धर्मगुरूओं ने एक साथ ऐसा कभी नहीं कहा था.
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इसके उपरांत दूसरा विश्व हिंदू सम्मेलन 1979 में प्रयागराज में और तीसरा सम्मेलन भी 2017 में प्रयागराज में ही हुआ. इस दौरान विहिप ने संगठनात्मक तौर पर अभूतपूर्व विस्तार किया. इस विस्तार के दौरान कुछ महत्वपूर्ण विभागों की रचना की गई जिसके अंतर्गत इसकी बहुआयामी गतिविधयां चलती हैं. ये विभाग हैं:
धर्मप्रसार विभाग—यह विभाग मूलत: हिंदुओं के धर्मांतरण को रोकने के विषय पर काम करता है. विहिप द्वारा जनवरी 2007 में अपने आरंभिक 42 वर्षों के कार्यकाल पर संगठन द्वारा ही प्रकाशित पुस्तक ‘विश्व हिंदू परिषद की 42 वर्षीय विकास यात्रा'(लेखक: रघुनंदन प्रसाद शर्मा) में इस विभाग की स्थापना का संदर्भ देते हुए कहा गया है, ‘अपने पूर्वजों के धर्म से किसी भी प्रलोभन, छल, कपट आतंक व हत्या के भय से जब अपना मूल धर्म छोड़ने पर किसी को विवश किया जाता है तो उसे धर्मांतरण कहा जाता है.
मुसलमान आक्रमणकारियों ने तलवार के बल पर तथा पुर्तगाली और अंग्रेजों के शासन काल में पादरियों ने प्रलोभन देकर भारत की विभिन्न जातियों उप जातियों वनवासियों हरिजनों आदि का बड़ी मात्रा में धर्मांतरण किया है. धर्मांतरित व्यक्ति, समूह अथवा जाति, परिवर्तित धर्म और उसकी सांस्कृतिक परंपराओं का अनुसरण करने लगती हैं. इसके फलस्वरूप देश धर्म और समाज में अनेक समस्याएं पैदा हो जाती हैं जिनके देश विभाजन जैसे दुष्परिणाम होते हैं.’
इस संदर्भ में धर्म प्रसार को परिभाषित करते हुए वह कहते हैं, लोभ लालच एवं आतंक के बल पर धर्मांतरित की हुई कोई जाति यां समाज जब अपने पूर्वजों के गौरव का स्मरण करके, सोच समझकर, स्वेच्छा से अपने पूर्वजों की सांस्कृतिक मूल धारा में वापस लौटता है तो उसे धर्म प्रसार कहा जाता है. वस्तुतः यह तो घर से भटके हुए कि घर में वापसी है.
सेवा विभाग—यह विभाग मूलत: समाज के पिछड़े वर्गों के सामाजिक व आर्थिक विकास में सहयोग देकर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास करता है. विहिप के अधिकृत दस्तावेजों (‘विश्व हिंदू परिषद की 42 वर्षीय विकास यात्रा,’लेखक: रघुनंदन प्रसाद शर्मा) के अनुसार, ‘विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के पश्चात जैसे जैसे प्रांतों में संगठन का कार्य बढ़ता गया उसी अनुपात में सेवा कार्यों में भी वृद्धि होती रही, परिषद के कार्यकर्ताओं ने पिछड़ी बस्तियों और दूरदराज के गांवों में विविध प्रकार के सेवा कार्य प्रारंभ की है.’ इन सेवा कार्यों के अंतर्गत संगठन देश भर में विविध प्रकार के प्रकल्प चला रहा है जिनमें छात्रावास, बाल संस्कार केंद्र, विद्यालय, पुस्तकालय, अस्पताल, औषधि वितरण केंद्र व मोबाइल औषधि वितरण केंद्र शामिल हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में सिलाई केंद्र, रोजगार प्रशिक्षण केंद्र, अनाथालय आदि भी चलाए जाते हैं.
धर्माचार्य संपर्क विभाग— इस विभाग का गठन संतों व धर्माचार्यों से सतत संपर्क रखने के लिए किया गया था. उद्देश्य यही था कि इन सभी संतों व धर्माचार्यों का मार्गदर्शन विहिप को मिलता रहे. चाहे वह परिषद के गठन का मामला हों यां विश्व हिंदू सम्मेलनों के आयोजन का, चाहे वह मीनाक्षीपुरम् में 1981 की धर्मांतरण की घटना के बाद इस विषय पर राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ने की चुनौती हो यां राम मंदिर निर्माण का आंदोलन, इस विभाग द्वारा किए गए समन्वय के कारण संत समाज की संपूर्ण शक्ति को एक साथ लाने का महत्वपूर्ण कार्य हो पाया जिसके दूरगामी परिणाम भी निकले. विशेष रूप से अस्पृश्यता, जातिगत भेदभाव व हिंदू समाज की कई अन्य सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के आंदोलनों में भी इस विभाग ने धर्माचार्यों को जोड़कर उन्हें अधिक प्रभावी व व्यापक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
महिला विभाग—महिला विभाग के गठन की प्रक्रिया 1973 के आस—पास आरंभ हुई जब उदयपुर में कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर के बाद प्रोफेसर मंदाकिनी दाणी विहिप के साथ पहली पूर्णकालिक महिला कार्यकर्ता के रूप में जुड़ीं. उन्हें संगठन में मंत्री का दायित्व देकर महिला विभाग की प्रमुख बनाया गया. आपातकाल के दौरान भी वह लगातार देश भर में प्रवास करती रहीं और संगठन के साथ बड़ी संख्या में महिलाओं को जोड़ती रहीं. इन सब प्रयासों का परिणाम 1979 में द्वितीय विश्व हिंदू सम्मेलन में सामने आया जिसमें लगभग 50 हजार महिलाओं ने हिस्सा लिया. महिला विभाग नियमित सत्संगों के माध्यम से महिलाओं को अपने साथ जोड़ता है व उनसे संपर्क बनाए रखता है. इन सत्संगों में केवल धार्मिक ही नहीं बल्कि सामाजिक व राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर भी चिंतन-मनन किया जाता है. सत्संग में जुड़ी कार्यकर्ताओं का विकास कर उन्हें उनकी रूचि के अनुरूप विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने की जिम्मेदारी दी जाती है. महिला विभाग द्वारा समय समय पर विभिन्न आंदोलनों में भगीदारी भी की जाती है.
रामजन्मभूमि के आंदोलन में महिला विभाग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा दहेज जैसी सामाजिक बुराईयों को लेकर भी आंदोलन चलाए गए. अश्लीलता का विरोध करने में भी महिला विभाग की महत्वपूर्ण भमिका रही है. इसके अतिरिक्त उसने गोहत्या का विरोध, धर्मस्थानों के अधिग्रहण का विरोध आदि को लेकर भी समय समय पर समाज में महिला शक्ति को आंदोलनों में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया है. बाल संस्कार केंद्रों में भी महिला विभाग की सक्रिय भूमिका रहती है.
(लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक विचार विनिमय केंद्र में शोध निदेशक हैं. उन्होंने आरएसएस पर दो पुस्तकें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)