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Friday, 19 April, 2024
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यूपी को कोरोना जैसी गंभीर महामारी से लड़ना है तो नर्सों की संख्या बढ़ाए, भरे जाएं वर्षों से खाली पड़े पद

उत्तर प्रदेश में नर्सों को और उनके काम को उतनी तवज्जो नहीं दी जाती है यही वजह है कि कोरोनाकाल में यूपी के कई अस्पताल प्रशिक्षित नर्सों की कमी से जूझ रहे हैं. दो लाख से ज्यादा प्रशिक्षित नर्स बेरोजगार हैं.10 हजार से ज्यादा प्रशिक्षित पुरुष नर्स भी खाली हैं. 

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इस समय देश कोरोना संकट से जूझ रहा है. ऐसे में डॉक्टर्स के साथ फ्रंटलाइन वर्कर्स के तौर पर नर्स की भूमिका और बढ़ जाती है. मरीजों की उचित देखभाल के लिए सिर्फ डॉक्टर ही नहीं नर्सों की भी भारी कमी है जरूरत है कि नर्सों की पर्याप्त संख्या में उपलब्धता हो. नर्सेज संघ के मुताबिक, दो लाख से ज्यादा प्रशिक्षित नर्स बेरोजगार हैं.10 हजार से ज्यादा प्रशिक्षित पुरुष नर्स भी खाली हैं. देश के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले हमारे उत्तर प्रदेश में नर्सों की भारी कमी है. काफी वक्त से यहां नर्सों द्वारा, उनकी भर्ती के संदर्भ में मुहिम छिड़ी हुई है जिसे सबके साथ की जरूरत है.

पिछले दिनों एक हाई लेवल एक्सपर्ट ग्रुप की रिपोर्ट जो कि भारत की यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज पर थी वो बताती है कि भारत के कई प्रदेशों में प्राथमिक उपचार केंद्रों में एएनएम ( Auxiliary Nurse Midwifery) जिसे साधारण भाषा में सहायक नर्स भी कहते हैं उसकी उपलब्धता जरूरत के हिसाब से कम है. उत्तर प्रदेश एवं बिहार में तो प्रथम स्तर (फर्स्ट लेवल) के संपर्क के मामले में भी यह संख्या कम है.

यूपी में नर्सों द्वारा चलाई जा रही मुहिम को निजी अस्पताल संचालाकों द्वारा लगातार तोड़ने की कोशिश की जा रही है. नर्सों और ओटी टेक्नीशियन द्वारा मेडिकल छात्र संघ और भारतीय जनकल्याण मेडिकल समिति जैसे संगठन बनाये गए जिनके बैनर तले भर्ती को लेकर मांग उठायी गयी.कई बार नर्सों को जान से मारने तक की धमकियां मिलीं, जिसके चलते  आंदोलन बिखरता और टूटता रहा है. उनकी भर्ती का संकट और गहराता गया है.


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नर्सों की मांग को गंभीरता से नहीं ले रही सरकार

यूपी में पिछली कई सरकारों ने नर्सों की मांगों को गंभीरता से नहीं लिया. इसका कारण ये भी माना जाता है कि इनका कोई मजबूत संगठन नहीं है और न ही आवाज है. इसके पीछे उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि भी एक बड़ा कारण है.यह समझ है कि नर्सों के हित को समाज या सरकार के हित के तौर पर नही देखा जाता है इसलिए भी उनकी मांग को गंभीरता से नहीं देखते हैं. कई बार जब वह संगठित होने की कोशिश करती हैं तो कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. इनमें से ज्यादा लोग

नर्सों की आवाज इसलिए भी नहीं सुनी जाती है क्योंकि असल में समाज में देखभाल के कार्य को ही हीन दृष्टि से देखा जाता है, यह हमारे समाज की तुच्छ मानसिकता का द्योतक है. नर्स के काम की विशेषज्ञता को कम करके आंकना समाज को गर्त में धकेलना है.

नर्स की महत्ता 

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, एएनएम की स्थायी भर्ती कई साल से नहीं हुई है.  प्रदेश में  9000 एएनएम की भर्ती होने की खबर पिछले दिनों आई थी लेकिन अभी नहीं हो पाई है.नर्सिंग का प्रशिक्षण पाईं महिलाओं के आधा दर्जन मुकदमे न्यायालय में लंबित होने के कारण पिछले कई सालों से एएनएम के पद खाली पड़े हुए थे. वहीं स्टाफ नर्स के 2 हजार से अधिक पद खाली हैं.अगर पूरे सूबे की बात करें तों मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक-सरकारी अस्पतालों में 11 हजार से ज्यादा पद हैं जिनमें करीब 5000 पद भरे हैं. इसी तरह चिकित्सा शिक्षा विभाग के तहत 5000 से ज्यादा पद हैं. यहां भी 50 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं.

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नौकरी के इंतज़ार और अभाव में कुशल प्रशिक्षण को न तो जरूरी समझा जा रहा है और न ही इसे तरज़ीह दी जा रही है. भर्ती न होने के कारण नर्सों एवं प्रशिक्षण संस्थानों को भी लगता है कि ट्रेनिंग की बहुत जरूरत नही है और न ही इसमें ज्यादा ऊर्जा लगाने की जरूरत है. इसलिए इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना जरूरी है कि नर्सों की भर्ती, स्वास्थ्य व्यवस्था की बेहतरी एवं कुशल प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए भी बेहद जरूरी है.

लंबे समय से नर्सों की भर्ती न होने के कारण उनकी ट्रेनिंग भी प्रभावित हुई है. जहां 2 से 3 साल की ट्रेनिंग की जरूरत है वहां 6 माह की ट्रेनिंग के बाद ही वह काम पर लगने की कोशिश करती हैं और न्यूनतम पैसे पर काम करने के लिए मजबूर रहती हैं. नौकरी के इंतजार और अभाव में कुशल प्रशिक्षण को न तो जरूरी समझा जा रहा है और न ही इसे तरजीह दी जा रही है.

भर्ती न होने के कारण नर्सों एवं प्रशिक्षण संस्थानों को भी लगता है कि ट्रेनिंग की बहुत जरूरत नहीं है और न ही इसमें ज्यादा ऊर्जा लगाने की जरूरत है. इसलिए इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना जरूरी है कि नर्सों की भर्ती, स्वास्थ्य व्यवस्था की बेहतरी एवं कुशल प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए भी बेहद जरूरी है.

स्वास्थ्य व्यवस्था में नर्सों की एक अहम भूमिका होती है डॉक्टर दवा लिखते हैं, सलाह एवं निर्देश देते है जिसके अनुपालन में नर्सों की बड़ी भूमिका होती है. नर्स रोगी की जरूरत के हिसाब से उनकी दिनचर्या, मरीज को कौन सी दवा कब देनी है, उनके स्वास्थ्य के लिए कब क्या जरूरत होती है यह सब करने का कार्य नर्स ही करती हैं. गंभीर मरीजों के लिहाज से उनकी भूमिका और अहम हो जाती है. बिना नर्सों के गंभीर मरीजो का ठीक होना मुश्किल हो सकता है. नर्स के पास इलाज करने का एक कुशल प्रशिक्षण होता है.


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कोरोना से लड़ाई में नर्सों की भूमिका

कोरोना काल में नर्सों की भर्ती की और ज्यादा जरूरत महसूस की जा रही है. नर्सों के अभाव में स्वास्थ्य व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल पा रही है.जो वृद्धजन है जिनको कोविड महामारी के समय में ज्यादा देखभाल की जरूरत है, ऐसे में देखभाल करने वाले व्यक्तियों एवं नर्स की जरूरत और बढ़ जाती है.

मरीजों की सही वक्त पर उचित देखभाल एक मजबूत आत्मविश्वास वाली नर्स ही कर सकती है.इसलिए जरूरी है कि नर्सों को उचित एवं कुशल प्रशिक्षण के साथ पर्याप्त अनुभव दिया जाए. नर्स अगर बेरोजगार रहेंगी तो अनुभव से वंचित रहेंगी और समाज अनुभवी नर्स से वंचित रहेगा.

उत्तर प्रदेश में भी नर्सों की एक ऐसी ही मांग आ रही है कि उन्हें फर्स्ट एड या प्राथमिक उपचार के लिए क्लीनिक खोलने की अनुमति दी जाए. इन क्लीनिकों को सरकारी अस्पतालों से सम्बद्ध किया जा सकता है जिसके नियमन का कार्य अस्पताल करे. ऐसा वो एनआरएचएम (नेशनल रूरल हेल्थ मिशन) के सीएचओ (चीफ हेल्थ ऑफिसर) कार्य को देखते हुए कह रही है जिसमें नर्स फर्स्ट एड एवं प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा देकर जिला अस्पताल भेजने के लिए रोगी को तैयार करती है.

अस्पतालों में नर्स एवं स्टाफ की भारी कमी है, जिसके चलते स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति बदहाल है. मौजूदा स्टॉफ एवं नर्सों के ऊपर काम का बोझ एवं शोषण बढ़ा है. निजी अस्पतालों द्वारा पर्याप्त वेतन न मिलने के कारण नर्सों के समक्ष सामाजिक सुरक्षा का संकट बना रहता है. कोविड-19 महामारी में खतरा ज्यादा होने एवं कम वेतन के कारण कई नर्सों, स्वास्थ्य कर्मचारियों एवं स्टॉफ काम छोड़ रहे है. ऐसे हालात अगर बने रहे तो काम के प्रति उनका रुझान कम होता चला जाएगा.

नर्सों को काम देना केवल उनके हित की बात नही है बल्कि पूरे समाज के लिए यह एक जरुरी कदम है. सरकारों द्वारा नर्सों को स्थायी काम का अनुभव देते रहना एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए और किसी महामारी या स्वास्थ्य आपातकाल का इंतजार नही करना चाहिए.

(डा. तरुशिखा सर्वेश, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सेन्टर फॉर वीमेन स्टडीज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और विकास स्वरूप, प्रयागराज के जी.बी.पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के शोध छात्र हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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