पिछले कुछ महीनों से सोशल मीडिया पर उत्तर प्रदेश में महिलाओं के साथ हो रहे सामूहिक बलात्कार और हत्या की खबरों की बाढ़ सी आ गई है. साल 2018 में तो भारत में महिलाओं के खिलाफ हो रहे कुल अपराधों की 16% घटनाएं उत्तर प्रदेश में हुईं. योगी आदित्यनाथ के तथाकथित एनकाउंटर राज के बावजूद प्रदेश में कानून व्यवस्था डगमगा रही है. और इस सब के बीच योगी आदित्यनाथ ऑपरेशन दुराचारी लेकर आए हैं. जैसे उन्होंने सीएए का विरोध करने वालों के लिए पोस्टर्स और तस्वीरें लगवाई थीं वैसे ही वो अब कथित छेड़छाड़ करने वालों और यौन अपराधियों के नाम और तस्वीरें लगाएंगे. इस तरह योगी सरकार जेंडर क्राइम्स से लड़ेगी और राज्य को अपराध मुक्त बनाएगी.
यौन अपराधों पर योगी आदित्यनाथ का ये पहला ‘मास्टरस्ट्रोक’ नहीं है. क्या आपको एंटी रोमियो स्क्वॉड याद है?
एंटी रोमियो स्क्वॉड का क्या हुआ?
योगी आदित्यनाथ ने पदभार संभालने के कुछ समय बाद ही एंटी रोमियो स्क्वॉड लॉन्च किया था ताकि महिलाओं की सुरक्षा की जा सके. लेकिन बाद में ये स्क्वॉड विवादों में घिरा रहा क्योंकि इसमें युवा जोड़ों की मोरल पुलिसिंग शुरू की जाने लगी. हमें कभी पता ही नहीं चला कि इस एंटी रोमियो स्क्वॉड का उद्देश्य पूरा हो भी पाया कि नहीं. स्क्वॉड अक्सर तब हेडलाइन्स में आता रहा जब वो ‘रोमियो’ को ऑन द स्पॉट सज़ा दे रहा था या उन्हें मुर्गा बना रहा था या सिर मुंडवा रहा था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ की एक बेंच ने यूपी पुलिस को निर्देश दिए थे जिसमें स्क्वॉड को सरकारी दिशानिर्देशों का पालन करने के लिए कहा गया था.
अदालत के आदेश के बाद, योगी को स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ा और नए दिशानिर्देश जारी करने पड़े. हालांकि, स्क्वॉड का डीएनए नहीं बदला, जिससे महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ताओं ने इस तरह की स्क्वॉड को हटाने की मांग की. हालांकि योगी ने अपने बनाए इस दस्ते का बचाव किया लेकिन आंकड़े यह बात नहीं दर्शाते हैं कि इस स्क्वॉड के लॉन्च करने के बाद महिलाओं के खिलाफ हो रहे क्राइम्स में कमी आई है.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की साल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, देशभर में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 378,277 मामले सामने आए थे. जिसमें 59,445 मामलों के साथ यूपी इस सूची में सबसे आगे बना रहा. एनसीआरबी की साल 2017 की सूची में भी यूपी शीर्ष पर था. उस साल यूपी में ऐसे 56,011 मामले दर्ज किए गए थे.
इसे भले ही योगी आदित्यनाथ का मास्टरस्ट्रोक कहें- इसका केंद्रीय सिद्धांत ‘पब्लिक शेमिंग’ ही लग रहा है. फिर चाहे वो डेटिंग कपल्स के बारे में हो या फिर सेक्सुअल हैरेसर्स के बारे में या फिर सीएए का विरोध करने वालों के बारे में. पब्लिक शेमिंग एक तरह से खतरनाक ‘स्वयं घोषित रक्षक’ पैदा करती है जो धीरे-धीरे कानूनी प्रक्रिया को दरकिनार कर देते हैं.
और जो पुरुष, यौन अपराधों के लिए दोषी हैं वो तो वैसे भी जेल में होंगे. तो फिर उनके नाम और तस्वीरें पोस्टर्स पर लगाकर टांगना किसी भी उद्देश्य को पूरा नहीं करेगा. अगर वो जेल में नहीं हैं और इस तरह के अपराध के आरोपी हैं तो भी उनके केस अदालतों में चल ही रहे हैं. उनके आरोप सिद्ध होने से पहले ही उनकी पब्लिक शेमिंग करना, एनकाउंटर राज का एक अलग रूप ही है.
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क्या ये हैरेस करने का राजनीतिक पैंतरा है?
पुलिस को हैबिचुअल अपराधियों के खिलाफ मामलों को आगे बढ़ाने के लिए कानूनी रास्ता अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. यही सही तरीका है और इसी तरीके से काम करने की अपेक्षा की जाती है ना कि मोरल गार्जियन बनने की. यहां गौर करने लायक बात है कि भारत में यौन अपराधों की सजा की दर बहुत कम है.
एनसीआरबी की ही साल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बलात्कार के मामलों में सिर्फ 11 प्रतिशत निपटान और 27 प्रतिशत कनविक्शन हुआ. इससे पता चलता है कि पुलिस अदालतों में महिलाओं के खिलाफ अपराध से जुड़े मामलों को गंभीरता से पेश नहीं करती. और अब यूपी सरकार, पुलिस और स्वयं घोषित रक्षकों को ऑथरिटेरियन ताकत दे रही है, ऐसी ताकत जिसका एंटी रोमियो स्क्वॉड ने दुरुपयोग किया था. इसके बाद वो एक अदालत की तरह व्यवहार करने और ‘मौके पर’ फैसला करने के लिए ताकतवर बनाए जाएंगे. एक तरह से वे जज, ज्यूरी और ‘सामाजिक’ जल्लाद, तीनों एक साथ बन जाएंगे.
हम यह भी नहीं भूल सकते कि कैसे योगी सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के प्रदर्शनकारियों को परेशान करने के लिए ऐसी ही एक पोस्टर रणनीति का उपयोग किया था. जिसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया और राज्य सरकार से प्रदर्शनकारियों के व्यक्तिगत जानकारियां देने वाले सभी होर्डिंग्स को हटाने के लिए कहना पड़ा. अदालत ने यह भी कहा कि सरकार का कदम ‘लोगों की प्राइवेसी में अनुचित हस्तक्षेप’ था.
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जेंडर क्राइम एक सामाजिक और कानूनी समस्या है
योगी सरकार को यह समझना होगा कि महिलाओं के खिलाफ अपराध एक सामाजिक समस्या तो है ही, साथ ही ऐसे मामलों में कम सज़ा दर, एक कानूनी मसला भी है. यह निश्चित रूप से सिर्फ एक राजनीतिक समस्या नहीं है. इसलिए, समाधान लैंगिक दृष्टिकोण से होने चाहिए- सामाजिक परिवर्तन लाने में कड़ी मेहनत और समय लग सकता है, साथ ही इससे आपको त्वरित सुर्खियां, टीवी बाइट और चुनावी रिटर्न नहीं मिलेंगे लेकिन अंततः न्याय मिलेगा. यही कारण है कि महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली कार्यकर्ता स्कूल स्तर पर सेक्स एजुकेशन और जेंडर सेंसेटाइजेशन की वकालत करती हैं. हम न तो ईरान हैं और न ही चीन बल्कि ऐसे देश हैं जो ग्रेजुअल चेंज में विश्वास करने के बजाए एक्सट्रीम तरीकों का सहारा लेते हैं. पब्लिक शेमिंग का यह तरीका एक खतरनाक ट्रेंड स्थापित करेगा. ये पुलिस को वंचितों और खासकर दलितों व मुस्लिमों को परेशान करने की शक्ति देगा.
‘इंस्टेंट जस्टिस’ (त्वरित न्याय) के तरीकों का परिचय एक सुधार नहीं है और न ही यह न्याय है. यह राज्य का एक अत्याचार है, जो सभी सामाजिक बीमारियों को ठीक करने के लिए बदला लेने में विश्वास रखता है. सरकारों को अपने खुद के महकमों में भी जेंडर सेंसेटाइजेशन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि यौन अपराध का कोई भी पीड़ित थाने में प्रवेश करने से भयभीत न हो. इसमें पीड़ितों के साथ गरिमा के साथ व्यवहार करते हुए उनके दोषियों को कनविक्शन तक पहुंचाना भी शामिल है.
स्कूल स्तर पर सेक्स के बारे मे बातचीत शुरू करना एक और दीर्घकालिक उपाय है. लेकिन ऐसा संभव होने के लिए भारत की ‘संस्कारी’ सरकारों को ‘S’ शब्द को सुनते ही ऑफेंस लेने की जरूरत नहीं है. और बहुत सारी ज़िम्मेदारी हमारे सामाजिक ताने-बाने पर भी है जो आसानी से दागदार हो जाता है और दिखावा करता है कि सेक्स नाम की कोई चीज ही नहीं है.
(व्यक्त विचार निजी है)
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