राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, कांग्रेस इस समय देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व के संकट से गुजर रही है. इस समय राज्य के कांग्रेस नेताओं में भगदड़ मची है. पिछले दो-तीन महीने में दर्जन भर नेता कांग्रेस का दामन छोड़कर दूसरे दलों में जा चुके हैं, जो पार्टी को चुनाव जिताने की क्षमता रखते थे.
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने सक्रियता दिखाकर पार्टी में जान फूंकने की कवायद की थी, वह लाभ अब खत्म होता नजर आ रहा है. पार्टी में भगदड़ मच गई है. आजीवन कांग्रेस से जुड़े रहने वाले नेताओं से लेकर कांग्रेस को बढ़ते देखकर पार्टी में आए नेता अब समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में भविष्य तलाश रहे हैं. 1984 में पहली बार बदायूं से सांसद बने सलीम इकबाल शेरवानी ने कांग्रेस छोड़कर सपा का दामन थाम लिया है. वह 5 बार सांसद और केंद्र सरकार में मंत्री रहे हैं. उन्होंने पिछला लोकसभा चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा था. उनके साथ ही मुलायम सिंह के खिलाफ 2007 में गुन्नौर से चुनाव लड़कर चर्चा में आए पीयूष रंजन यादव ने भी सपा का दामन थाम लिया.
उसके पहले जुलाई में बस्ती के हरैया विधानसभा क्षेत्र से लगातार विधायक बन रहे राजकिशोर सिंह ने बसपा का दामन थाम लिया. वह उत्तर प्रदेश की सपा और बसपा सरकारों में मंत्री भी रह चुके हैं, जिन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से चुनाव लड़ा था. बस्ती के पूर्व विधायक राणा कृष्ण किंकर सिंह और उनके पुत्र राणा नागेश प्रताप सिंह ने भी जुलाई में ही कांग्रेस छोड़कर बसपा का दामन थाम लिया. वहीं पूर्व एमएससी डिंपल सिंह भी बसपा में चली गई हैं.
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उन्नाव से 2009 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीतकर अनु टंडन चर्चा में आई थीं. कारोबार जगत से संबंधों व उनकी शिक्षा-दीक्षा को लेकर उन दिनों खासी चर्चा हुई थी. हाल ही में उन्होंने ट्वीट किया, ‘दुर्भाग्यवश प्रदेश नेतृत्व के साथ कोई तालमेल न होने के काऱण मुझे कई महीनों से काम में सहयोग नहीं मिल रहा है. 2019 का चुनाव हारना मेरे लिए इतना कष्टदायक नहीं रहा, जितना पार्टी संगठन की तबाही और उसे बिखरते देखकर हो रहा है. प्रदेश का नेतृत्व सोशल मीडिया मैनेजमेंट और व्यक्तिगत ब्रांडिंग में इतना लीन है कि पार्टी व मतदाता के बिखर जाने का उनको कोई इल्म नहीं है.’ पार्टी छोड़ने के कुछ दिन बाद उन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की मौजूदगी में सपा का दामन थाम लिया. उनके साथ ही कांग्रेस के महासचिव अंकित परिहार भी सपा में शामिल हो गए. उत्तर प्रदेश युवा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष शैलेश शुक्ला भी सपा में चले गए हैं.
अभी हाल ही में 9 नवंबर 2020 को सीतापुर की कांग्रेस नेता और पूर्व सांसद कैसर जहां ने भी सपा का दामन थाम लिया. उनके अलावा बांदा के रहने वाले चर्चित नेता और प्रदेश कांग्रेस के महासचिव बाल कुमार पटेल भी सपा में जा चुके हैं. बाल कुमार पटेल मिर्जापुर से सपा के सांसद रह चुके हैं. चित्रकूट इलाके में गरीबों के मसीहा के रूप में विख्यात रहे डकैत शिवकुमार पटेल उर्फ ददुआ के भाई बाल कुमार पटेल की उस इलाके की कई विधानसभा सीटों पर अच्छी पकड़ है, जिन्हें एक सक्रिय व संघर्षशील नेता के रूप में जाना जाता है. पूर्व विधायक राम सिंह पटेल ने भी कांग्रेस छोड़ सपा का दामन थाम लिया है.
इस समय न तो लोकसभा चुनाव है, न विधानसभा चुनाव, वरना यह आरोप लग सकते थे कि कांग्रेस टिकट नहीं दे रही थी, इसलिए नेताओं ने दूसरे दलों का विकल्प चुना है. प्रियंका गांधी की प्रदेश में सक्रियता और सपा-बसपा की राजनीति की हताशा के कारण बड़ी संख्या में नेता कांग्रेस से जुड़ने लगे थे और यह उम्मीद की जा रही थी कि वे पार्टी को एक मुकाम पर पहुंचा सकते हैं. इनमें ज्यादातर नेता अपने इलाकों में लोकप्रिय हैं और कांग्रेस के प्रति जनता का जरा सा भी नजरिया सकारात्मक होने पर आसानी से विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जीत हासिल कर सकते थे. पार्टी से निकलने वालों में सिर्फ ऐसे नेता ही नहीं हैं, जो दूसरे दलों से आए थे. तमाम स्थानीय स्तर के ऐसे नेता भी कांग्रेस छोड़कर भाग रहे हैं, जो सपा बसपा के दशकों के शासन में एक उम्मीद के सहारे पार्टी से जुड़े हुए थे.
कांग्रेस में इस समय प्रदेश के अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू हैं. वह अन्य पिछड़े वर्ग से आते हैं. पार्टी ने उनके संघर्षों को देखते हुए प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी थी. स्वाभाविक है कि पार्टी को उनसे उम्मीद थी कि वह जनता के बीच जाकर लोगों को जोड़ सकेंगे. पड़रौना के महाराज के नाम से पूर्वांचल में पहचान बना चुके आरपीएन सिंह उन्हें राजनीति में लाए और लगातार उन्हें आगे बढ़ाने का काम किया. अब पार्टी के नेताओं का कहना है कि लल्लू अपने संरक्षक आरपीएन सिंह को भी भूल चुके हैं. प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद की पहली प्रेस कान्फ्रेंस से लेकर अब तक वह आरपीएन का नाम लेने से बचते हैं. लल्लू की कवायद यही रहती है कि वह खुद को प्रियंका और राहुल का खास साबित कर सकें. उनकी राजनीति अब प्रियंका के दिल्ली बैठे खास सिपहसालारों से संबंध मजबूत करने तक सिमटकर रह गई है. जनसंघर्ष, विभिन्न मुद्दों पर धरना प्रदर्शन, जनता के मसलों पर आवाज उठाना उनकी पहचान थी, लेकिन अब लल्लू को धरना गुरू और गिरफ्तारी गुरू कहकर मजाक बनाया जाने लगा है. कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं से लेकर मीडिया में वह अब इसी नाम से जाने जाते हैं, जिनका एकमात्र मकसद यह रह गया है कि वे किसी तरह प्रियंका के सिपहसालारों की नजर में बने रहें और कुर्सी सुरक्षित रहे.
पार्टी नेताओं की एक ही शिकायत है कि इस समय पार्टी के प्रदेश का नेतृत्व जनाधार बनाने के लिए मेहनत न करके प्रियंका गांधी के खास सिपहसालारों की खिदमत करके पार्टी में स्थान बनाने में जुटा है. कांग्रेस से राजनीति शुरू करने वाली अनु टंडन ने सार्वजनिक मंच पर यह साझा किया, वहीं पार्टी छोड़ने वाले प्रत्येक नेता का यही दुखड़ा है कि उन्हें यह महसूस हो रहा था कि पार्टी में अब उनके जैसे नेताओं की जरूरत खत्म हो गई.
पार्टी की दिक्कत कुछ इस तरह समझी जा सकती है. किसान कांग्रेस, उत्तर प्रदेश मध्य जोन के चेयरमैन तरुण पटेल ने हाल ही में किसान यात्रा की योजना बनाई. वह चाहते थे कि सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती 31 अक्टूबर को फर्रुखाबाद से किसान स्वाभिमान यात्रा शुरू की जाए और उसे 15 दिसंबर को पटेल की पुण्यतिथि पर समाप्त की जाए. युवा नेता तरुण पटेल छात्र जीवन से ही कांग्रेस से जुड़े हैं. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष लल्लू ने यह कहकर इस यात्रा को खारिज कर दिया कि राज्य में उपचुनाव होने वाले हैं और इस यात्रा से चुनाव का लक्ष्य ‘बाधित’ होगा. पटेल की जयंती से लेकर उनकी पुण्यतिथि तक की किसान स्वाभिमान यात्रा के महत्त्व को कोई सामान्य राजनेता समझ सकता है. जीवन भर महात्मा गांधी के शिष्य और जवाहरलाल नेहरू के सहयोगी रहे पटेल को इस समय भाजपा ने ‘हाइजैक’ कर लिया है, जो किसानों में अत्यंत लोकप्रिय हैं. उत्तर प्रदेश के कुर्मी परिवारों में तो करीब हर घर में सरदार पटेल और शिवाजी की तस्वीरें मिलती हैं. तरुण पटेल न तो किसी उपचुनाव के प्रभारी थे, न उनकी उपचुनाव की चंद सीटों पर कोई भूमिका थी. इस यात्रा की चर्चा का लाभ उपचुनावों में मिल सकता था, लेकिन उन्हें यात्रा नहीं करने दिया गया. अब तरुण नए सिरे से किसान यात्रा की कवायद कर रहे हैं, जिसे इंदिरा गांधी, सरदार पटेल और चौधरी चरण सिंह से जोड़ा गया है.
इसी तरह पीयूष रंजन यादव जैसे कार्यकर्ता कांग्रेस में सिर्फ इस बात के लिए तड़पते रहे कि उनके इलाके में पद यात्राएं निकाली जाएं, कार्यकर्ताओं को बुलाया जाए, जिसमें प्रदेश स्तर के बड़े और चर्चित नेता आएं. उन्होंने सपा में शामिल होते ही इस तरह के कार्यकर्ता सम्मेलन का आयोजन करा दिया, जिसमें सपा के पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव पहुंचे और कार्यकर्ताओं व स्थानीय नेताओं के हर संघर्ष में खड़े होने का आश्वासन दिया.
कांग्रेस ने जब लल्लू को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो कार्यकर्ताओं में बड़ी उम्मीद थी. साथ ही पूरी टीम इस तरह गठित की गई थी, जिससे कि पिछड़े वर्ग के लोग पार्टी से जुड़ सकें. अब पार्टी में भगदड़ मची हुई है. केंद्र में पार्टी अध्यक्ष को लेकर जैसी घमासान मची है, उत्तर प्रदेश में भी वही हाल है. राज्य के प्रदेश नेतृत्व से नेताओं में इस कदर नाखुशी है कि हाल के 2-3 महीनों में तमाम नेता पार्टी छोड़ चुके हैं. वहीं बिहार और खासकर मध्य प्रदेश के राजनीतिक झटके से सदमे में आया केंद्रीय नेतृत्व लंबे अवकाश पर नजर आ रहा है.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)
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