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Saturday, 20 April, 2024
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जब तक लोकसभा चुनाव प्रक्रिया का समय कम नहीं किया जाता, भाजपा जैसी पार्टियां जीतती रहेंगी

कुछ दलों को मिल रहे अनुचित फायदे को रोकने के लिए चुनाव आयोग को एक दिन में या यथासंभव न्यूनतम अवधि में चुनाव संपन्न कराने का लक्ष्य निर्धारित करना होगा.

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गुरुवार को परिणाम आने के साथ कुछ ज़्यादा ही बहुत लंबे समय तक चले 2019 के लोकसभा चुनाव अंतत: संपन्न हो जाएंगे. चुनाव में विजेता बन कर जो भी उभरे, उसके सामने राष्ट्र को शांत करने, गणतंत्र को ठीक करने और देश को एकजुट करने की चुनौती होगी. मुझे और कोई अवसर याद नहीं आता जब भारत के नेताओं, सरकारी अधिकारियों और जनता का इतना बुरा रूप उभर कर सामने आया हो. यदि बुद्धिमता प्रबल रही तो जीतने वाले, हारने वाले और उनके समर्थक इस चुनौती को पहचान पाएंगे.

2019 के ड्रामा के केंद्र में चुनाव आयोग है, एक ऐसी संस्था जिस पर भारत गर्व किया करता था, पर जो मेरी नज़र में अब तारीफ का हकदार नहीं है. मैं इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) से छेड़छाड़ किए जाने के आरोपों की बात नहीं कर रहा, जो विपक्षी दलों में लोकप्रिय रहता है (भाजपा के एक नेता ने तो 2010 में इस पर एक किताब तक लिख डाली थी). मैं प्रधानमंत्री मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को आदर्श आचार संहिता का पालन सुनिश्चित करने को लेकर आगाह करने की चुनाव आयोग की अनिच्छा का भी ज़िक्र नहीं कर रहा. ईवीएम का मुद्दा जहां भ्रमित करने वाला है, वहीं आदर्श आचार संहिता के अधिकतर प्रावधानों को सख्ती से लागू करने का कानूनी आधार नहीं है.

इन दोनों विषयों पर विवाद दरअसल हमें उस मुद्दे से भटकाता है जो कि मेरी नज़र में चुनाव आयोग की सबसे बड़ी नाकामी है – चुनाव प्रक्रिया की निहायत ही लंबी अवधि.


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कभी खत्म न होने वाला

कुल 39 दिनों के साथ 2019 के लोकसभा चुनावों में मतदान, 2004 के चुनावों की तुलना में लगभग दुगुने समय तक चला. चुनाव की अवधि लगातार बढ़ती जा रही है – 2004 में 21 दिन, 2009 में 28 दिन और 2014 में 36 दिन. लंबी होती जाती चुनाव प्रक्रिया के पक्ष में दो कारण गिनाए जाते हैं. पहला, ये कि मतदाताओं की संख्या बढ़ती गई है – 2004 के 670 मिलियन के मुकाबले इस बार 900 मिलियन. दूसरा कारण ये बताया जाता है कि चुनावी मशीनरी, खास कर सुरक्षा बलों की तैनाती में अधिक समय की दरकार होती है.

सरसरी तौर पर, इन दलीलों में दम दिखता है. लेकिन इससे ये भी जाहिर होता है कि चुनाव आयोग बदलते भारत के साथ कदम मिलाकर चलने में नाकाम रहा है. यदि 2004 के मुकाबले अब 230 मिलियन अधिक मतदाता हैं, तो साथ ही तब के मुकाबले आज कहीं बेहतर राजमार्ग, ग्रामीण सड़कें, हवाई अड्डे और दूरसंचार नेटवर्क भी तो हैं. सरकारी राजस्व भी पहले से कहीं ऊंचे स्तर पर है. अर्द्धसैनिक बलों में भर्तियां बढ़ी हैं, खास कर 26/11 के मुंबई हमलों के बाद से.

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हां, ठीक से चुनाव कराने के लिए लाखों कर्मचारियों को तैयार कर चुनाव आयोग ने प्रशंसनीय काम किया है. हां, हर कुछ दिनों के अंतराल पर देश के एक कोने से दूसरे कोने की सैंकड़ों किलोमीटर की यात्रा करने की बाध्यता के बाद भी चुनावी प्रक्रिया की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सुरक्षा बलों ने प्रशंसनीय काम किया है. लेकिन इन सबके बावजूद, जब तक हम चुनाव आयोग से यथासंभव न्यूनतम दिनों में चुनाव कराने की मांग नहीं करते, उत्तरोत्तर चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता सवालों के घेरे में आएगी.

मुद्दे अनेक हैं

सर्वाधिक निष्पक्ष चुनाव तभी हो सकता है जब देश के सभी 543 सीटों पर एक ही दिन में मतदान हो. हर अतिरिक्त दिन और हर अतिरिक्त चरण निष्पक्षता के अनुपात को कम करता जाता है. इन बातों पर गौर करें:

पहली बात, लंबे समय तक चलने वाला चुनाव उन राजनीतिक दलों के लिए फायदेमंद है जिनके पास कि कतिपय स्टार प्रचारक हैं, जो मतदान से पूर्व अपेक्षाकृत अधिक चुनाव क्षेत्रों तक पहुंच सकते हैं. बेशक, स्टार प्रचारकों वाली पार्टियों को यह फायदा मिलना वाजिब है, पर चुनाव आयोग को इस बारे में संशयवादी बने रहना चाहिए, और उसे इस स्थिति को न तो प्रबल बनाना चाहिए और न ही बेअसर.

दूसरी बात, कई चरणों वाले चुनाव काडर आधारित राष्ट्रीय पार्टियों के लिए क्षेत्रीय दलों के मुकाबले फायदेमंद होते हैं, क्योंकि राष्ट्रीय पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को उम्मीदवारों के समर्थन के लिए एक राज्य से दूसरे में ले जा सकते हैं. राजनीतिक गोलबंदी के अवसरों की ये असमानता संघीय संतुलन को प्रभावित करती है. राजनीतिक या संवैधानिक माध्यमों से संघीय संतुलन में बदलाव एक बात है, पर चुनाव आयोग के चुनाव कार्यक्रम तय करने के तरीकों के कारण ऐसा होना बिल्कुल ही अलग बात है.

तीसरी बात, पार्टियां विभिन्न चुनावी तिथियों का फायदा उठाते हुए अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों को अपने चुनाव संदेशों से पाट सकती हैं. इस स्थिति में पहले चरण में एक वादा करना और बाद के चरणों में उससे बिल्कुल उलट यकीन दिलाना, यानि मतदाताओं को मूर्ख बनाना, तकनीकी रूप से संभव है. और इस मामले में भी, एक बार फिर राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों के मुकाबले लाभ की स्थिति में रहते है.

चौथी बात, लंबे और कई चरणों वाले चुनाव में प्रचार संबंधी कई नियम अप्रभावी हो जाते हैं. उदाहरण के लिए, कुछ चुनाव क्षेत्रों में मतदान पूर्व प्रचार बंद होने के बावजूद अन्य क्षेत्रों में वैध रूप से चुनाव अभियान चलता रह सकता है जहां कि बाद में मतदान होने हैं. आज के दौर में, जबकि टेलीविजन और सोशल मीडिया पर चुनावों का कवरेज अनवरत जारी रहता है, इसका मतलब ये हुआ कि जो मतदाता मतदान पूर्व की प्रचार-रहित अवधि में शांतिपूर्वक अपने विकल्पों पर विचार करना चाहता हो, वो भी प्रचार संदेशों से पीछा नहीं छुड़ा सकता. स्पष्ट है कि चुनाव संबंधी नियमों को 21वीं सदी के संदर्भ में नए सिरे से लिखे जाने की आवश्यकता है, पर ऐसा होने तक, कई चरणों वाले चुनाव में अनेकों मौजूदा नियमों का दुरुपयोग होता रहेगा.

और आखिर में, जितनी लंबी चुनाव प्रक्रिया होगी, कुल चुनाव खर्च उतना अधिक होगा. आर्थिक रूप से सबल पार्टियों और अतिरिक्त चंदा इकट्ठा करने में सक्षम पार्टियों को इसका अनुचित फायदा मिलेगा. मैं समझता हूं राष्ट्रीय दलों और राज्यों में सत्तासीन दलों को इसका अतिरिक्त लाभ मिलता है.


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संसाधनों का इस्तेमाल

चुनाव कार्यक्रम की वजह से कुछ दलों को दूसरो के मुकाबले अनुचित फायदा नहीं मिल पाए, ये सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग को यथासंभव एक दिन के चुनाव की निकटतम अवधि में चुनावी प्रक्रिया संपन्न करने का लक्ष्य निश्चित करना होगा. चुनावी प्रक्रिया की बेहतर संचालन व्यवस्था तथा आपूर्ति-श्रृंखला प्रबंधन की अच्छी तकनीकों में निवेश करने से चुनाव आयोग को कोई रोक नहीं रहा. न ही आयोग पर पर्याप्त संख्या में ईवीएम मशीनों का ऑर्डर देने और उन्हें पहले से निर्धारित जगहों पर पहुंचाने पर किसी प्रकार की रोक है. भारत के सुरक्षा बलों ने हमेशा साबित किया है कि वे अपने लिए निर्धारित नीतिगत लक्ष्यों को हासिल करने में सक्षम हैं. रेलवे और रोड के साथ-साथ वायु परिवहन का इस्तेमाल क्यों न करें? राज्य विशेष के सशस्त्र पुलिस बल को साथ लगे राज्यों में क्यों न तैनात किया जाए? चुनाव आयोग को इसे संभव करने के लिए जरूरी वित्तीय संसाधनों की मांग करनी चहिए और सरकार उन्हें उपलब्ध कराए.

विगत वर्षों में चुनाव आयोग को मिली तारीफ ने उसे और हम नागरिकों, दोनों को ही आत्मसंतुष्ट बना दिया है. इस चुनाव में आयोग के आचरण – सबसे अच्छे रूप में अशक्त, और सबसे बुरे रूप में पक्षपाती – ने अथक प्रयासों से अर्जित उसकी प्रतिष्ठा को धूमिल किया है. अन्य सवालों के साथ आयोग को खुद से ये भी पूछना चाहिए कि पूरी चुनावी प्रक्रिया वह शीघ्रता से संपन्न क्यों नहीं करा सकता.

(लेखक लोकनीति पर एक स्वतंत्र अनुसंधान और शिक्षा केंद्र, तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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