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Friday, 22 November, 2024
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यूक्रेन युद्ध उग्र हो रहा है, भारत को तमाम पक्षों से परमाणु अस्त्र के प्रयोग से बचने का आह्वान करना चाहिए

यूक्रेन युद्ध आज जिस मोड़ पर है और परमाणु अस्त्र के इस्तेमाल का खतरा बढ़ रहा है तब भारत की निष्क्रियता उसके इस दावे को कमजोर करेगी कि वह एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति है.

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चेतावनी देना और समझाना-बुझाना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इनका इस्तेमाल मनुष्य के आपसी संबंधों में खूब होता है. विवादास्पद मसलों को प्रभावित करने की क्षमता से ताकत की कीमत तय होती है और यह संबंधों के हिसाब से और विशेष संदर्भों के अनुसार होता है. यूक्रेन युद्ध के नतीजों को रूसी परमाणु हथियार कितना प्रभावित करेंगे, यह अभी बहस का विषय है. यह भविष्य में इतिहासकारों और राजनीतिशास्त्रियों को पर्याप्त सूचना उपलब्ध कराएगी ताकि वे इस सवाल का जवाब दे सकें कि परमाणु हथियारों ने यूक्रेन युद्ध में क्या भूमिका निभाई. बशर्ते यह सवाल पूछने के लिए कोई बचा रह गया हो. यह लगभग असंभव है, और कुछ लोग मानते हैं कि इसने परमाणु हथियार से परहेज करने की भावना को जिलाए रखा है.

यह परहेज परमाणु हथियार को वास्तविक रूप से न प्रयोग करने और उनका विकास न करने की भावना तक सीमित रहा है. वास्तव में, परमाणु खतरे का मनोविज्ञानिक प्रभाव ही इस चेतावनी की उपयोगिता का आधार रहा है और इसका इस्तेमाल परमाणु शक्ति से लैस हरेक देश तो करता ही है, वे देश भी करते हैं जो इस चेतावनी से पैदा हुई विस्तृत सुरक्षा का लाभ उठाते हैं. दूसरों को परमाणु हथियार का इस्तेमाल करने से रोकने के लिए इनके इस्तेमाल की चेतावनी शायद इसलिए जायज है कि इसे आत्म सुरक्षा के अधिकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है. लेकिन इस तरह का औचित्य तब अपनी अधिकतर चमक खो देता है जब परमाणु हथियार के प्रयोग की चेतावनी उन ताकतों को दी जाती है जो परमाणु शक्ति से लैस नहीं हैं या उसके खतरे के कारण पैदा हुई विस्तृत सुरक्षा का लाभ नहीं उठाती हैं. इस नजरिए से देखें तो रूस अगर यूक्रेन को परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी देता है तो यह अनुचित दिखेगी.

परमाणु अस्त्र संबंधी रूसी दावे राजनीतिक रूप से अक्षम्य हैं क्योंकि राष्ट्रपति के एक आदेश में इसके लिए जो शर्तें गिनाई गई हैं उनके हिसाब से यूक्रेन युद्ध के मौजूदा हालत इन शर्तों से बहुत दूर हैं. ‘परमाणु अस्त्रों की चेतावनी देने के मामले में रूसी संघ की सरकारी नीति के बुनियादी सिद्धांत’ नाम के इस आदेश पर व्लादिमीर पुतिन ने 2 जून 2020 को दस्तखत किया था. इसमें कहा गया है कि ‘रूसी संघ या उसके मित्र देशों के खिलाफ परमाणु अस्त्रों या जनसंहार के हथियारों के इस्तेमाल अथवा रूसी संघ पर पारंपरिक हथियारों के प्रयोग से अगर देश का अस्तित्व ही खतरे में पड़ने लगे तब रूसी संघ को यह अधिकार होगा कि वह जवाबी कार्रवाई के तहत परमाणु अस्त्रों का प्रयोग करे.’


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विश्व समुदाय अपने प्रयास तेज करे

रूस जिस तरह परमाणु अस्त्रों का ढिंढोरा पीट रहा है और उसकी सेना को जिस तरह शिकस्त मिल रही है और क्रीमिया पुल को हाल में जो नुकसान पहुंचा है, उन सबकी वजह से यह चिंता बढ़ गई है. परमाणु अस्त्रों के प्रयोग पर बंधन टूट सकता है और इसकी शुरुआत गैर-रणनीतिक या सामरिक परमाणु अस्त्रों के इस्तेमाल से की जा सकती है. वैसे, अमेरिकी खुफिया एजेंसियां कहती रही हैं कि उन्होंने रूस को अभी इस दिशा में कोई कदम बढ़ाते नहीं देखा है. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पिछले सप्ताह एक निजी डेमोक्रेट आयोजन में कहा कि ‘मुझे नहीं लगता कि किसी सामरिक परमाणु अस्त्र का आसानी से प्रयोग किया जाए और उसके कारण महायुद्ध न हो जाए.’ इस बयान को अमेरिका की ओर से यह संकेत माना जा सकता है कि अमेरिका परमाणु अस्त्र से जवाबी हमला कर सकता है. ऐसे जवाबी हमले के बिना महायुद्ध की संभावना नहीं बनती.

बाइडन एक निजी आयोजन में बोल रहे थे जहां मीडिया भी मौजूद था, बाद में यह सफाई भी दी गई कि बयान किसी अतिरिक्त खुफिया जानकारी के आधार पर नहीं दिया गया. इस तथ्य के कारण परमाणु अस्त्र की धमकी के असर को लेकर अस्पष्टता पैदा होती है. मनोवैज्ञानिक स्तर पर रूस और अमेरिका के बीच परमाणु अस्त्र को लेकर एक-दूसरे को धमकी दी जा चुकी है. इसलिए समय आ गया है कि विश्व समुदाय अपने प्रयासों को बढ़ाए और परमाणु अस्त्र को लेकर परहेज को बनाएं रखें. भारत इस तरह के प्रयास करने की बेहतर स्थिति में है.

परमाणु अस्त्र को लेकर खतरा दोनों तरफ की पारंपरिक सैन्य गतिविधियों से गहराई से जुड़ा है. कम नतीजे देने वाले परमाणु अस्त्र लाभकारी हो सकते हैं यह विचार नाटो ने शीतयुद्ध वाले दौर में दिया था जब यह माना जाता था कि इससे सैन्य लाभ मिलेगा और सोवियत संघ को सैन्य आक्रमण करने से रोकेगा.

यह और बात है कि टकराव बढ़ने की आशंकाओं पर नियंत्रण पाने को लेकर भारी अनिश्चितता थी. इस बात को बाइडन ने दोहराया है. इन अव्यावहारिक न्यूक्लियर रणनीति की परीक्षा शीतयुद्ध के दौरान नहीं हुई क्योंकि पारंपरिक चेतावनियां नाकाम नहीं हुईं. यूक्रेन में पारंपरिक चेतावनियां नाकाम हो चुकी हैं और ऐसा लगता है कि गैर-रणनीतिक परमाणु अस्त्रों के समर्थकों और विरोधियों ने पाला बदल लिया होगा. अब, राजनीतिक और सैन्य वास्तविकताएं दोनों पक्ष के नेतृत्व के राजनीतिक संकल्प को हिला कर रख देंगी. संयोग से, राजनीतिक और रणनीतिक माहौल भारत के लिए अनुकूल है कि वह यूक्रेन युद्ध में परमाणु अस्त्रों के खतरे को कम करने में अपनी भूमिका निभा सकता है.


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भारत कैसे पहल कर सकता है?

इस कोशिश का नेतृत्व करने की साख दो संयोगों से बनी है. पहला यह कि यूक्रेन युद्ध पर उसके राजनीतिक रुख के कारण इसके कूटनीतिक संपर्क उन सभी पक्षों के साथ बने हुए हैं जो इस युद्ध से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं. दूसरी बात यह है कि चीन के साथ-साथ खुद एक परमाणु शक्ति होने के कारण भारत परमाणु अस्त्र का पहले प्रयोग न करने (एनएफयू) की नीति के प्रति सैद्धांतिक रूप से प्रतिबद्ध है. ये दोनों कारण भारत को वह राजनीतिक आधार उपलब्ध कराते हैं कि वह उस आह्वान का नेतृत्व कर सकता है जिसके तहत यूक्रेन युद्ध में परमाणु अस्त्र के प्रयोग के खतरे को खारिज किया जा सकता है. मुद्दा यह है कि भारत इस आह्वान का नेतृत्व किस तरह करे.

आदर्श स्थिति तो यह होगी कि भारत और चीन मिलकर रूस और अमेरिका से यह आह्वान करें कि वे इस युद्ध में ‘एनएफयू’ संकल्प के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करें. इसके साथ यह ज़ोर भी दिया जाए कि परमाणु अस्त्र का जो भी पहले प्रयोग करेगा उसे अलग-थलग करने के सख्त अंतरराष्ट्रीय कदमों का सामना करना पड़ेगा. चीन-भारत संबंधों में तनाव के कारण यह मुश्किल है. लेकिन यह कूटनीति के बूते हासिल किया जा सकता है और इसकी कोशिश की जानी चाहिए.

साथ ही, भारत सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव लाकर इस युद्ध से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जुड़े पक्षों से अपील कर सकता है कि वे भी इस युद्ध के संदर्भ में ‘एनएफयू’ संकल्प लें. इस मसले पर अमेरिका और उसे मित्र देशों की प्रतिक्रिया दिलचस्प हो सकती है क्योंकि अपनी परमाणु छतरी के अंदर सुरक्षित ये देश ‘विस्तृत चेतावनी’ के आश्वासन से बंधे हैं.

यह ‘विस्तृत चेतावनी’ की अवधारणा की पोल खोल देगा, जिसके बारे में भारत के पूर्व सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने हाल में आई किताब ‘द शीथेड स्वर्ड’ (तक्षशिला संस्थान के आदित्य रामनाथन द्वारा सह-संपादित) की प्रस्तावना में लिखा है कि ‘यह इस विश्वासनीय बात को विश्वसनीय बनाने की कोशिश करता है कि कोई देश चाहे कितना भी वफादार और मूल्यवान क्यों न हो वह अपने मित्र देश की खातिर अपनी आबादी और शहरों को परमाणु हमले के जोखिम में डाल देगा.’

भारत के लिए और वास्तव में पूरी दुनिया के लिए बड़ा मसला यह है कि समय आ गया है कि वे सभी देश, जिन्होंने हाल में एक स्वर से कहा था कि परमाणु युद्ध में कोई जीत नहीं सकता इसलिए ऐसा युद्ध कभी न हो, वे सभी देश परमाणु अस्त्रों के गैर-जिम्मेदाराना इस्तेमाल के सभी आहवानों को खारिज करें. इस मोड़ पर भारत की निष्क्रियता उसके इस दावे को कमजोर करेगी कि वह एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला इंस्टीट्यूशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज के डायरेक्टर हैं; वे नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल सेक्रेटेरिएट के पूर्व सैन्य सलाहकार भी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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