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Friday, 22 November, 2024
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डीयू कॉलेजों को दी गयी यूजीसी की स्वायत्तता की योजना ज्ञान और शिक्षा की अपेक्षा प्रबंधन को प्राथमिकता देती है

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यूजीसी योजना कॉलेजों को उनके नाभिरज्जु, जो उन्हें आवश्यक उछाल और अनुनाद प्रदान करती रही है, से अलग करने की तैयारी में है।

र्मी के मौसम की झुलसा देने वाली तपन में दिल्ली विश्वविद्यालय एक बार फिर उबाल पर है।  दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (डीयूटीए) ने काफी विचार-विमर्श के बाद अपने सदस्यों को अंकन और मूल्यांकन प्रक्रिया का बहिष्कार करने के लिए स्पष्ट सन्देश दिया है।

जबकि यहाँ बहिष्कार को रेखांकित कर रहे कई सारे मुद्दे हैं वहीं मौजूदा मामले में विवाद का कारण एक हालिया यूजीसी प्रस्ताव है, जो कुछ सबसे प्रतिष्ठित (राष्ट्रीय स्तर पर उच्च रैंकिंग) कॉलेजों में श्रेणीकृत स्वायत्तता प्रदान करता है।
यदि इसे लागू किया जाता है तो इसमें बहुत आश्चर्य नहीं है कि ऐसा निर्णय निश्चित रूप से डीयू, भारत के प्रमुख विश्वविद्यालयों में से एक, की प्रकृति और संघीय चरित्र को बदल देगा।

श्रेणीकृत स्वायत्तता के समर्थकों का प्रायः यह तर्क है कि यह योजना देश के कुछ सबसे उत्कृष्ट कॉलेजों को न केवल निकायों (जैसे यूजीसी) की बेड़ियों से मुक्त करेगी बल्कि उनको निर्णय लेने में अधिक आसानी प्रदान करके उनकी कार्य-पद्धति को बेहतर करेगी और आगे बढ़ाएगी।

वे तर्क देते हैं कि बदले में यह इन कॉलेजों को समाज और बाज़ार की बड़ी जरूरतों के अनुरूप नवप्रवर्तनशील और सार्थक पाठ्यक्रम तैयार करने में सक्षम बनाएगी। यह उन्हें शिक्षकों की भर्ती करने और दुनिया भर से प्रतिष्ठित संस्थानों और विश्वविद्यालयों के साथ सार्थक अनुसन्धान सहयोगों में प्रवेश करने की स्वतंत्रता भी प्रदान करेगी।

अस्पष्ट, गुप्त डिज़ाइन

यह सच है कि उच्च शिक्षा के विश्वविद्यालयों और संस्थानों के पास राजनीतिक प्राधिकारियों से पर्याप्त स्वायत्तता और प्रतिरक्षा होनी चाहिए। Magna Charta Universitatum में स्थापित सिद्धांतों में से एक सिद्धांत यहां उद्धरण देने के लायक है। यह कहता है कि “इसके आसपास की दुनिया की जरूरतों को पूरा करने के लिए, इसके [विश्वविद्यालय] अनुसंधान और शिक्षण सभी राजनीतिक प्राधिकरणों और आर्थिक शक्तियों से नैतिक रूप से और बौद्धिक रूप से स्वतंत्र होना चाहिए”।

दुर्भाग्य से, प्रस्तावित श्रेणीकृत स्वायत्तता योजना ऐसी नहीं है। इसके विपरीत यूजीसी द्वारा विस्तृत प्रावधानों पर सिर्फ एक सरसरी नज़र सांविधिक निकाय की अनिवार्य सार्वजनिक जिम्मेदारी के निगमीकरण एवं पदत्याग के अस्पष्ट और गुप्त डिज़ाइनों का खुलासा करती है।

योजना के प्रावधानों के अनुसार नए पाठ्यक्रमों की शुरुआत और रखरखाव के लिए वित्त जुटाने की जिम्मेदारी स्वायत्त कॉलेजों की होगी। सरल शब्दों में यह शुल्क स्तर में वृद्धि की ओर एक इशारा है, लेकिन हकीकत में यह एक दोहरी शुल्क संरचना बनाने के उद्देश्य से एक भयावह कदम साबित हो सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मौजूदा पाठ्यक्रमों के लिए वित्त पोषण यूजीसी द्वारा पूरा किया जाना जारी रहेगा।

इसके अतिरिक्त, निजी प्रबंधन पर पूर्ण रूप से वित्त जुटाने का दायित्व निरंतर एक लालच पैदा कर सकता है जिसके परिणामस्वरुप अकादमिक मानक नीचे आ सकते हैं।

कर्मचारी परिषदों को बर्खास्त करने के उद्देश्य से एक और महत्वपूर्ण प्रावधान के कारण आशंकाएं बढ़ी हैं। वर्तमान प्रणाली, जहां कर्मचारी परिषद, शिक्षक सदस्यों को शामिल करते हुए अकादमिक और प्रशासनिक कार्यों को करने में जिम्मेदारियों को साझा करते हैं, के विपरीत यह प्रस्ताव एक पदानुक्रमित और केंद्रीकृत शैक्षणिक परिषद, जिसमें प्रबंधन के सदस्य कॉलेज के प्रबंधन/प्रधानाध्यापक द्वारा नियुक्त कर्मचारियों में से पांच वरिष्ठ सदस्य शामिल होंगे, के विचार को बहस के लिए प्रेरित करता है।

कर्मचारी परिषद के अंत का अर्थ कॉलेज की कार्य पद्धति में अन्तर्निहित सहशासन के विचार को ही ख़त्म करना है।
कहने की जरूरत नहीं है, विश्वविद्यालय से कॉलेज की स्वायत्तता शिक्षकों और प्रबंधन (छोटे व्यवसायी पढ़ें) के बीच मौजूदा प्रतिरोधक को हटा देगी और उन्हें प्रबंधन की दया पर छोड़ देगी। यह दूर-दूर तक फैले हुए रियल स्टेट, जिस पर यह प्रमुख कॉलेज स्थित हैं, पर प्रबंधन के अवैध शिकंजे को मजबूत करने का एक गुप्त तरीका भी है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऊपर से नीचे तक, सबके लिए एक ही पैमाने की प्रकृति वाले ये सुधार न तो उन समस्याओं की विशिष्टताओं को देखते हैं जिनका शायद हर एक कॉलेज सामना कर रहा है और न ही यह अंतरानुभागीयताओं पर आधारित है जो विश्वविद्यालयों का वर्णन करती हैं, जिससे वे सम्बद्ध है।

उदाहरण के लिए, यदि हिंदू या सेंट स्टीफेंस जैसे कॉलेजों ने वास्तव में इन सभी वर्षों में अच्छा प्रदर्शन किया है, तो डीयू का योगदान, जिससे वे संबद्ध रहे हैं, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता था और उन्हें अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। दुर्भाग्यवश, कुछ अच्छी प्रथाओं, जिन्होंने इन कॉलेजों को प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि हासिल करने में सक्षम बनाया हो, को देखने की बजाय यह योजना कॉलेजों को उनके नाभिरज्जु, जो उन्हें दूरदर्शी तरीके से कार्य करने के लिए आवश्यक उछाल और अनुनाद प्रदान करती रही है, से अलग करने की तैयारी में है।

सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित उच्च शिक्षा का मामला

इस योजना के कुछ दोषों को रेखांकित करते हुए, उच्च शिक्षा की सार्वजनिक वित्त पोषित प्रणाली के बचाव में अब मुझे, छह बुनियादी कारण बताने हैं, विशेष रूप से भारतीय संदर्भ में।

सबसे पहले, उच्च शिक्षा की किसी भी योजना को सार्वजनिक हितों को पूरा करना होगा और इसलिए, इन्हें राज्य वित्त पोषण प्रदान किया जाना चाहिए। दूसरा, नागरिक गुण, जो नागरिकता के अधिकारों के रखरखाव और खुले लोकतांत्रिक विचार-विमर्श के लिए आवश्यक है, एक गैर-पक्षपातपूर्ण और अनुकूल शिक्षण और सीखने के माहौल के निर्माण की आवश्यकता है, जिसे सार्वजनिक वित्त पोषण के माध्यम से सर्वोत्तम रूप से बनाए रखा जा सकता है।

तीसरा, उच्च शिक्षा के संस्थानों के सार्वजनिक वित्त पोषण को सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को हटाना जरूरी है और वास्तव में बड़ी संख्या में प्रगतिशील समतावादी सामाजिक प्रणाली की आवश्यकता है। चौथा, नैतिक परिप्रेक्ष्य से, सार्वजनिक वित्त पोषण सार्वजनिक संस्थानों के बीच संसाधनों का समतावादी वितरण सुनिश्चित करता है, जो शिक्षण और सीखने के समान स्तर प्रदान करता है। यह भारतीय संदर्भ में महत्वपूर्ण है, जहां राज्य की विश्वविद्यालयों द्वारा उस जिम्मेदारी का एक बाड़ा उठाया जाता है, इन सभी का एक सामान्य मुद्दा है जो की संसाधन संकट है।

पांचवा, एक निजी रूप से वित्त पोषित विश्वविद्यालय, कार्यों का सर्वोत्तम पालन करने के बाद भी अंततः शिक्षा को एक उपभोक्ता की वस्तु के रूप में और छात्र को एक उपभोक्ता के रूप में देखता है – यह चीज़ नैतिक रूप से अनिश्चित और अस्वीकार्य है। छठा, सार्वजनिक वित्त पोषण विषयों की एक विविध संख्या के बीच की समानता के उचित स्तर को सुनिश्चित करता है, अकादमिक और गैर-शिक्षण कर्मचारी जो सामूहिक रूप से जिम्मेदार हैं उनके उद्देश्य को लेकर और समुदाय के आकर्षण को भी लेकर।

चंद्रचूर सिंह (बर्मिंघम, यूके से पीएचडी) हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान पढ़ाते है। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।

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