शुक्रवार को समाप्त हुए संसद के मानसून सत्र से कांग्रेस के लिए कईं सकारात्मक बातें थीं. लोकसभा चुनावों के बाद, भारतीय जनता पार्टी राहुल गांधी को पहले से कहीं अधिक गंभीरता से ले रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके भाषण के दौरान दो बार हस्तक्षेप किया, जिससे राहुल गांधी का आत्मविश्वास बढ़ा होगा. हर बार जब उनके शब्द ट्रेज़री बेंच पर बैठे सत्ता पक्ष के नेताओं को चुभे, तो उनका आत्मविश्वास या हौसला कई पायदान ऊपर उठ गया होगा.
कांग्रेस एक रणनीति पर काम करती दिख रही थी, क्योंकि उसने लोकसभा में अपने दलित चेहरों- कुमारी शैलजा, चरणजीत सिंह चन्नी और प्रणीति शिंदे को मैदान में उतारा था. उन्होंने काफी अच्छा प्रभाव डाला. 43-वर्षीय शिंदे ने यह दिखा दिया कि आखिर क्यों कई लोग उन्हें महाराष्ट्र में कांग्रेस का उभरता सितारा मानते हैं. कम से कम संसद में इंडिया ब्लॉक एकजुट दिखा.
दूसरी ओर, सत्ता पक्ष की बेंच कमज़ोर और सुस्त दिखी. भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर और निशिकांत दुबे हमेशा की तरह अपने भड़काऊ भाषणों से विपक्ष को निशाना बनाते रहे. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण अपने आक्रामक अंदाज़ में दिखीं. बाकी ज्यादातर लोग औपचारिकताएं पूरी करते रहे. लोकसभा चुनाव का नतीजा जैसे सत्ता पक्ष के दिमार पर हावी था.
कृषि मंत्री का प्रदर्शन
कुल मिलाकर, मेरे लिए दो बड़ी बातें रहीं. पहली, केंद्रीय कृषि मंत्री के तौर पर अपनी नई भूमिका में शिवराज सिंह चौहान ने काफी प्रभावित किया. मनोहर लाल खट्टर, जीतन राम मांझी, एचडी कुमारस्वामी और सर्बानंद सोनोवाल जैसे पूर्व मुख्यमंत्रियों से भरे मंत्रिमंडल में मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम चौहान एक अलग ही रंग में नज़र आए.
लोकसभा में उनके भाषणों और हस्तक्षेपों ने विपक्षी बेंचों को भी चौंका दिया. कृषि मंत्री के बारे में सोचिए जो 1947 से लेकर अब तक लाल किले से दिए गए सभी प्रधानमंत्रियों के भाषणों को पढ़ते हैं और कांग्रेस को बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू ने अपने 15 भाषणों में ‘किसान’ का ज़िक्र तक नहीं किया. पहली बार मोदी सरकार में केंद्रीय कृषि मंत्री नियमित रूप से सुर्खियों में रहे. चौहान को देख और सुन कर ऐसा लग रहा था जैसे कि उनके मन में सीएम के रूप में पांचवां कार्यकाल नहीं मिलने का कोई मलाल नहीं था क्योंकि उन्हें जैसे विश्वास था कि वह कुछ और भी बड़ी चीज़ों के लिए बने हैं.
दूसरी बड़ी बात, जो वास्तव में इस कॉलम का केंद्र बिंदु है, वो यह है कि जब भी भाजपा सांसदों की इंडिया ब्लॉक के साथ तीखी नोक-झोंक हुई, तो एनडीए घटक सिर्फ कौतूहल के साथ देखते रहे, जबकि इंडिया ब्लॉक ने हर बात को एक स्वर में कहा, NDA बंटी हुई नज़र आई. भाजपा को सहयोगियों का संदेश था: “आप अपने काम से मतलब रखिए, हम देख लेंगे हमें क्या करना है.” मानसून सत्र के अंत तक — मोदी 3.0 के सिर्फ दो महीने में — एनडीए में फेविकोल बॉन्ड — जैसा कि महाराष्ट्र के सीएम एकनाथ शिंदे ने कहा था — का स्थायित्व भविष्य की मौसम की परस्थितियों पर निर्भर करेगा.
वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024 पर, तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने विपक्ष की इस मांग का वस्तुत: समर्थन किया कि इसे जांच और व्यापक परामर्श के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेजा जाए.
लोकसभा में इस विधेयक का स्पष्ट रूप से समर्थन करने वाले जनता दल (यूनाइटेड) के नेता और केंद्रीय मंत्री राजीव रंजन सिंह ने बाद में महसूस किया कि पार्टी नेतृत्व का रुख इस पर थोड़ा अलग था. शुक्रवार को सीएम नीतीश कुमार के विश्वासपात्र बिहार के मंत्री विजय चौधरी ने विधेयक को जेपीसी को भेजने के फैसले का समर्थन करते हुए कहा कि “इस विधेयक को अंतिम रूप दिए जाने से पहले अल्पसंख्यक समुदाय की आशंकाओं को दूर किया जाना चाहिए.”
संक्षेप में संयुक्त रूप से 28 सांसदों वाली और सरकार के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण टीडीपी और जेडी(यू) ने इस विधेयक पर विपक्ष का पक्ष लेते हुए नज़र आए. ऐसा नहीं है कि भाजपा को इससे कोई खास फर्क पड़ेगा. यह पार्टी के अनुकूल है कि अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनावों के अगले दौर से पहले वक्फ संपत्ति पर बहस जारी रहे. हालांकि, सत्तारूढ़ पार्टी को इस बात से परेशानी ज़रूर परेशानी होनी चाहिए कि उसके तीसरे कार्यकाल में इतने शुरुआती दौर से ही असहमति के स्वर सामने आने लगे हैं.
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बेचैन सहयोगी
संसद के बाहर भी एनडीए के सहयोगी मुखर हो रहे हैं. एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिवसेना ने महाराष्ट्र की 113-सदस्यीय विधानसभा सीटों के लिए 46 प्रभारी और 93 पर्यवेक्षक नियुक्त किए हैं, जो एक तरह से इन सीटों पर अपना दावा पेश करना है. अजित पवार की अगुवाई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 288 सदस्यीय राज्य विधानसभा में 80 से 90 सीटों की मांग की है.
अगर भाजपा सहयोगी दलों की मांगों को मान लेती है, तो वह 2019 में जीती गई 105 सीटों पर भी चुनाव नहीं लड़ पाएगी.
सहयोगियों की इन मांगों से निपटना भाजपा के लिए मुश्किल होगा, लेकिन उसके बाद बड़ी समस्या खड़ी होने की संभावना है. अलग-अलग पार्टियों के दो डिप्टी सीएम तीसरी पार्टी के सीएम की जगह लेने की ख्वाहिश रखते हैं, ऐसे में हर एक की यह कोशिश होगी कि बाकी दोनों प्रतिद्वंद्वियों की सीटों की संख्या को अगले विधानसभा में कम करें.
कर्नाटक में एनडीए पहले से ही तनाव में दिख रही है. जनता दल (सेक्युलर) ने भाजपा की मैसूर-बेंगलुरु पद यात्रा से बाहर रहने की घोषणा की, लेकिन बाद में कई भाजपा नेताओं द्वारा कुमारस्वामी से मुलाकात के बाद यह मामला नरम पड़ा.
जेडी(एस) की पहली घोषणा का कारण पूर्व भाजपा विधायक प्रीतम गौड़ा की कुमारस्वामी के भतीजे प्रज्वल रेवन्ना के तथाकथित सेक्स वीडियो वाले पेन ड्राइव के वितरण में कथित संलिप्तता थी. हालांकि, असली कारण यह था कि जेडी(एस) अपने गढ़ में बीजेपी के विस्तार और उसकी पैठ को मज़बूत होने से रोकना चाहती है.
साथ चुनाव लड़ने वाले भाजपा के 24 सहयोगियों में से टीडीपी, जेडी(यू), शिवसेना, एनसीपी और जेडी(एस) के अलावा चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) की हिस्सेदारी ज्यादा है. यह उनके क्षेत्रों में उनके प्रभाव के संदर्भ में है, न कि केवल उनकी मौजूदा लोकसभा ताकत के संदर्भ में. मोदी 3.0 की शुरुआत में ही भाजपा उनके साथ असहज संबंध नहीं रख सकती. इसके अलावा, एक या दो सांसदों वाले एनडीए के अन्य अधिकांश सहयोगियों का गठबंधन बदलने का इतिहास रहा है. पूर्वोत्तर में क्षेत्रीय दलों के साथ अच्छे संबंध रखने वाले एक सूत्र ने मुझे बताया कि ईसाई वोट बैंक पर निर्भर कई दल पहले से ही बेचैन हो रहे हैं.
बीजेपी का बड़ा भाई वाला रवैया
मोदी-शाह ज़ाहिर तौर पर बीजेपी और उसके सहयोगियों के बीच फेविकोल के बंधन की मजबूती को लेकर चिंतित नहीं हैं. आंध्र प्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडू को अपने राज्य, खासकर राजधानी अमरावती के पुनर्निर्माण और जगन मोहन रेड्डी के किसी भी प्रतिरोध को कम करने के लिए केंद्र की ज़रूरत है. राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव द्वारा फिर से नीतीश कुमार को सीएम की कुर्सी का प्रस्ताव देने की संभावना नहीं है. इसलिए, नायडू और कुमार को मोदी के साथ रहने से बहुत कुछ मिल सकता है. पिछला बजट इसका प्रमाण था. फिलहाल, लगता है कि संतुलन बना हुआ है. या ऐसा मोदी-शाह सोच सकते हैं.
वे यह भी सोच सकते हैं कि 237 सांसदों वाला इंडिया ब्लॉक अभी भी बीजेपी के 240 से तीन सांसद कम है और विपक्षी खेमे में प्रधानमंत्री पद के बहुत से दावेदार हैं. ऐसे स्वाभाविक रूप से अस्थिर गठबंधन में कौन शामिल होना चाहेगा? उनकी धारणा कुछ हद तक सही हो सकती है. शायद यही वजह है कि भाजपा अपने वैचारिक और राजनीतिक एजेंडे के साथ-साथ शासन संबंधी प्राथमिकताओं को आगे बढ़ाने में लगी हुई है, लेकिन सहयोगियों की परवाह नहीं कर रही है. भाजपा के बड़े भाई वाले रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है. उसने एनडीए के सहयोगियों के साथ समन्वय के लिए कोई औपचारिक तंत्र भी स्थापित नहीं किया है.
अगर मानसून सत्र में जो हुआ उसे एक संकेत के तौर पर देखा जाए तो भाजपा नेतृत्व को फिर से सोचना चाहिए. जब तक उनकी कुर्सी सुरक्षित है, तब तक संभावना है कि नीतीश कुमार अपनी पार्टी के भविष्य के बारे में चिंता न करें, लेकिन नायडू का नजरिया अलग होगा. उनके बेटे नारा लोकेश ने यह दिखा दिया है कि उनमें अपने पिता की जगह लेने का कौशल और काबिलियत है. नायडू उन्हें एक मजबूत टीडीपी सौंपना चाहेंगे, एक ऐसी पार्टी जिसे सहयोगियों की बैसाखी पर निर्भर नहीं रहना पड़े. अपनी पराजय के बाद भी, वाईएसआर कांग्रेस पार्टी ने 39 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए. इसलिए नायडू अल्पसंख्यकों की भावनाओं की अनदेखी नहीं कर सकते.
बाकी घटक दलों को भी अपने वोट बैंक की रक्षा करनी है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा. जब तक महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव मोदी को करिश्माई वोट-पाने वाले के रूप में फिर से स्थापित नहीं कर देते, जैसा कि वे हाल तक में थे, तब तक भाजपा को यह रवैया बंद कर देना चाहिए कि 2024 KA चुनाव परिणाम कभी आया ही नहीं.
(डीके सिंह दिप्रिंट में राजनीतिक संपादक हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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