कामयाब लोगों को उनकी कामयाबी के लिए आप दोषी नहीं ठहरा सकते. लेकिन भारत में जन्मा कोई ‘टेकी’ विदेश की किसी विशाल कंपनी का कर्ताधर्ता बनता है तो क्या हर बार बिना यह जाने इसका जश्न मनाने से बाज नहीं आना चाहिए कि वह किस तरह की कंपनी का कर्ताधर्ता बना है, उस कंपनी के प्रोडक्ट कैसे हैं या वह किस तरह का व्यावसायिक क्रियाकलाप करती है? या राष्ट्रीय गौरव के आगे ऐसे सारे सवालों को गौण बना देना चाहिए?
लेकिन पहले तो जो श्रेय के हकदार हैं उन्हें हम बाकायदा श्रेय दें. उन लोगों की उपलब्धियों को स्वीकार करना ही चाहिए, जो भारत से उड़ान भरकर एक अलग संस्कृति वाले नये देश पहुंच जाते हैं, उच्च स्तरीय विश्वविद्यालय में मूल्यवान डिग्रियां हासिल करते हैं, और 40 की उम्र के इर्दगिर्द ही या ट्विटर के पराग अग्रवाल की तरह उससे पहले भी कॉर्पोरेट सीढ़ियों के शिखर तक पहुंच जाते हैं. चाहे यह ‘जीन’ का मामला हो या भारतीय स्कूली और तकनीकी शिक्षा का, या अंग्रेजी के ज्ञान का या कड़ी मेहनत करने की संस्कृति का, ये वो लोग हैं जिनमें वह सब कुछ था जिसने उन्हें उनके रास्ते में खड़ी रंग-नस्ल या संस्कृति संबंधी बाधाओं को तोड़ कर आगे निकल जाने में समर्थ बनाया. यह भी जरूर है कि अमेरिकी समाज योग्यता को काफी तरजीह देने वाला समाज है, और सिलिकन वैली तो और भी. फिर भी पेप्सीको की इंदिरा नूई जैसी महिलाओं के लिए तो यह खास तौर से कठिन था, जिन्हें घर भी संभालना पड़ता है. इसलिए, असली उपलब्धि यह है कि प्रवासियों की पहली पीढ़ी ने वास्तव में इस तरह जो समृद्धि हासिल की वह अब कोई अचरज की बात नहीं रह गई है, हालांकि मीडिया अभी भी हर बार जोश में आ जाता है.
नज़रिया भी मदद करता है. विदेश में किसी भारतीय की कामयाबी अगर मातृभूमि के लिए गर्व की बात है, तो तीन अफ्रीकी आज अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के प्रमुख हैं— विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व व्यापार संगठन, और अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम के. किसी भारतीय ने ऐसा नहीं किया है. अमेरिकी विश्वविद्यालयों में ‘स्टेम’ पाठ्यक्रम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरीग, और गणित) में चीनी छात्रों की बड़ी संख्या के मद्देनजर कॉर्पोरेट अमेरिका में चीनियों की मौजूदगी ज्यादा हो सकती थी. लेकिन उनमें से अधिकतर तो अपने देश लौट गए. उनमें से कुछ ने अमेरिका की फेसबुक, एमेजन जैसी कंपनियों के बराबर की कंपनी बना ली, वह भी चीन की महान दीवार के अंदर. लेकिन कोई भारतीय अभी तक ऐसा कुछ नहीं कर पाया है.
इसलिए भी इन योग्य एनआरआइ चैंपियनों से ऐसे सवाल पूछे जा सकते हैं कि उनकी कंपनी कभी खत्म न होने वाले विवादों में क्यों घिरी रहती है, उन पर एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों, टैक्स चोरी, दूसरों का बेजा फायदा उठाने, पैंतरेबाज़ नेताओं की चापलूसी आदि से जुड़े सवाल क्यों उठाए जाते हैं. इतने कि इन कंपनियों को खुले समाज के लिए खतरा माना जाता है. उन कंपनियों के बारे में भी सवाल उठाए जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकर खाद्य सामग्री बेचती हैं, और जिन्होंने 2008 के वित्तीय संकट में योगदान दिया.
सॉफ्टवेयर की ताकत के कई रूप
इस बड़े फ्रेमवर्क में क्या इस बात से वास्तव में फर्क पड़ता है कि ऐसी कुछ कंपनियां दूसरे देशों के नहीं बल्कि भारत के लोग चला रहे हैं? नूई को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने पेप्सी के प्रोडक्ट्स के रेंज को बदल डाला. इसकी वजह शायद यह थी कि वे दूसरों से ज्यादा स्मार्ट थीं और उन्होंने यह समझ लिया था कि हानिकर खाद्य सामग्री और जन स्वास्थ्य के बीच संबंध को उछाला जाएगा.
यहां विषयांतर करते हुए एक दिलचस्प कहानी कही जा सकती है (जो हाल में ‘फॉरेन पॉलिसी’ में छपी है). पेप्सी के प्रसिद्ध सीईओ डॉन केंडल ने 1980 के दशक में 17 सोवियत पनडुब्बियां और कुछ नौसैनिक जहाज खरीदे ताकि सोवियत संघ के उपभोक्ता बाज़ार में आसानी से पहुंच बना सकें. ये सब युद्ध लड़ने के लिए नहीं (हालांकि केंडल ने 1973 में सीआइए द्वारा चिली में आयोजित तख़्तापलट को उकसाया था) बल्कि जंकयार्ड में भेजे जाने के लिए खरीदे गए थे. लेकिन मज़ाक यह चल पड़ा था कि पेप्सी के पास दुनिया की छठी सबसे बड़ी नौसेना है. इसे व्यावसायिक चतुराई की बात कहेंगे.
मूल विषय पर आएं. अगर हम एनआरआइ की पहली पीढ़ी की कामयाबी का जश्न मनाना चाहते हैं तो समय आ गया है कि कुछ सवाल उठाकर उसमें संतुलन लाएं. और जबकि हम यह करना चाहते हैं तो सार्वजनिक नीति या शिक्षा जैसे गैर-विवादास्पद क्षेत्र में श्रेष्ठ उपलब्धि हासिल करने वालों पर भी ध्यान दें. केवल नोबल पुरस्कार विजेताओं पर ही नहीं बल्कि प्रवासियों की प्रथम पीढ़ी की नीली बेंदापुडी जैसी हस्तियों पर भी ध्यान दें जिन्हें हाल में एक प्रमुख अमेरिकी विश्वविद्यालय का प्रेसिडेंट नियुक्त किया गया है; या गीता गोपीनाथ पर जिन्हें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश में नंबर 2 बनाया गया है, या ऋषि सुनक पर जिन्हें ब्रिटेन का भावी प्रधानमंत्री बताया जा रहा है. भारतीय मूल के ऐसे व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है, जो भारतीय प्रतिनिधियों के सामने बैठकर दूसरे देश के प्रतिनिधि के तौर पर वार्ता करते हैं या अकेले ही पूरी भारतीय क्रिकेट टीम को आउट कर देते हैं. सॉफ्टवेयर की ताकत कई रूपों में सामने आती है, और कॉर्पोरेट एनआरआइ वाला इसका रूप ज्यादा सवालिया रूपों में शुमार माना जा सकता है.
(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)
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