भारत के सैन्य इतिहास में, लड़ाई के दौरान किसी फील्ड कमांडर को शायद ही कभी हटाया गया हो. अगर ऐसा होता भी है, तो ये शीर्ष सैन्य नेतृत्व के विवेक का फैसला होता है, न कि किसी राजनेता का. उस मानक को अब एक अलग तरह के युद्ध में हिलाया गया है- दिल्ली के आर्मी बेस अस्पताल के कमांडेंट, मेजर जनरल वासु वर्धन को अचानक हटाकर, जो कोविड के खिलाफ सेना की लड़ाई में, एक अहम फील्ड कमांडर थे.
ऐसे निर्णय लेने का अधिकार रक्षा मंत्री के पास होता है. इस अधिकारिक औचित्य से, कि ये एक नियमित तबादला है, और मानव संसाधन प्रबंधन के एक वृहत अभ्यास का हिस्सा मात्र है, किसी को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता, और ये बुनियादी समझ का अपमान है. मेजर जनरल वर्धन की चिकित्सा वंशावली बेदाग़ है. वो सेना में शीर्ष पल्मोनॉलजिस्ट हैं, मेडिसिन की वो विधा, जो महामारी के खिलाफ लड़ाई में, सबसे अगले मोर्चे पर है. उनकी पेशेवर कुशलता पर कोई सवाल नहीं थे, और उनके रिटायर होने में सिर्फ तीन महीने बाक़ी थे. उनकी प्रशासनिक सलाहियतों पर सवाल उठाकर, सोशल मीडिया पर मेजर जनरल वर्धन की छवि को, कलंकति करने के प्रयास किए जा रहे हैं.
ठीक हो गए कई कोविड मरीज़ों के साथ मेरी बातचीत के बाद, ये स्पष्ट है कि बेस अस्पताल ने इस चुनौतीपूर्ण स्थिति को, सराहनीय ढंग से संभाला है. भारी दबाव में काम कर रहे स्टाफ के प्रदर्शन को भी, व्यापक रूप से सराहा गया है.
निश्चित रूप से दाल में कुछ काला नज़र आता है.
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सैन्य नैतिकता का क्या?
सब जानते हैं कि कमांडेंट बिस्तरों, चिकित्सा सहायता सुविधाओं, और स्टाफ की गंभीर कमी से जूझ रहे थे. ये संभव है कि कमांडेंट का तबादला इसलिए हुआ हो, कि उन्होंने गैर-हक़दार व्यक्तियों को जगह देने का विरोध किया हो, या कम आपूर्ति वाली आवश्यक दवाएं, ऐसे लोगों को देने का विरोध किया हो, जो उनके हक़दार न रहे हों, जिन्हें शायद रक्षा मंत्रालय ने भेजा हो, और जिसमें सशस्त्र बल चिकित्सा सेवा महानिदेशालय (डीजीएएफएमएस) ने वाहक की भूमिका निभाई हो. हो सकता है कि ऐसी अनुचित मांग, सेना की ओर से रही हो.
वास्तविकता कुछ भी रही हो, जब मेजर जनरल वर्धन से ऐसे काम अंजाम देने के लिए कहा गया, जो अनाधिकृत थे और नैतिक तथा पेशेवर मानदंडों का उल्लंघन करते थे, तो वो अपने नैतिक रुख़ पर क़ायम रहे.
हो सकता है कि कमांडेंट का सेना के उच्च अधिकारियों, या राजनीतिक नेतृत्व, या दोनों से टकराव हो गया हो. अगर ये टकराव केवल सेना से होता, तो रक्षा मंत्रालय ने यक़ीनन उनके हटाने पर सवाल खड़े किए होते, और फाइल को इतनी तेज़ी के साथ, आगे बढ़ाकर स्वीकृत न किया जाता. मेजर जनरल ये उससे ऊपर की तैनातियों के लिए, रक्षा मंत्री के दस्तख़त चाहिए होते हैं. अगर सैन्य नेतृत्व ने इस क़दम का विरोध किया होगा, तो उसे ख़ारिज कर दिया गया होगा. लेकिन सेना के शीर्ष नेतृत्व को तभी दोषमुक्त किया जा सकता है, जब उन्होंने अपनी आपत्तियां लिखित में रखी हों, और एक ऐसे मातहत का हाथ थामने की कोशिश की हो, जिसने एक नैतिक रुख़ इख़्तियार किया. अगर सेना ने लिखित में आपत्ति नहीं जताई है, या रक्षा मंत्रालय ने लिखित आपत्तियों के बावजूद फैसला लिया है, तो फिर मामले से आभास होता है, कि सेना का कुछ हद तक राजनीतिकरण हो गया है, और सैन्य नैतिकता तथा सिविल सोसाइटी के विलय का भी पर्दाफाश होता है.
काफी हद तक ये माना जा सकता है, कि 18 महीने तक आर्मी बेस अस्पताल का कमांडेंट रहने के बाद, जब रिटायर होने में केवल तीन महीने बचे हों, तो ये एक सज़ा वाली तैनाती है. ये एक ऐसा जाना पहचाना यंत्र है, जिसे लोगों को उनकी औक़ात दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, और जिसका इस्तेमाल राजनेता लोग, सिविल सर्विसेज़ को क़ाबू में रखने के लिए, नियमित रूप से करते हैं. ऐसे तौर-तरीक़ों का नीचे सशस्त्र बलों तक रिसकर आना, उनकी संस्थागत संस्कृति के लिए बेहद हानिकारक साबित होगा, जो एक बिल्कुल अलग स्तर पर काम करती है.
अगर उपरोक्त व्याख्या वास्तव में सही है, तो रक्षा मंत्रालय के कार्य नैतिक रूप से प्रश्नयोग्य हैं, और ये उन विकृतियों को सामने लाते हैं, जिनसे भारत के सिविल-सैन्य रिश्ते ग्रसित हैं.
एक नैतिक विफलता
जैसा कि पिछले सप्ताह मेरे कॉलम में समझाया गया था, भारत की सेना के राजनीतिकरण में उतना ज़्यादा ख़तरा तख़्ता पलट का नहीं है, जितना इस बात का है, कि सेना और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच का संवैधानिक अंतर कम हो जाएगा, और उसका दुरुपयोग होगा. डीजीएएफएमएस के अंतर्गत सशस्त्र बलों के चिकित्सा अंग को, रक्षा विभाग में सीधे रक्षा सचिव के आधीन रखा गया है, और इसे एकीकृत डिफेंस स्टाफ के नीचे लाने की तमाम कोशिशें, कामयाबी के साथ नाकाम कर दी गई हैं. ये एक खुला हुआ रहस्य है, कि संरचनात्मक निकटता की वजह से, समय के साथ साथ उच्च सैन्य-चिकित्सा बिरादरी ने, रक्षा मंत्रालय के सिविलियन सत्ता केंद्रों के साथ, पारस्परिक और मधुर संबंध बना लिए हैं. ऐसा माना जाता है कि सिविलियंस को, दिल्ली के प्रीमियर रिसर्च एंड रेफरल (आर&आर) अस्पताल में, चिकित्सा सेवा मुहैया कराई जाती है, जो ज़्यादातर अनाधिकृत होती है. इसके एवज़ में, तैनातियों, पदोन्नतियों, और समयपूर्व सेवानिवृत्ति की मंज़ूरी का ख़याल रखा जाता है.
चिकित्सा सेवाओं का संरचनात्मक रिश्ता, सिविल-सैन्य पारस्परिक व्यवहार में, निकटता और नियंत्रण की विकृतियों को बेनक़ाब करता है. हाल ही में बना सैन्य मामलों का विभाग (डीएमए), और राष्ट्रीय तकनीकी अनुसंधान संगठन (एनटीआरओ) जैसे एकीकृत सिविल संगठनों में वर्दीधारी कर्मियों का आगमन, वैसे ही संक्रमित हो सकता है, अगर चिकित्सा सेवाओं के अनुभव से ली गई सीख को नज़रअंदाज़ किया गया. चूंकि आख़िरकार वर्दी की नैतिकता, उन नागरिक नैतिक मूल्यों के संपर्क में आकर कमज़ोर नहीं पड़नी चाहिए, जो उससे कहीं कम कड़े होते हैं.
रक्षा मंत्रालय ने एक कार्रवाई की है, और अब वो झूठे दिख रहे तथ्यों के पीछे छिप रहा है. चूंकि अधिकारिक कारण ये है कि ये एक नियमित क़दम है, इसलिए फाइल में क्या है इसका पता आरटीआई से चल सकता है. अगर सेना ने आपत्ति नहीं जताई, और रक्षा मंत्रालय ने भी इस क़दम पर सवाल नहीं उठाए हैं, तो ये झूठ बेनक़ाब हो जाएगा. ये तब भी बेनक़ाब हो जाएगा, अगर सेना ने आपत्ति की है, और रक्षा मंत्रालय ने उसे रद्द किया है. एक बार रक्षा मंत्री ने किसी तैनाती को अधिकृत कर दिया, तो सशस्त्र बलों के पास उसे कार्यान्वित करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. अफसोस ये है कि ऐसा लगता है, कि सैन्य नेतृत्व ने इस कवर-अप का हिस्सा बनना पसंद किया है, और ये उसके विस्तृत अधिकारिक बयान में भी नज़र आता है. मेजर जनरल वासु वर्धन के तबादले पर, रक्षा मंत्रालय और सेना की प्रतिक्रिया, सभी के लिए एक संकेत है कि अगर वो नहीं झुकते, तो उन्हें क्या क़ीमत चुकानी पड़ सकती है, भले ही उनका रुख़ वर्दी के सबसे ऊंचे और क़ीमती मूल्य- नैतिक ईमानदारी की मर्यादा को बनाए रखता हो. राजनीतिक-सैन्य प्रतिक्रिया एक नैतिक विफलता है, जिसकी गूंज आगे भी सुनाई देती रहेगी.
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अनुपालन और अनुसरण के बीच
भारत के सशस्त्र बलों की अंतिम ताक़त है, उसकी बलिदान की भावना, और राष्ट्र को हमेशा स्वयं से पहले रखना. जहां अपनी जान जोखिम में डालना, मोर्चे पर तैनात सैनिकों का फर्ज़ है, वहीं सैन्य नेतृत्व से ऐसी मिसाली भूमिका की अपेक्षा जाती है, जो सैन्य संस्थाओं को बेंचने लायक़ नैतिकता से सुरक्षित रखे, जिसे हमारे समाज में अकसर सामान्य रूप से देखा जा सकता है. अंत में बात उनकी इच्छा पर आ जाती है, कि क्या वो पदोन्नति और तैनाती जैसे, निजी फायदों का त्याग करने को तैयार हैं, जो सिविलियंस के नियंत्रण में हैं.
मुख्य समस्या ये है कि राजनीतिक-नैकरशाही ताकतों की, नियमों को बदलने की क्षमता बढ़ती जा रही है, और साथ ही साथ सैन्य नेतृत्व, अपने नैतिक रुख़ पर डटा नहीं रह पा रहा है. हालांकि मेजर जनरल वर्धन के मामले को, अपनी तरह का अकेला केस कहकर ख़ारिज किया जा सकता है, भले ही अधिकारिक स्पष्टीकरण में, इसे एक नियमित एचआर क़दम क़रार दिया गया हो, लेकिन इससे मिलने वाले चेतावनी संकेत अशुभ हैं. समय के साथ साथ शीर्ष हाईरार्की की ओर से ऐसे संकेत, सैना के नैतिक मूल्यों को कमज़ोर ही करेंगे, जिससे आगे चलकर नैतिकता का घटता हुआ वज़न, निजी व्यवहार में भी झलकने लगेगा. जिस चीज़ को समझने की ज़रूरत है, वो ये कि अथॉरिटी का अनुपालन, और संदिग्ध नैतिकता का अनुसरण, दो बिल्कुल अलग चीज़ें हैं.
संभावित रूप से ज़हरीला मिश्रण ये है, कि राजनीतिक नेतृत्व के अनुचित कार्यों को, उच्च सैन्य नेतृत्व की नैतिक निर्बलता का समर्थन मिल जाए. इस मिश्रण से निपटने के लिए, सैन्य पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति को रक्षा मंत्री नियुक्त किया जा सकता है, जो अपनी नैतिक साख और पेशेवर योग्यता के लिए जाना जाता हो. मौजूदा परिस्थितियों में, सिविल-सैन्य मॉड्यूल को राजनीतिक समर्थन की ज़रूरत होती है, ताकि त्वरित और कारगर नतीजे दिए जा सकें. इत्तेफाक़ से, सिविल सोसाइटी के डाइनामिक्स के विपरीत, विशेष क़ानूनी प्रावधान और अनुशासित चरित्र की बदौलत, सेना के लिए उन नैतिक कमज़ोरियों पर लगाम लगाना संभव हो सकता है, जो रिसकर इसकी संस्थागत संस्कृति में अंदर तक पहुंच गईं हैं. बस ज़रूरत इस बात की है कि उच्च सैन्य नेतृत्व एक मिसाल क़ायम करे, और उसे कड़ाई के साथ लागू करे.
सिविल-सैन्य रिश्तों में, अनुपालन और अनुसरण के बीच, वास्तव में एक बारीक रेखा है. अनुपालन अनिवार्य है, लेकिन सेना द्वारा सिविल सोसाइटी के नैतिक मूल्यों का अनुकरण, भारत के लिए बेहद हानिकारक साबित हो सकता है.
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(ले. जन. प्रकाश मेनन (रिटा) स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम, तक्षशिला संस्थान, बेंगलुरू के निदेशक, और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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