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Thursday, 21 November, 2024
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TOPS or BASE? टोक्यो ओलंपिक के बाद खेलों के लिए भारत को क्यों कोई एक रास्ता चुनना होगा

जरूरत अलग अलग इलाको में लोकप्रिय विभिन्न खेलों पर ध्यान देने की है, चाहे ये खेल ओलम्पिक में शामिल हों या नहीं या फिर इन खेलों में पदक मिलने की सम्भावना हो या नहीं.

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हर कोई मान रहा है कि टोक्यो ओलंपिक ने भारत में खेलों के लिए आगे की राह खोली है. लेकिन यह पूछने की जहमत कोई नहीं उठा रहा कि आगे की यह राह किस दिशा से खुली है? भारत में खेलों की दुनिया के लिए टोक्यो ओलंपिक से दो राहें निकलती हैं. एक राह का नाम जाना-पहचाना है. इसे TOPS कहते हैं, आसान भाषा में कहें तो यह ऊपर वालों की राह है यानि टॉप पर रहने वालों की राह. और, इसी तर्ज पर दूसरी राह का नाम रखें तो वह होगा BASE यानि नीचे वालों की राह, वह राह जो सिर्फ ऊपर वालों तक सीमित नहीं, बल्कि सबकी राह हो सकती है. हमें इन दो राहों में से कोई एक राह चुननी ही होगी. हम राह चुनने का ये काम प्रशासकों या फिर विशेषज्ञों पर नहीं छोड़ सकते. राह चुनने का ये सवाल हमारे मूल्यों और हमारी भविष्य-दृष्टि से जुड़ता है तो हमारी नीति और राजनीति से भी.

ऊपर वालों की राह बनाम सबकी राह

TOPS एक संक्षेपाक्षर है, पूरेपन में इसे टारगेट ओलंपिक पोडियम स्कीम कहा जाता है. यह भारत सरकार की एक पहल का नाम है और टोक्यो ओलंपिक में मिले पदकों के लिए कुछ श्रेय इस स्कीम को दिया जा सकता है. इस पहल के नाम(टॉप्स) से ही इसके बारे में सबकुछ जाहिर हो जाता है, जैसे कि : यह एक सरकारी स्कीम है और इसका स्पष्ट लक्ष्य ओलंपिक में भारत के लिए मेडल जीतना है. भले ही इस पहल की शुरुआत ऐसी घोषणा के साथ ना हुई हो लेकिन हमारी खेल-नीति की टेक यही है. इससे पता चलता है कि कैसे आधुनिक खेलों के चलन से मनुष्य के जीवन में खेलों की जगह बड़े व्यस्थित रीति से कम होती गई है. इस सिलसिले की पहली बात तो यही कि खेलों की दुनिया एक खुली हुई दुनिया है, इसमें नानाविध के खेल शामिल हैं लेकिन खेलों की विविधता भरी यह बहुरंगी दुनिया अब सिकुड़कर चंद खेलों तक सिमटकर रह गई है जिनके बड़े स्पष्ट नियम-कायदे होते हैं, जिनपर संस्थानों के कायदे-कानून चलते हैं और जो खेल निर्धारित रुपाकार(फॉर्मेट) में खेले जाते हैं. दूसरी बात, खेल अब सिर्फ इसके भागीदारों के आनंद के लिए नहीं रह गये बल्कि इनका प्रधान उद्देश्य दर्शकों, खासकर टीवी-देखवा लोगों का मनोरंजन करना हो गया है. तीसरी बात, अब हर खेल प्रतिस्पर्धा का मामला बन गया है जिसके अंत में किसी को हारना होता है और किसी को जीतना. चौथी बात, खेलों में जीत का सीधा संबंध नकद इनाम और राष्ट्रीय गौरव से बन गया है. जैसे कोई राष्ट्र-राज्य सैन्य और आर्थिक ताकत बनने के लिए होड़ में लगा होता है उसी तरह वह खेलों की दुनिया में भी महाशक्ति बनने की होड़ में होता है. आश्चर्य नहीं कि भारत सरकार ओलंपिक में पदकों की संख्या बढ़ाने के लिए स्कीम चलाना चाहती है. यह तो जाहिर ही है कि ओलंपिक सबसे ज्यादा पेशेवर, प्रतिस्पर्धात्मक और दर्शक-उन्मुखी करतब-लीला का रंगमंच है जिसे हम अपने भोलेपन में अब भी खेल कहते हैं.

इस संदर्भ में एक वैकल्पिक राह भी हो सकती है। मैंने इस राह का नाम TOPS की तर्ज पर BASE रखा है यानि ब्रॉड बेस्ड एप्रोच टू स्पोर्टस् फॉर एवरीवन. इस उलझाऊ किस्म के नामकरण के लिए मुझे माफ करें (वैसे TOPS भी कोई कम उलझाऊ नहीं है) लेकिन मुझे उम्मीद है इस नामकरण से वह अन्तर उभरकर सामने आएगा जिसने खेलों की आधुनिक करतब-लीला को राष्ट्रीय गौरव का रणक्षेत्र बना डाला है. यहां BASE नाम की जिस वैकल्पिक राह की बात की जा रही है उसमें खेलों को खेल-भावना के नजदीक रखने की कोशिश है. खेल का पहला और जरुरी अर्थ होता है कि वह भागीदारों को आनंद दे. खेल तो हर कोई खेलता है, यह अपने हुनर और कौशल में प्रवीण चंद खेल-वीरों के करतब तक सीमित थोड़े ही है ! बेशक किसी खेल में उत्कृष्टता मायने रखती है और उत्कृष्टता हासिल करने के लिए जतन करने होते हैं लेकिन यह जतन इस बात को परे रखकर नहीं किया जा सकता कि जो खेल रहा है, उसे पदकों की होड़ लगाने में कोई मजा ही नहीं आ रहा. खेल के दर्शक खेलों से दूर और तटस्थ नहीं होते, वे खेलों में शामिल होते हैं बल्कि यों कहें कि खेल देख रहे दर्शक की भावनाएं मैदान में किसी ना किसी तरफ से खेल रही होती हैं. खेल सिर्फ नकद इनाम, मेडल और सम्मान के लिए नहीं खेले जाते, खेलने का एक आंतरिक सुख भी होता है. ऐसे व्यापक और सामिलाती खेल-संस्कृति को बढ़ावा देने से पदकों की संख्या में और भी इजाफा हो सकता है, लेकिन पदकों की संख्या बढ़ाना मात्र इस खेल-संस्कृति का प्रधान उद्देश्य नहीं.


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TOPS का मतलब सबकुछ ऊपर से ही होना है

एक ऐसी खेल-नीति की जरुरत है जो इन दो राहों में से किसी एक को चुने या फिर कोई तीसरा रास्ता सुझाये. अभी राष्ट्रीय खेल-नीति के नाम पर हमारे पास एक 20 साल पुराना दस्तावेज है, एक ऐसा दस्तावेज जिसमें ढेर सारी अंग्रेजी लिखी है, हर बात में `हां जी- हां जी` का सुर मिलाया गया है लेकिन दस्तावेज में मुद्दे की बात खोजें तो वह छटांक भर भी ना मिले.

पहला रास्ता तो बहुत स्पष्ट है. आधुनिक खेलों का इतिहास बताता है कि एक बार आपके पास खेल-प्रतिभाओं का ठीक-ठीक भंडार हो जाता है तो फिर खेलों में उत्कृष्टता हासिल करने का मसला राजकीय मदद, कारपोरेट जगत की सहायता और मीडिया में दिखने भर की बात रह जाती है. तो फिर टोक्यो ओलंपिक से निकलती इस राह को अपनायें तो हमें सबसे अव्वल तो कुछ खेलों के लिए इंडियन प्रीमियम लीग की तर्ज पर दर्शक तैयार करने होंगे. भारत में मीडिया-भोगी वर्ग के आकार को देखते हुए कहा जा सकता है कि खेलों की मांग को बनाये और कायम ऱखते हुए इस व्यवसाय को साधा जा सकता है. निजी क्षेत्र में चलने वाले स्पोर्टस् एकेडमिज जो लाभ हासिल करने के लक्ष्य से काम करती हैं या फिर जिन्हें कारपोरेट जगत से राशि हासिल होती है, पूर्ति का पक्ष संभाल लेंगी. सरकार का काम होगा कि खेलों से जुड़े जो भी निकाय और प्राधिकरण हैं, उनमें जारी अव्यवस्था को दूर करे, मौजूदा नियम-कायदों को ठीक से लागू करे और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के जरिए कुछ खेलों को समय-समय पर सहायता मुहैया कराये. अगर सरकार इतना भर काम ठीक से कर लेती है तो फिर हम मानकर चल सकते हैं कि हमारी पदकों की संख्या बढ़ती जायेगी.

ध्यान रहे कि TOPS का मतलब है, जो कुछ होना है सो ऊपर से होना है. चुनिन्दा लक्ष्य तय करके इसके मकसद को साधा जा सकता है. हम ऐसे खेलों और स्पर्धाओं को चुन सकते हैं जिसमें मेहनत अपने सूद समेत वसूल हो जाये, टीम के रुप में खेले जाने वाले खेलों की जगह एकल स्पर्धाओं को चुन सकते हैं, उन खेलों को चुन सकते हैं जिनमें हमारे खिलाड़ियों का प्रवेश ज्यादा सुकर हो. अपने देश और इसकी अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए हमें TOPS वाले रास्ते में ज्यादा कुछ नहीं करना, बस खेलों की उत्कृष्टता के कुछ टापू जहां-तहां बना और बसा लेने हैं. जैसे चंद आईआईटी के जरिए हम दम भरा करते हैं कि देश ने प्रौद्योगिकी की शिक्षा के मार्चे पर किला फतह कर लिया है और अर्थव्यवस्था के एक छोटे से हिस्से जिसे मध्यवर्ग कहा जाता है, के जरिए `अतुल्य भारत` नाम की कथा को निरंतर जिलाये और जगाये रखा जाता है वैसे ही महानगरों में चंद स्पोर्टस् एकेडमी कायम करके हम इस संभावना को जगाये रख सकते हैं कि खेलों की दुनिया में पदकों की तालिका पर अब हमें निरंतर ऊपर चढ़ते जाना है. उपेक्षा के विराट महासागर के बीच खेल की उत्कृष्टता के चंद टापू इधर-उधर बसे नजर आयेंगे, नजर आयेगा कि हमारे पास चंद विश्वस्तरीय क्षमता और कौशल के खिलाड़ी हैं तो दूसरी तरफ देह की मेहनत-मशक्कत मांगने वाले खेलों से मुंह मोड़कर खड़ी कई-कई पीढ़ियां तैयार होती जा रही हैं. यों ऐसा होना भारतीय आधुनिकता के उस स्वभाव को अनुकूल ही है जिसमे हमारा समाज दो टुकड़ों में बंटा नजर आता है, एक टुकड़ा खूब सजा-संवरा छैल-छबीला और दुनिया की नजरों को दिखाने के काम आता है और इस हिस्से के पीछे होता है एक विशाल, उपक्षित और जबर्दस्ती ढंक कर रखा गया बीहड़ और उजाड़.

अगर कोई राह ऐसी है तो फिर उसे चुनौती दी जा सकती है और चुनौती दी भी जानी चाहिए.


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खेलः ओलंपिक्स की हदबंदियों से परे

TOPS के बरक्स BASE वाला रास्ता चुनें तो उसका अर्थ होगा नीचे से ऊपर की तरफ बढ़ना, खेल की दुनिया की प्रतिभाओं का दायरा बड़ा और विस्तृत करना और ये ध्यान में रखना कि भारत में खेलों की दुनिया बहुरंगी हैं, दो-चार नहीं बल्कि इस देश में बीसियों की तादाद में खेल मौजूद हैं और खेले जाते हैं.

इस दिशा में हमारा पहला कदम होगा स्कूलों में खेल की सुविधा बढ़ाना और बेहतर करना. देश में लगभग 80 प्रतिशत स्कूलों में खेल के मैदान हैं( ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों के लिए यह आंकड़ा 77 प्रतिशत का है जबकि ग्रामीण क्षेत्र के मान्यताविहीन स्कूलों के लिए 61 प्रतिशत). लेकिन, खेल के ये मैदान सिर्फ मैदान भर हैं, जरुरी नहीं कि यहां खेल भी खेले जाते हैं. साल 2018 के असर(एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 17 प्रतिशत स्कूलों में ही फिजिकल एजुकेशन के पूर्णकालिक शिक्षक हैं. ग्रामीण क्षेत्र के केवल 26 प्रतिशत स्कूलों के बारे में ही कहा जा सकता है कि आप किसी कामकाजी दिन वहां जायें तो आपको शारीरिक शिक्षा(फिजिकल एजुकेशन) की क्लास होती मिले या फिर सिखाने वाले की देख-रेख में कोई खेल होता नजर आये. शेष बचे तीन चौथाई स्कूलों में खेल-कूद की सुविधाएं मुहैया कराना हमारी शीर्ष प्राथमिकता होनी चाहिए. हाल-फिलहाल तीन से पांच साल की उम्र के बच्चों की शिक्षा और देखभाल पर जोर दिया जा रहा है. यह एक ऐतिहासिक मौका है जब हम खेलों को शिक्षा के प्रमुख माध्यम के रुप में देखें.

इस यात्रा का दूसरा पड़ाव होना चाहिए देश मे लगभग 40 हजार की तादाद में मौजूद कॉलेजों और 1000 से ज्यादा की संख्या में मौजूद विश्वविद्यालयों में बेहतर खेल सुविधा मुहैया कराना. साथ ही, केंद्र सरकार को बेहतर खेल-उपकरणों और साज-सज्जा वाले स्टेडियम के निर्माण में भी निवेश करना चाहिए. इसके अंतर्गत हर जिले में एक इनडोर फेसिलिटी मुहैया कराना भी शामिल है. ओड़िशा सरकार की पहल से अन्य राज्य की सरकारों को सीखना चाहिए. ओड़िशा सरकार ने हाल में 89 मल्टी-परपज इनडोर स्टेडियम बनाने की घोषणा की है जिनका इस्तेमाल आपदा की स्थिति में शरणस्थली के रुप में भी किया जा सकता है.

इस सिलसिले की आखिर की बात यह कि हमें उन विभिन्न खेलों पर ध्यान देना होगा जो देश के अलग-अलग इलाकों और राज्यों में प्रचलित है और ऐसा करते हुए हमें इस ख्याल का दूर झटकना होगा कि किसी खेल की ओलंपिक के लिहाज से क्या हैसियत है या फिर किसी खेल में हमारी पदक जीतने की संभावना कितनी बलवती है. हो सकता है, वैश्विक स्तर पर होने वाले फुटबॉल के खेल में हम विजय-मंच पर चढ़ने से दशकों दूर हों लेकिन बंगाल, गोवा, केरल और पूर्वोत्तर के राज्यों में यह सबसे लोकप्रिय खेलों में एक है. कबड्डी भले ही ओलंपिक में ना खेली जाती हो, लेकिन हमारे देश में यह कुश्ती से ज्यादा लोकप्रिय है. क्या ही बेहतर हो कि देश के अलग-अलग क्षेत्रों का विकास अलग-अलग खेलों के लिए बेहतर सुविधाओं की जगह के रुप में हो. अगर केन्या लंबी दूरी के महान धावकों की जन्मभूमि हो सकता है तो फिर कोई कारण नहीं कि छत्तीसगढ़ भी हमारे लिए ऐसे ही धावकों की जन्मभूमि ना बने. इस बार के ओलंपिक में हासिल सात पदकों में भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों ने दो पदक का योगदान किया है और देश का पूर्वोत्तर का यह हिस्सा महिलाओं के लिए खेल-स्पर्धा की धुरी बनकर उभर सकता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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